बुधवार, 2 सितंबर 2015

दर्पण

दर्पण जो आज देखा वो मुंह चिढ़ा रहा था
चेहरे की झुर्रियों से बीती उम्र बता रहा था।

कब कैसे कैसे वक्त सारा निकल गया था
कुछ याद कर रहा था मैं कुछ वो दिला रहा था।

नटखट भोला भाला बचपन कितना अच्छा होता था
जब बाहों में मां के झूले झूला करता था।

धमा चौकड़ी संग अल्हड़पन कब पीछे छूट गया था
इस आपाधापी के जीवन में वो भी बिसर गया था।

कब उड़ान भरी हमने कब सपना मीठा देखा था
सच में सब कुछ वो बहुत रुला रहा था।

कब हंसे कब रोया हमने क्या कैसे पाया था
गिनती वो सारी की सारी करा रहा था।

मैं रो रहा था और वो मुझ पर हंस रहा था
क्यों नहीं हमने सबको रक्खा सहेजे था।

पछता के अब क्या वो ये जता रहा था
जो बीता वो ना लौटे वो यही समझा रहा था।

अब समझ रहा था मैं जो वो कहना चाह रहा था
आने वाले पल के लिये वो तैयार करा रहा था।
000
पूनम




9 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (04.09.2015) को "अनेकता में एकता"(चर्चा अंक-2088) पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, चर्चा मंच पर आपका स्वागत है।

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  2. समय से बढ़कर कोई नहीं...
    बहुत सुन्दर

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  3. वक़्त के आगे सब असहाय हैं, वह केवल आगे बढ़ना जानता है...बहुत सुन्दर और भावपूर्ण अभिव्यक्ति..

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  4. दर्पण और अपना मन हमेशा वास्तविकता का अहसास करते हैं

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  5. आगे बढते रहना किसिस भ परिस्थिति में. यही जिंदगी है. सुंदर अर्थपूर्ण प्रस्तुति.

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