शुक्रवार, 30 जनवरी 2009

उलझन


घिस घिस कर कलम
भर गए सब पन्ने
पर लिखनी थी जो बात
वो ही न लिख सके।

सुन सुन कर औरों की
कान जब्त हो गए
जब कहने की बारी आई
तो ख़ुद कुछ न कह सके।

मन का दिया बना कर
सोचों की आहुति डाली
सूरज की रोशनी में भी
पर वो न जल सके।

तारों को अपने आँचल में
चाहा था उतारना
पर क्या करें जब पाँव
जमीं पर ही न टिक सके।
………….
पूनम

11 टिप्‍पणियां:

  1. पूनम जी ,
    बहुत ही सुंदर शब्द लिखे हैं आपने.......
    मन का दिया बना कर ,
    सोचों की आहुति डाली
    सूरज की रोशनी में
    पर वो न जल सके .
    अच्छी रचना के लिए बधाई.

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  2. इस उलझन में पूरी ज़िन्दगी निकल जाती है,वक्त आने पर खामोशी ही हिस्से आती है....
    बहुत अच्छी रचना..

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  3. शुक्रिया पूनम मेरे ब्लाग पर आने का। हमेशा ही स्वागत है। अच्छा लिख ररही हैं आप और मैं देख रही हूँ कि निखार आ रहा है हर अबर आपकी लेखनी में पहले से ज़्यादा।

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  4. sochon ki aahutise chahe dya na jala ho magar aapke shabdon ki ahuti ne sunder kavita to rach di hai bdhaai

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  5. Bahut sundar ...

    जब कहने की बारी आई
    तो ख़ुद कुछ न कह सके।
    Bahut ache bhav han aapki is rachna ke ...बधाई.

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  6. very impressive poem.

    आपका शब्द संसार भाव, विचार, भाषा और प्रखर अभिव्यक्ति के स्तर पर ह्रदय को गहराई से प्रभावित करता है । अच्छा लिखा है आपने । विषय के साथ न्याय किया है ।

    मैने अपने ब्लाग पर एक लेख लिखा है-आत्मविश्वास के सहारे जीतें जिंदगी की जंग-समय हो तो पढें और कमेंट भी दें-

    http://www.ashokvichar.blogspot.com

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  7. सुंदर रचना. साधुवाद.

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