रविवार, 19 दिसंबर 2010

मजबूरी


दरवाज़े की घंटी बजी ट्रिंग ट्रिंग,और आलस से भरी हुई थकी आँखों ने घड़ी पर नज़र डाली।दोपहर के लगभग पौने तीन बज रहे थे।इस वक़्त कौन हो सकता है,ये सोचते हुए तथा बोलते हुए किकौन?,उठने की कोशिश कर ही रही थी कि कानों में आवाज़ पड़ीमैडम प्लीज़।इतना सुनना था की बस फ़िर तो पूछिये मत्।उठने का उपक्रम छोड़कर पुन: लेट गयी।यह जानकर कि एक दो बार घंटी फ़िर बजेगी चादर से मुँह लपेटकर कानों को ढक लिया और उनके लौटते हुए कदमों के आहट का इंतज़ार करने लगी।थोड़ी देर बाद शांति हो गयी।यानि वो जो कोई भी था या थी लौट चुका था।

अब इन बिन बुलाये मेहमानों की तरह टपकने वालों के आने से नींद तो उड़ ही चुकी थी।फ़िर भी सोने की कोशिश करने लगी।पर आँखों में नींद की जगह दिल में अजीब से भाव उपजने लगे।लगा जैसे कि मेरा मन मुझे धिक्कार रहा है।मेरे मन की पुकार अंतर्मन तक पहुँची और फ़िर अंतर्मन ने उधेड़बुन के जाल बुनने शुरू कर दिये।

अपने ही द्वारा किये गये इस आलस्यपूर्ण कार्य के लिये मन में उपजी ग्लानि ने विचारों की अनवरत बहती धारा का रूप लेकर उनसे उपजे भावों को शब्दों का चोला पहनाने पर मुझे विवश कर दिया।और कलम फ़िर धारा प्रवाह डायरी के पन्नों पर थिरकने लगी।

जी हाँ,अब आप समझ गये होंगे कि मैं किसके बारे में बात करे रही हूँ………………………………।

ये हैं एम0बी0ए0 या किसी और शैक्षिक संस्थान से जुडे आजकल के युवा।जो अपनी पढ़ाई के बाद ट्रेनिंग के दौरान दिन रात एक कर के चिलचिलाती धूप,देह को सिकोड़ती ठंड,और धुँआधार बारिश के बीच इस गली से उस गली,एक कालोनी से दूसरी कालोनी चलते रहते हैं। करते हैं हाड़-तोड़ मेहनत और सफ़लता पाने की कोशिश।शायद आपके या हमारे एक खरीद से ही उनका हो जाये प्रमोशन। पर हम हैं कि अपने आपको समझते हैं इंसानियत का शहंशाह। जो कि दरवाज़े पर मैडम प्लीज़ की आवाज़ सुनते ही लेते हैं एक उबासी भरी सांस और उठना तो दूर उनपर नज़र डालना भी पसंद नहीं करते।जो हमारे आराम में इस तरह खलल डालने की करे तनिक भी कोशिश,भले ही वो बेचारे पढ़े लिखे नौजवान अपने आराम को त्याग के एक आशा भरी दृष्टि आप पर डालते हैं,इस उम्मीद से कि शायद आप्…………पर हम हैं कि मैडम प्लीज़्…आज ही नया लांच्…,इसके आगे वो कहना क्या चाहते हैं,सुनने की कोशिश भी नहीं करते।

ये तो रही दूर की बात,ये भी नहीं सोचते कि बेचारे पसीने से लथपथ् कम से कम एक गिलास पानी की ख्वाहिश तो आप से रख ही सकते हैं।पर जब भड़ाक से खिड़की का दरवाज़ा उनके मुँह पर बंद हो जाता है तो बेचारे खुद ही पानी पानी हो जाते हैं और वो आगे बढ़ा लेते हैं अपना कदम बावजूद इतना कुछ होने के…सिर्फ़ एक प्रमोशन की आस में।

(है ना ये हमारी इंसानियत की पहचान… ऐसा होते अक्सर देखा है इसलिये अपने आप को ही केन्द्रित करके लिख रही हूँ…ये पोस्ट दस दिन पूर्व का लिखा हुआ है पर ऐसी घटनायें हमारे साथ रोज़ ही होती हैं)।

0000

पूनम

31 टिप्‍पणियां:

  1. जी हाँ आपने ठीक कहा ऐसा अक्सर होता है.आजकल शिष्ट -आचार पालन भी खतरे से खाली नहीं है ,यह भी इसका एक कारण है.

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  2. baat to sahi hai, per kai baar apne bachche jaisa sochker hum jo karte hain , uske saath we galat karte hain...

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  3. अच्छा ध्यान दिलाया आपने...लेकिन हम उनका और अपना समय बर्बाद नहीं करना चाहते शायद...
    वैसे भी आज कल ज़माना बहुत खराब है,,महिलाएं अगर घर में अकेली हों तो दरवाज़ा न ही खोलें तो बेहतर...

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  4. aise bahut se aur bhi shistachar dikhane ke tarike hain jo ham nhi dikha pate...:)
    waise hamari no-no unhe sayad jindagi se ladne ki jijiwisha hi deti hogi.....positive soche punam ji:)

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  5. जितनी भी भलमन्साहत बची हुयी है, उसे भी उलीच देना चाहते हैं, कम्पनियों के लोग।

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  6. जहा तक बात इंसानियत की है तो उन छात्रो को भी ये देख लेना चाहिए की किस समय और कहाँ की कॉल बेल बजा रहे है वो . कितने बार सुनी जाती है ऐसी खबरे जो ऐसे कॉल बेल दबाने वाले कर जाते है छात्रो के भेष में .पूनम जी कई बार भावुकता और इंसानियत के नाम ठगे जाने का भी डर रहता है ..

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  7. आपका कहना कुछ हद तक सही है .. पर कभी कभी ऐसी बातें तकलीफ में भी डाल देती हैं ... जहां तक म्हणत की बात है वो जरूर करनी चाहिए उन्हें .. पर जरूरी नहीं है की वो सेल्स मेन सही सामान ही बेच रहा हो ... आपकी भावना की में कद्र करता हूँ .. .

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  8. आपकी भावना की में कद्र करता हूँ .. .

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  9. एमबीए की ऐसी ही एक छात्रा की मैंने भी मदद की उसका प्रोडक्ट खरीदकर. वोमेरे ऑफिस में आई थी. नाम था रश्मि. यह बताकर गई थी कि अगलेमहिने वो फिर फीड बैक लेने आएगी. यह भी बताया था कि उसके सीनियर का फोन आएगा फीड बैक के लिए. न फोन आया, न वो आई.
    तिन महीने बाद एक और लडकी मेरे ऑफिस में आई, सारे कर्मचारियों के पास गई, और उनके कहने पर भी मेरे पास नहीं आई. उसका नाम रजनी था. शक्ल, ऊंचाई, नैन नक्श, बोलचाल हू-ब-हू रश्मि की तरह. सीता और गीता कि तरह उसकी जुडवां बहन होगी शायद.
    पूनम जी! होता है, ऐसा भी होता है. जब दस में से आठ नकली हों तो असली पर भी भरोसा बड़ी मुश्किल से होता है!!

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  10. यह घरो मे आते ही क्यो हे? ओर ध्यान से जी भारत मे बहुत किस्से सुने हे, जो अकेली महिला को देख कर लुट कर ले जाते हे, सावधान

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  11. इनके प्रति सहानुभूति के रास्ते से चल कर उपेक्षा के मुकाम पर आ चुका हूँ! :(

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  12. आपके विचार बहुत श्रेष्ठ है पूनम जी, हिदायत भी अमल करने लायक है लेकिन सच यही है की सहानुभूतियों को बुरे अनुभवों बहुत कम कर दिया है .
    मखमल की चुभन

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  13. bhavpoorn charcha .........

    ye promotion ka tareeka theek hai kya.....?

    sochane par majboor karta lekh......
    Poonam meree nayee post update nahee huee hai kisee bhee blog par na jane kyo.........
    shayad system hee naraz hai......

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  14. aap sabhi sneh aur apnatv se bhare pathako ko mera hardik abhinanadan.
    mujhe bahut hi khushi huiaapsabhi ke vichar jankar.kyon ki mujhe bhi labhag aise hi jawabon ka andesha tha.
    kyon ki lekh ka dusara paxh bhi ho sakta hai jaisa aap sabhi ne sujhav diya hai.
    yah bhi baat is lekh ko likhte samay mere jehan me tha,lekin yahan par vahi baat siddh hoti hai ki ek gandi maxhli pure taalab ko ganda karti hai.
    meri yahi soch hai ki
    in jaise logo ke jo udaharan aajkal dekhne v padhne ko milte hai vah bhi sach hai ,
    par inhi me se jo jarurat mand hote hain unhe bhi unke saath shamil karne ki majburi ho jaati hai .
    aise me achho ke saath bhi hamari majburi ban jaati hai unki madad na karne ki.
    bas! ye hi soch soch kar man kabhi kabhi bahut hi dravit ho uthta hai.
    ek baar punah aap sabhi ko dil se dhayvaad.
    poonam

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  15. बिल्कुल सही कहा आपने.................सुंदर एहसास. मगर शेखर जी की बात से भी सहमत...

    सृजन शिखर पर ---इंतजार

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  16. अच्छे विचारो को साझा करने चाहिए ,आपके विचार अच्छे है तो सामने वाला भी अच्छा होगा .सकारात्मक सोचना चाहिए.

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  17. बहुत देर से मै भटक रही थी की कुछ अच्छा मिल जाये पढने को भटकते -भटकते मै आपकी ब्लॉग पे आपहुँची ...इतनी खुबसुरत इंसानियत का पाठ पढ़कर बहुत अच्छा लगा जिसे हम अकसर अनदेखा कर दिया करते है ...!!!

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  18. आजकल रोज़ समाचारों में आती लूट आदि की खबरों के कारण सेल्समेन के लिए दरवाज़ा खोलना खतरे से खाली नहीं लगता .
    वैसे बोतल के पानी का चलन है और ये सेल्समेन भी अक्सर रखा करते हैं .

    इन्हें भी ट्रेनिंग में इन सब मुश्किलों की जानकरी दी जाती है.ग्राहकों के इस तरह के रूखे व्यवहार के लिए मानसिक रूप से ये तैयार होते हैं.

    --आप अच्छा सोचती हैं इसलिए ऐसा आप ने महसूस किया.

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  19. आशीश और चलाबिहारी जी ने सही कहा है। पहचान कैसे हो कि वो सही मे कुछ बेचनी आया है या लूटने। विचार तो मन मे आते हैं मगर आजकल के हालात देख कर डर भी लगता है। शुभकामनायें।

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  20. आज कल सब पर भरोसा नहीं होता ..आये दीं होने वाली घटनाओं को देखते हुए अनजान इंसान से हर कोई भयभीत होता है ...

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  21. इनकी मेहनत, मजबूरी और परिस्थिति पर दया तो आती है, लेकिन डर लगता है। सुरक्षा के मद्देनज़र , ना चाहते हुए भी इनकार ही करना पड़ता है।

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  22. आपने ठीक कहा पर कभी कभी ऐसी बातें तकलीफ में भी डाल देती हैं|

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  23. पहचान कैसे हो कि वो सही मे कुछ बेचनी आया है या लूटने ?
    बहुत जरुरी आलेख हमारी आँखें खोलने में सक्षम

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  24. आप की सोच और मानवता के इस संदेश की मैं क़द्र करती हूं हालांकि सभी लोगों के मन की शंकाएं भी सही हैं
    बड़ा ही मुश्किल सवाल है ,बस ऊपर वाले पर यक़ीन कर के ऐसे बच्चों की बात ज़रूर सुन लेनी चाहिये क्योंकि कल को वो हमारा बच्चा भी हो सकता है, ऐसा मुझे लगता है

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  25. आपको एवं आपके परिवार को क्रिसमस की हार्दिक शुभकामनायें !

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  26. आपके द्वारा व्यक्त किए गए इंसानियत संबंधी विचार प्रेरक हैं।
    सार्थक चिंतन।

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