शनिवार, 4 अगस्त 2012

गज़ल


आज अपने ही शहर में
बन के मेहमां हम खड़े हैं
देख के हालत ये अपनी
बेकसी से रो पड़े हैं।

हंस के जो मिलते थे पहले
आज परदे में छुपे हैं
एक सिक्के के दो पहलू
सामने मेरे पड़े हैं।

सूर्य के रथ की धुरी सी
चल रही थी ज़िन्दगी
राहु बन कर के वो मेरा
रास्ता रोके खड़े हैं।

पहचान की हर सरहदों को
काट कर मीठी छुरी से
देखते हैं वो तमाशा
किस डगर पर हम खड़े हैं।

आज अपने ही-----।
0000

पूनम

17 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर कबिता ------ एक सिक्के के दो पहलु सामने मेरे पड़े है----------- बहुत -बहुत धन्यवाद.

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  2. ऐसा दौर भी आता है कभी.............

    बहुत बढ़िया रचना पूनम जी.

    अनु

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  3. पहचान की हर सरहदों को
    काट कर मीठी छुरी से
    देखते हैं वो तमाशा
    किस डगर पर हम खड़े हैं।

    बहुत बढ़िया गजल ,,,,पूनम जी,,,,,

    RECENT POST ...: रक्षा का बंधन,,,,

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  4. खूबसूरती से मन के भावों को उतारा है गजल में।

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  5. राह कौन है, नहीं ज्ञात है,
    आशाओं की अभी रात है।

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  6. जीवन की कटु सचाई को इस गज़ल में बहुत ही सुंदरता से बयान किया है आपने!!

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  7. sarthak prastuti .बहुत सुन्दर भावाभिव्यक्ति . मित्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनायें !

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  8. पहचान की हर सरहदों को
    काट कर मीठी छुरी से
    देखते हैं वो तमाशा
    किस डगर पर हम खड़े हैं।

    सुंदर गीत पूनम जी बधाई और मित्रता दिवस पर शुभकामनायें.

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  9. कल 06/08/2012 को आपकी यह बेहतरीन पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
    धन्यवाद!

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  10. एक कमेन्ट सुबह चेपा था...कहीं स्पैम में तो नहीं चला गया...

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  11. वाह ... बहुत खूब

    कल 08/08/2012 को आपकी इस पोस्‍ट को नयी पुरानी हलचल पर लिंक किया जा रहा हैं.

    आपके सुझावों का स्वागत है .धन्यवाद!


    '' भूल-भुलैया देखी है ''

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  12. बहुत भावपूर्ण रचना और सुन्दर शब्द चयन |
    आशा

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