मौत के चंगुल में
लेखक
प्रेम
स्वरूप श्रीवास्तव
प्रकाशक:
नेशनल बुक
ट्रस्ट ‘इंडिया’,नई दिल्ली
आज भले ही
हिन्दी बाल साहित्य में उपन्यास लेखन हाशिये पर है परंतु स्वतंत्रता प्राप्ति के
बाद छ्ठें,सातवें और आठवें दशक में बाल पाकेट बुक्स के तहत सैकड़ों बाल उपन्यास
प्रकाशित हुये थे।सुनहरे हंस,फ़ुटपाथ से महल तक,आलसीराम का सपना,पोपटमल,होटल का रहस्य,मंदिर में चोरी,बहादुर भालू,गधे की हजामत,हाइजैकिंग,चुटकुलानगर,सुरखाब के पर,चित्तौड़ की महारानी जैसे अनेक
उपन्यास उस काल में प्रकाशित होकर नन्हें पाठकों के गले का कंठहार बने थे।उसी दौर
में बच्चों की सुप्रसिद्ध पत्रिका‘पराग’ में---बहत्तर साल
का बच्चा:आबिद सुरती,चींटीपुरम के भूरेलाल:मुद्राराक्षस,भागे हुये डैडी:के0पी0सक्सेना,नागराजवासुकी की मणि:देवराज दिनेश तथा शाबास
श्यामू:डा0श्रीप्रसाद आदि धारावाहिक उपन्यास प्रकाशित हुये थे।
उसी दौर में प्रेमस्वरूप
श्रीवास्तव द्वारा लिखे गए बाल उपन्यास“मौत के चंगुल
में”को आधुनिक
साज-सज्जा के साथ प्रकाशित करके नेशनल बुक ट्रस्ट ने न केवल बाल पाठकों
को एक अनोखा उपहार दिया है अपितु रहस्य रोमांच और ऐतिहासिक यात्राओं में रुचि रखने
वाले आम पाठकों को नेहरू बाल पुस्तकालय योजना की एक अमूल्य निधि सौंपी है।
विकलांग,अपाहिज,अंधे-बहरे,लूले,लंगड़े
और बदसूरत बच्चों को केन्द्र में रखकर लिखे गये इस उपन्यास की कथावस्तु अद्भुत है।
इसे मिस्टर वाटसन की सनक कहा जाय या अपाहिज बच्चों के प्रति उनका असीमित स्नेह कि
ऐसे बच्चों के प्रति उसने अपना संपूर्ण जीवन समर्पित कर दिया। अपाहिज बच्चों की
खुशी में अपनी खुशियां तलाशने वाले मि0 वाटसन का परिचय उपन्यासकार ने इन पंक्तियों
में दिया है:--‘जाड़े की ठिठुरती रात हो
या आग की तरह तपते गर्मी के दिन,वह(वटसन) इन बच्चों के लिये दौड़ता ही रहता। उसका
कमरा एक छोटा-मोटा अस्पताल नज़र आता था।रात में दो-दो,तीन-तीन बार उठकर वह इन
बच्चों के कमरों के चक्कर लगाता।किसी भी बच्चे की मामूली कराह सुनकर वह बेचैन हो
जाता। जब तक उसे मीठी नींद में सुला नहीं देता,वह अपने बिस्तर पर नहीं लौटता।‘—(पृष्ठ—7)
ऐसे धुनी और लगन के पक्के
वाटसन ने जब इन अपाहिज बच्चों को दुनिया की सैर कराने का बीड़ा उठाया तो उसका सहयोग
करने के लिये कई संपन्न लोग आगे आ गये। दुनिया के सभी बड़े देशों की सरकारों ने भी
इस पुण्य काम में सहयोग करने का आश्वासन दिया। जहाज कम्पनी के मालिक हक्सले ने
आसानी से ‘एटलस’ जहाज का प्रबन्ध कर दिया।
यात्रा वह भी कई दिनों की,कई
देशों की----खट्टे-मीठे अनुभवों की-----इस यात्रा को लेकर उन अपाहिज बच्चों में जितना उत्साह और रोमांच था उससे कहीं ज्यादा
उत्साहित थे मि0वाटसन ---आखिर यह यात्रा उनके जीवन की प्रस्थान बिन्दु थी।न्युयार्क बंदरगाह से आरंभ होकर जार्जटाउन,साउथैम्प्टन, जिब्राल्टर,पोर्टसईद,मुम्बई,सिडनी,शंघाई तथा याकोहामा होते हुये सैन्फ़्रान्सिसको तक की यह यात्रा मि0वाटसन
की सोची समझी रणनीती का हिस्सा थी।इस यात्रा के आरंभ में ही उपन्यासकार ने वाटसन
के हवाले से एक बड़ा संदेश दिया है जिसमें पूरे संसार को एक परिवार बताया गया है:---“हमें अपने मन की आंखों
को इस दूरबीन की तरह ही बना लेना चाहिये ताकि दुनिया के मनुष्य हमें अपने एकदम
करीब दिखाई दें। यह समूचा संसार एक बहुत बड़ा परिवार है न।”-----(पृष्ठ—28)
विकलांग बच्चों को
लेकर ‘एटलस’ भारत के मुम्बई बंदरगाह पर आया
तो सरकार की ओर से न केवल उन बच्चों का स्वागत किया गया,बल्कि भारत के विकलांग
बच्चों का एक दल उसमें शामिल करके भारतीय बच्चों को भी दूसरे देशों की यात्रा का
आनन्द उठाने का अवसर प्रदान किया गया। उपन्यासकार ने भारत दर्शन के बहाने प्रसिद्ध
ऐतिहासिक स्थानों का उल्लेख करके आधुनिक भारत का एक जीवंत चित्र प्रस्तुत किया है।
उपन्यासकार ने यात्रा
के इसी क्रम में एक भारतीय सन्यासी का प्रवेश कराकर कथासूत्र को ऐसा मोड़ दिया है
जिसमें न केवल भारत की परंपरा के दर्शन होते हैं अपितु ईश्वर के प्रति हमारी आस्था
का रंग और गहरा हो जाता है। सन्यासी की भविष्यवाणी वाटसन को दी गयी एक सलाह है:--“तुम लोगों को रास्ते में
एक भयानक संकट का सामना करना पड़ेगा।लेकिन भगवान को मत भूलना,वह सबकी रक्षा करेगा।’(पृष्ठ--36)
उपन्यास के बीच में साहस
और रोमांच के कई पड़ाव आए हैं जिसमें बंगाल के जंगल में एक भयंकर सांप द्वारा रोज़ी
को लिपटाना तथा कमांडर जयकुमार मुखर्जी द्वारा सांप को मारकर रोज़ी को बचाना के
महत्वपूर्ण घटना है। बदला लेने की नीयत से क्रोधी स्वभाव वाले शरारती जेम्स ने
किटी को समुद्र में धकेल दिया था परंतु हवा और समुद्र की लहरों के संयोग से वह जीवित बच गया। उपन्यासकार ने इस
घटना का ताना-बाना इतने सलीके से बुना है कि यह घटना संयोग कम ईश्वरीय कृपा अधिक
लगती है। घटना के बाद उदार किटी का जेम्स के प्रति व्यवहार सच्ची इंसानियत का एक
जीता-जागता नमूना है:---“बोलो जेम्स—कहीं इस तरह की शरारत भी
की जाती है कि किसी की जान ही चली जाए।मुझे समाप्त कर देने से तुम्हें क्या मिलता—तुम्हारे साथियों में आज एक कम हो जाता।---------------------उसी
दिन से जेम्स की सारी शरारतें छूट गयीं। वह दया और प्रेम का जीता-जागता पुतला बन
गया।”---(पृष्ठ--49)
आगे चलकर भारतीय सन्यासी की
भविष्यवाणी सच हुयी और ‘एटलस’ भयंकर तूफ़ान में फ़ंस गया। जब ‘एटलस’ का संपर्क दुनिया के देशों से
टूट गया तो उसे खोजने के लिये सिडनी बंदरगाह से ‘ग्लोब’ तथा हांगकांग से ‘एशिया’ नामक जहाज निकल पड़े।भारतीय जहाज ‘सन आफ़ इंडिया’ भी कैप्टन यशवन्त सिंह के
नेतृत्व में ‘एटलस’ की खोज में निकल पड़ा।धीरे-धीरे
तूफ़ान का रुख बदला परंतु ‘एटलस’ पर अभी भी संकट के बादल मंडरा रहे थे।काफ़ी जद्दोजहद के बाद
‘एटलस’की खोज में निकले तीनों जहाजों
का ‘एटलस’ से संपर्क हो पाया।
दरअसल ‘एटलस’ पर छाए खतरे के बादलों का
प्रकोप सही अर्थों में चूहे बिल्ली का खेल था।स्थिति यहां तक पहुंच गयी कि समुद्र
की तेज लहरों में फ़ंसा ‘एटलस’किसी भी समय डूब सकता था। संकट की इस घड़ी में कैप्टन यशवंत सिंह ने अपने
साहस,लगन और धैर्य से सात सौ अपंग बच्चों को समुद्र की बेरहम लहरों से उबारा तेजी
से डूब रहे। ‘एटलस’से बच्चों को बचाकर डेक के खुले
हिस्से पर स्थानान्तरित कर दिया गया। इस पूरे घटनाक्रम में जिस तरह से बच्चे मौत
के तांडव से बचे,उसे देखकर विलियम का ईश्वर के प्रति विश्वास और बढ़ गया:--“हमने मौत को पूरी तरह
मात दे दी है। सच बात तो यह है कि इन बच्चों का शरीर गढ़ने में विधाता ने भले ही
भूल की हो मगर इनका भाग्य लिखते समय वह बेहद खुश थे।“---(पृष्ठ--77)
प्रस्तुत उपन्यास का
समापन सुखांत है।दुनिया के सात सौ अपंग बच्चों की यह खट्टी-मीठी यात्रा उत्साह और
उमंग का समन्वय है। इस यात्रा को जय कुमार मुखर्जी और यशवंत सिंह के साहस और विवेक
से लिये गये निर्णय ने और भी महत्वपूर्ण बना दिया है। उपन्यास का शीर्षक “मौत के
चंगुल में” बड़ा ही उपयुक्त है।क्योंकि सामने खड़ी मौत की जिस त्रासदी
को अपंग बच्चों ने झेला था वह अपने आप में दिल दहला देने वाली थी।यह ईश्वर का
लाख-लाख शुक्र है कि बच्चे इस त्रासदी से बाल-बाल बच गये।
यह समाज की विडंबना है कि
विकलांग बच्चों को प्रायः आदर की दृष्टि से नहीं देखा जाता है। आम बच्चों से भी
उनकी दूरी बनाकर रखी जाती है। उपन्यासकार ने अपाहिज और अनाथ बच्चों को केन्द्र में
रखकर समाज की इस विडंबना को बदलने का प्रयास किया है। पूरे उपन्यास में जगह-जगह
भाई-चारे जा अप्रत्यक्ष संदेश इस उपन्यास की एक और विशेषता है।
उपन्यास की भाषा-शैली इतनी
सरल और रोचक है कि पूरा उपन्यास एक ही बैठक में पढ़ा जा सकता है।बिखरे हुये
कथासूत्र की तारतम्यता पाठकों का ध्यान बरबस अपनी ओर आकृष्ट करती है। मजे हुए
चित्रकार पार्थसेन गुप्ता के बहुरंगी चित्रों का भी अपना आकर्षण है।मुखपृष्ठ तो
साहस और चुनौती का पूरा जीता-जागता उदाहरण है।
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इस उपन्यास के समीक्षक डा0सुरेन्द्र विक्रम, क्रिश्चियन पोस्टग्रेजुएट कालेज
लखनऊ में हिन्दी के एशोशिएट प्रोफ़ेसर एवंविभागाध्यक्ष हैं।आप प्रतिष्ठित बाल
साहित्यकार एवं बाल साहित्य आलोचक हैं।
मोबाइल--09450355390
अच्छा सर्वेक्षण बच्चो हेतु साहित्य संस्कार क्षम अवश्यक है
जवाब देंहटाएंबेहतरीन समीक्षा ,आभार.
जवाब देंहटाएंसमीक्षा रुचिकर लगी...
जवाब देंहटाएंआभार !
समीक्षा पढकर पुस्तक पढने की इच्छा जागृत हो गयी……………आभार
जवाब देंहटाएंअच्छी समीक्षा पुस्तक पढने के लिए प्रेरित करती है!!! बधाई ,,,,
जवाब देंहटाएंRECENT POST: जुल्म
सुंदर समीक्षा.
जवाब देंहटाएंमन की आँखों को दूरबीन बना लेने की बात भा गयी..सुन्दर समीक्षा।
जवाब देंहटाएंनव संवत्सर की हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ!!
जवाब देंहटाएंसुन्दर समीक्षा....
जवाब देंहटाएंसुन्दर समीक्षा,,,,
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