शनिवार, 27 जून 2009

सत्य के पर्याय


सच्चाई के आज मायने बदल गये,
सच पर झूठ के ताले पड़ गये।

कानून की आंख पर पट्टी बंधी,
हाथ भी रिश्वत की तराजू में तौल गये ।

पैसों के बोझ तले गुनहगार बच गये,
बेगुनाह आज देखो गुनहगार बन गये।

अपराधी दण्डित हों पर बेगुनाह न सजा पाये,
कानून की किताब से ये शब्द हट गये।

सत्य को बचाने में जो कदम आगे बढ़े,
वो झूठ और फ़रेब के दलदल में फ़ंस गये।

सत्यमेव जयते के अर्थ कहीं खो गये,
बेईमानी धोखाधड़ी आज सत्य के पर्याय बन गये।
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पूनम

सोमवार, 22 जून 2009

लघुकथा-- मजबूरी


रोज सबेरे इधर उधर काम करती हुई बरबस ही निगाह किचेन की खिड़की से बाहर चली जाती है ।रोज की तरह मैं देखती हूं उस औरत को जो अपने कंधे पर बोरे जैसा बड़ा सा थैला लटकाये अपने दो छोटे छोटे बच्चों के साथ अपने काम में जुटी होती है ।पूरी तन्मयता के साथ ।कूड़ा बीनते हुये ,सफ़ाई करते हुये जैसे उसे किसी के होने या न होने का कोई फ़र्क नहीं पड़ता ।
चाहे वो जून की चिलचिलाती धूप हो या फ़िर जनवरी की कड़ाके की सर्दी ।साथ में उसके बच्चे कभी कूड़ा बीनते---कभी खेलने में मगन हो जाते ।सूरज की धधकती आग या तपती हुई
धरती की तपन उनके नंगे पांवों या चीथड़ों में लिपटे शरीर पर कोई असर नहीं डालती ।शायद मां का आंचल ही उनको इन सबसे लड़ने का संबल देता है ।
देखते देखते उसकी दो साल की लड़की का हाथ मेरे दरवाजों की कुन्डी तक पहुंचने लगा है। और उसकी महीन सी आवाज ----‘आण्टी------कूला दे दो’ जब मेरे कानों में पहुंचती है तो मेरा हाथ उसे कूड़ा देने के बजाय ,घर में खाने की चीजों पर जल्दी –जल्दी दौड़ने लगता है।एक हाथ से मैं उसे कूड़ा देती हूं,दूसरे से उसे खाने का थैला पकड़ाती हूं । ऐसा करके मैं उसके ऊपर अहसान नहीं करती हूं । बल्कि थैले को देखकर उस बच्चे की आंखों में जो चमक उभरती है---वह मेरे मन को इतनी असीम शान्ति देती है जो मैं बयां नहीं कर सकती ।
जब मैं उसकी मां से पूछती हूं कि इस आग उगलती धूप को ये कोमल बच्चे कैसे सहन करते हैं ? उसका एक ही जवाब होता है –“दीदी ---इन बच्चों के पेट में जो आग जल रही है उसकी लपटों और जलन से सूरज की गर्मी और तपिश तो बहुत कम है”। और मेरी निगाहें एक हाथ में बच्चों का हाथ थामे-----कन्धे पर कूड़े का थैला लिये उस औरत का दूर तक पीछा करती रहती हैं ----जब तक कि वह निगाहों से ओझल नहीं हो जाती ।और कानों में गूंजते रहते हैं उसके शब्द-----पेट की आग की जलन से तो सूरज की गर्मी की तपिश बहुत कम है।
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पूनम

सोमवार, 15 जून 2009

दिल-ए-दास्ताँ


दिल के हाल का क्या कहिये
जब दिल ये अपना रहा नहीं।

नजरें तो चुरा गईं दिल मेरा
पर उनकी इनायत रही नहीं।

उनके सितम का क्या कहिये
जब करम अपनों पर रहा नहीं।
आंखों से अश्क बहाते रहे
पर दिल उनका पिघला ही नहीं।

यूं आंख मिचौली खेली बहुत
अब इतने बेगैरत हम भी नहीं।

आखिर हम भी तो इन्सां हैं
पत्थर ही सही न मोम सही।

आयेंगे दर पर बार-बार वो
हम भी उनसे कम तो नहीं।
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पूनम

मंगलवार, 9 जून 2009

क्या करुँ




शब्द नये आज मन में नहीं आ रहे
क्या लिखूं कैसे लिखूं समझ नहीं पा रहे।

शब्दों को गीतों की माला में पिरोऊं
पर शब्द रूपी सच्चे मोती ढूंढ़ नहीं पा रहे।

शब्द ही सच हैं शब्द ही झूठ भी
उलझन है मन में बहुत सुलझ नहीं पा रहे।

सच को बयान करूं तो शब्द लगे तीर से
शब्द रूपी तीर लोग झेल नहीं पा रहे।

झूठ जो बयां करूं तो शब्द देते साथ नहीं
कलम भी लिखने से हाथ को रोक रहे।

फ़िर सोचती हूं जो मन के भाव उन्हीं को उतार दूं
पर व्यक्त करूं कैसे उन्हें शब्द नहीं पा रहे।
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पूनम