लघुकथा लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
लघुकथा लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

गुरुवार, 2 जुलाई 2015

हम टीका नहीं लगाते

                  
फ़िलहाल कुछ महीने बीते हो गये इस घटना को।पर मेरे मानस पटल पर वो घटना आज भी अंकित है।जब जब वो वाकया याद आता है दिल में एक बेचैनी सी उठती है।
                            जैसा कि नव रात्रि के दिनों में घर घर में देवी का पूजन भजन कीर्तन की धूम मची रहती है।सारा दिन सारी रात देवी के जागरण से पूरा शहर गुंजायमान रहता है।एक अलग ही खुशी होती है।शाय्यद ये देवी मां के प्रताप के कारण ही होता है।
  नवरात्रि के अन्तिम दिनों में छोटी कन्याओं को देवी व लड़कों को लंगूर के रूप में मानकर उनको भोजन कराया जाता है।इन दिनों इन बच्चों का उत्साह भी देखते बनता है।हां तो इसी नवरात्रि के नवमी वाले दिन मैंने भी बच्चों को भोजन कराया और कुछ उपहार में भी दिया।
      अचानक मेरी निगाह अपनी कालोनी में काम करने वाले सफ़ाई कर्मचारी की लड़की पर पड़ी।वो दूर से ही बड़े ध्यान से ये सब देख रही थी।
        मैंने तुरन्त इशारे से उसे पास बुलाया तो वो खुशी खुशी आ गयी।जैसे ही मैंने उसे टीका लगाने के लिए अपना हाथ उसके माथे की ओर बढ़ाया वो छः साल की छोटी सी बच्ची बोली—“आण्टी,हम टीका नहीं लगाते।”
       मेरे हाथ जहां के तहां रुक गये।मैंने उससे पूछा—“क्यों बेटा,ये तो भगवान का टीका है?”
     तब उस बच्ची ने जो जवाब दिया उसे सुन मैं हतप्रभ रह गयी।वो बोली—“आण्टी हम मुसलमान हैं।हम लोग टीका नहीं लगाते।”
      मेरे हाथ से प्रसाद की प्लेट लेकर वो चली गयी और में किंकर्तव्यविमूढ़ होकर उसे जाता देखती रही।
           0000

पूनम श्रीवास्तव

सोमवार, 22 जून 2009

लघुकथा-- मजबूरी


रोज सबेरे इधर उधर काम करती हुई बरबस ही निगाह किचेन की खिड़की से बाहर चली जाती है ।रोज की तरह मैं देखती हूं उस औरत को जो अपने कंधे पर बोरे जैसा बड़ा सा थैला लटकाये अपने दो छोटे छोटे बच्चों के साथ अपने काम में जुटी होती है ।पूरी तन्मयता के साथ ।कूड़ा बीनते हुये ,सफ़ाई करते हुये जैसे उसे किसी के होने या न होने का कोई फ़र्क नहीं पड़ता ।
चाहे वो जून की चिलचिलाती धूप हो या फ़िर जनवरी की कड़ाके की सर्दी ।साथ में उसके बच्चे कभी कूड़ा बीनते---कभी खेलने में मगन हो जाते ।सूरज की धधकती आग या तपती हुई
धरती की तपन उनके नंगे पांवों या चीथड़ों में लिपटे शरीर पर कोई असर नहीं डालती ।शायद मां का आंचल ही उनको इन सबसे लड़ने का संबल देता है ।
देखते देखते उसकी दो साल की लड़की का हाथ मेरे दरवाजों की कुन्डी तक पहुंचने लगा है। और उसकी महीन सी आवाज ----‘आण्टी------कूला दे दो’ जब मेरे कानों में पहुंचती है तो मेरा हाथ उसे कूड़ा देने के बजाय ,घर में खाने की चीजों पर जल्दी –जल्दी दौड़ने लगता है।एक हाथ से मैं उसे कूड़ा देती हूं,दूसरे से उसे खाने का थैला पकड़ाती हूं । ऐसा करके मैं उसके ऊपर अहसान नहीं करती हूं । बल्कि थैले को देखकर उस बच्चे की आंखों में जो चमक उभरती है---वह मेरे मन को इतनी असीम शान्ति देती है जो मैं बयां नहीं कर सकती ।
जब मैं उसकी मां से पूछती हूं कि इस आग उगलती धूप को ये कोमल बच्चे कैसे सहन करते हैं ? उसका एक ही जवाब होता है –“दीदी ---इन बच्चों के पेट में जो आग जल रही है उसकी लपटों और जलन से सूरज की गर्मी और तपिश तो बहुत कम है”। और मेरी निगाहें एक हाथ में बच्चों का हाथ थामे-----कन्धे पर कूड़े का थैला लिये उस औरत का दूर तक पीछा करती रहती हैं ----जब तक कि वह निगाहों से ओझल नहीं हो जाती ।और कानों में गूंजते रहते हैं उसके शब्द-----पेट की आग की जलन से तो सूरज की गर्मी की तपिश बहुत कम है।
-------------------
पूनम