गुरुवार, 17 जून 2010

सन्देशा----


जा री प्यारी हवा तू जा

बादल से तू पूछ के आना

धरती पर कब बरसेगा वो

जल्दी से आ के बतलाना।

धीरे धीरे मत जाना तुम

सर्र सर्र करती उड़ जाना

इधर उधर मत राह भटकना

बात बता के जल्दी आना।

प्यार से कहना बादल भइया

प्यासी धरती तड़प रही

सूरज भी है आग उगलता

कब तक है उसको सहना।

खेत गांव सब सूख रहे

किसानों के चेहरे मुरझाये

पशु पक्षी भी प्यासे प्यासे

भूले वो भी चहचहाना।

विनती करना तुम बादल से

सूरज को समझा दे जरा

इतनी अकड़ भी ठीक नहीं

कि हद से ज्यादा गुजर जाना।

रिमझिम बारिश की फ़ुहारें

जब सूरज को भिगोयेंगी

भीज उठेगा उसका तन मन

प्यार से उसको समझाना।

प्यार ही एक ऐसी भाषा

जिसे पशु पक्षी भी समझते हैं

बादल के संग सूरज को भी तुम

प्यार की झिड़की दे आना।

फ़िर देखो कैसे नहीं छायेंगी

बादल की घनघोर घटाएं

सूरज भी अपना रुख बदलेगा

जब छेड़ेगी बारिश अपना तराना।

भूल ना जाना उनको तुम

धन्यवाद देती आना

इंतजार बेसब्री से तुम्हारा

समाचार शुभ ले आना।

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पूनम

रविवार, 13 जून 2010

कहानी तोते राजा की : मनोरंजन भी और सन्देश भी

नई किताब

शीर्षक : कहानी तोते राजा की(पांच बाल रंग नाटक)
नाटककार:
हेमन्त कुमार
प्रकाशक : काव्य प्रकाशन रेवती कुंज ,हापुड़ –245101
फ़ोन(मो—09368461660
पृष्ठ संख्या: 146 मूल्य:दो सौ रूपये।
स्कूलों में गर्मी की छुट्टियां शुरू होते ही अभिभावकों को यह चिन्ता सताने लगती है कि आखिर बच्चे इन छुट्टियों में क्या करें। मनोरंजन के तमाम साधन खोजे जाने लगते हैं,पर आज के इस प्रतिस्पर्धात्मक समय में केवल मनोरंजन ही काफ़ी नहीं है। आउटडोर खेलों की सुविधा भी हर जगह नहीं मिल पाती है। पढ़ाई से ऊबे हुये बच्चों को दरअसल एक ऐसा माध्यम चाहिये जो मनोरंजक भी हो और शिक्षाप्रद भी।
नाटक एवं रंगमंच एक ऐसा ही माध्यम है,जिसके द्वारा जटिल से जटिल बात भी बच्चों को आसानी से समझाई जा सकती है।दृश्य एवं श्रव्य---दोनों ही माध्यमों से जुड़ा होने के कारण बच्चों के व्यक्तित्व के विकास में नाटकों की भूमिका अत्यन्त ही महत्वपूर्ण होती है। नाटकों का जो असर बच्चों पर पड़ता है, वह स्थाई होता है। इस सन्दर्भ में हम महात्मा गांधी का उदाहरण ले सकते हैं। बचपन में ‘सत्य हरिश्चन्द्र’ नाटक को देखने के बाद उनके मन पर सच बोलने का ऐसा प्रभाव पड़ा कि उन्होंने आजीवन सत्यव्रत का पालन किया।
बच्चों के रंगमंच के साथ जुड़ी कुछ दिक्कतों में से एक दिक्कत यह भी है कि अच्छे नाट्य आलेख होते हुये भी,प्रचार-प्रसार के अभाव में उनकी जानकारी बच्चों तक नहीं पहुंच पाती है। बच्चों के अभिभावक तथा शिक्षक भी इस ओर प्रायः कम ही जागरूक रहते हैं।
इन गर्मी की छुट्टियों में नाटक में रुचि रखने वाले बच्चे और संस्थायें हाल ही में प्रकाशित हेमन्त कुमार के बाल रग नाटकों के संग्रह ‘कहानी तोते राजा की’ के नाटकों का उपयोग अपनी रंगमंचीय रुचियों को साकार करने के लिये कर सकते हैं। ये नाटक मुख्यतः मंचीय आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर ही लिखे गये।
इस संग्रह में कुल पांच बाल नाटक हैं। लम्बे बाल नाटक ‘कहानी तोते राजा की’ के माध्यम से उन तामाम समस्याओं पर करारा व्यंग्य किया गया है,जो आज हमारे बच्चों की शिक्षा व्यवस्था के सामने सवालिया निशान बनकर खड़ी हैं। इस नाटक के माध्यम से आजादी के बाद शैक्षिक सुधारों के नाम पर चलाये गये तमाम अभियानों की न केवल निरर्थकता नजर आती है,बल्कि इन अभियानों के नाम पर मिलने वाला धन अंततः किन जेबों में जाता है,उनकी ओर भी इशारा किया गया है। इस बंदर बांट के बीच ठगे से रह जाते हैं केवल बच्चे। नाटक के अंत में जब बच्चे आकर कहते हैं कि यह तो एक झलक भर है,असली कहानी तो तब पूरी होगी जब हमें हमारे अधिकार मिलेंगे,हमारे बस्ते हल्के होंगे,हमारे स्कूल बदलेंगे और जब हम एक साथ पढ़ेंगे लिखेंगे। तो लगता है कि आज के बच्चे अपने अधिकारों के प्रति जागरूक और सजग हैं। यही इस नाटक की सार्थकता है। आज जब कि ‘शिक्षा का अधिकार’ अधिनियम देश में लागू हो चुका है,ऐसे में शैक्षिक वातावरण बदले बिना यह कितना कारगर होगा,इसका अनुमान इस नाटक से लगाया जा सकता है।
इस संग्रह का दूसरा नाटक ‘पोलमपुर का उल्टा पुल्टा’ भी पहले जैसा व्यंग्य आधारित बाल नाटक है। जिसमें महारानी पोम्पाबाई के उल्टे पुल्टे फ़रमानों के कारण पैदा हुयी अव्यवस्था को बहुत ही प्रभावी तरीके से प्रस्तुत किया गया है।
अगले तीन नाटक अपेक्षाकृत छोते नाटक हैं। ‘जैसी करनी वैसी भरनी’ जंगल की न्याय व्यवस्था पर केन्द्रित है,जिसमें जंगल की व्यवस्था को न मानने वाले धूर्त भेड़िये को कोड़ों की सजा दी जाती है। नाटक ‘मछुआ और काना बैल’ त्ब्बत की एक लोक कथा पर आधारित है। इसमें पर्यावरण तथा जल और जीवों के संरक्षण को रेखांकित किया गया है। अंतिम नाटक ‘गुरू घंटाल चेला चंडाल’ गावों में अशिक्षा, अज्ञानता तथा अंधविश्वास के चलते होने वाली दिक्कतों की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करता है। इसमें इन बातों को दिखाया गया है कि अशिक्षा और अज्ञानता ही हमारी प्रगति और विकास की राह की सबसे बड़ी बाधायें हैं।
इन नाटकों की सबसे खास बात यह है कि इन्हें बहुत ही आसानी से मंचित किया जा सकता है। इनके लिये कोई भव्य सेट तथा विशेष मंच सामग्री की जरूरत नहीं है। संवाद प्रायः छोटे छोटे हैं और कई जगह काव्यात्मक भी हैं। जिन्हें आसानी से याद किया जा सकता है। नट - नटी या फ़िर सूत्रधार के माध्यम से नाटक की कथावस्तु कविताओं के द्वारा प्रस्तुत की गयी है,जो नाटक मे रोचकता पैदा करती है। और कहीं कहीं गम्भीर संदेश भी देती है-----
आप सभी विद्वान जनों से
मेरे भी हैं चंद सवाल।
आजादी को बीत चुके हैं
अब तो पूरे तिरसठ साल ॥
इर क्यों लुट जाती है नारी
बीच सड़क पर देश में आज।
थोड़े से पैसों के पीछे
जल जाती क्यों नारी आज॥
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बेटा हो तो बजें नगाड़े
बेटी क्यों मनहूस है आज।
अखबारों की हर सुर्खी में
सिसक रही क्यों लड़की आज॥
अच्छी साज-सज्जा वाली इस पुस्तक के सभी बाल नाटक मंचन योग्य तो हैं ही,साथ ही पठनीय भी कम नहीं हैं।
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कौशल पाण्डेय
हिन्दी अधिकारी
आकाशवाणी ,पुणे ।
मोबाइल न0-:09823198116

पूनम द्वारा प्रकाशित

गुरुवार, 10 जून 2010

कुछ तो ऐसा हो जाता----

( मैं सबसे पहले सभी पाठकों एव प्रशंसकों से क्षमा चाहती हूं।क्योंकि इधर मैं अपनी मां जी की अस्वस्थता के कारण इलाहाबाद में रही।इसीलिये न ही मैं पाठकों को जवाब ही दे पा रही थी न ही कोई नयी पोस्ट। साईं बाबा की अनुकम्पा से मां जी अब धीरे धीरे स्वस्थ हो रही हैं। अब मेरा मन भी कुछ लिखने पढ़ने में लगेगा।)
कुछ तो ऐसा हो जाता----


कुछ तो हो जाता ऐसा
जो मन की आंखों को भाता
जिसे देख के रोम रोम
मेरा पुलकित हो जाता।

माझी के गीतों के जैसा
मल्हारी रागों के जैसा
बारिश की फ़ुहारों जैसा
मन को सिंचित कर जाता।

निश्छल बचपन के जैसा
चंचल चितवन के जैसा
बेला के फ़ूलों जैसा
मन बगिया महका जाता।

झिलमिल तारों के जैसा
सागर की सीपों जैसा
आशाओं के दीपक जैसा
जीने की चाह बढ़ा जाता।
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पूनम