गुरुवार, 31 दिसंबर 2009

सुस्वागतम वर्ष 2010

“नववर्ष के नव प्रभात में याद सभी की आई
शब्द शब्द बन हृदय हमारा देता सभी को बधाई।”

आप सभी पाठकों को नववर्ष की हार्दिक शुभकामनायें। नये साल का पहला दिन तो मेरे
परिवार के लिये दोहरी खुशी लेकर आता है।क्योंकि 1 जनवरी को मेरी छोटी बेटी नित्या
शेफ़ाली का जन्मदिन भी है। आप सभी के स्नेह एव आशीर्वचनों से उसका भविष्य उज्ज्वल बने इसी आकांक्षा के साथ आप सभी पाठकों को नववर्ष की पुनः बधाई।


पहले कुछ पंक्तियां प्यारी बेटी नित्या को-------

नव वर्ष के शुभ प्रभात में
नव जीवन अपनाना तुम
जिस बगिया की फ़ूल हो
उस बगिया को महकाना तुम।

झुक झुक कर चूमती रहें
खुशियां तेरे कदम
गलती से भी न आयें कभी
तेरी जिन्दगी में गम।
000
अब आप सभी के लिये नव वर्ष के शुभ अवसर पर -------


नया वर्ष है आया
नया पैगाम है लाया
आयेंगी बहारें जीवन में स
संग सन्देशा ले आया।

दिसि दिसि छाये खुशहाली
बासन्ती रंग दिखे चहुं ओर
खेतों में खिले फ़िर पीली सरसों
ज्यूं दूल्हन मुस्काये चुनरिया ओढ़।

वन वन बोले चातक मोर
बोले पपिहा पिहू पिहू
जंगल में भी मंगल हो
कोयल गाये फ़िर कुहू कुहू।

बहे नदिया फ़िर कल कल करती
इठलाये अपनी चाल पर
रात और दिन फ़िर मेले लगें
नदी किनारे घाट पर।

बीती रात अमावस की
हर रात अब पूरनमासी हो
हर पल खुशी के दीप जलें
हर दिन फ़ागुन महीना हो।

जो था वक्त बुरा वो बीत गया
फ़िर ना आये वैसा दौर
नव वर्ष में नव संकल्प लें
फ़िर कदम बढ़ायें नव पथ की ओर।
000
पूनम

सोमवार, 28 दिसंबर 2009

आंसुओं के नाम


इन आंसुओं को नाम क्या दूं दोस्तों
जिन्होंने धोखा हर बार दिया है
वक्त को पल में बदल देते हैं जो
इन्होंने अपना रूप हजार किया है।

अछूता नहीं कोई इनसे जहां में
सभी का इनसे पड़ता है वास्ता
कहीं खुशी के इजहार में छलके आंसू
तो कभी गम में भी बरसात किया है।

तराजू के पलड़ों पर
इनका भार इतना ज्यादा
कि सच और झूठ में अन्तर क्या
सभी को इसने भरमा दिया है।

कहीं झूठ को चीर कर आंसुओं ने
सचाई को सामने ला दिया है
कहीं पर नकाब ओढ़कर झूठ का
सचाई को ही धोखे में डाल दिया है ।

कभी तो आंसुओं में इतनी ताकत
कि पत्थर को मोम बना दिया है
और कभी आंसू ही बन के पत्थर
घावों से दिलों को भर दिया है

लाख तूफ़ां को सहते हुये भी जिसने
खुशी का ही सागर छलकाया है
कभी बन के प्रेम का दरिया ये
कहीं नफ़रत का बीज भी बोया है।

है आंसू खुद में इतनी बड़ी हस्ती
जो मिटा सके पल में सारी ही बस्ती
अपने इसी बल पर तो ही इसने
कितने दिलों पर राज किया है।

वक्त बेवक्त बह कर इन आंसुओं ने
नाम खुदा के भी फ़रेब किया हैं
इसीलिये लोगों ने शायद इन्हें
घड़ियाली आंसू का नाम दिया है।
00000
पूनम

शनिवार, 19 दिसंबर 2009

नारी


मैं किसी बंधन में बंधना नहीं जानती
नदी के बहाव सी रुकना नहीं जानती
तेज हवा सी गुजर जाये जो सर्र से
मैं हूं वो मन जो ठहरना नहीं जानती।

वो स्वाभिमान जो झुकना नहीं जानती
करती हूं मान पर अभिमान नहीं जानती
जो हाथ में आ के निकल जाये पल में
मैं हूं ऐसा मुकाम जो खोना नहीं जानती।

हाथ बढ़ा कर समेटना है जानती
कंधे से कंधा मिलाना है जानती
गिरते हुये को संभालना है जानती
मैं हूँ वह मुस्कान जो सिसकना नहीं जानती।

मन में बसाकर पूजना है जानती
आंखों में प्यार व अधिकार है मांगती
मैं हूं आज के युग की नारी
जो धरा से अंबर तक उड़ान है मारती।
-----
पूनम

रविवार, 13 दिसंबर 2009

अहसास


अहसास ही जिन्दगी है
और जिन्दगी को हर तरह से
जीना ही जीवन है।

जीवन से जुड़ती हैं यादें
बहुत सी बातें
उनमें भी होती है
एक बात खास
जो जुड़ी होती है
जिन्दगी के साथ
जिसके बिना कोई पल भी
आपके लिये है कोरी किताब
वो है जीवन का ही दूसरा रूप
जिसे हम कहते हैं अहसास।

जब तक श्वांस है
वो हर वक्त दिलाती है अहसास
सुख हो
दुख हो
जीवन हो
मरण हो
हंसना रोना हो
रिश्ते नाते निभाना हो
इन सब बातों का हमें
अनुभव कराती है
ये जिन्दगी
यानि अहसास।

क्योंकि
अहसास ही तो जीवन है
अहसास यदि नहीं है तो
फ़िर आपकी
जिन्दगी है बेकार
किसी बात का
अगर हमें नहीं अहसास
तो फ़िर हम
बन जाते हैं जिन्दा लाश।

जो होते हैं
निष्क्रिय बेजान
जिनके जीने का
कोई मकसद नहीं
जिनका होना न होना
कोई मायने नहीं रखता
और इस तरह से
एक दिन वो भी आता है
ये जिन्दगी भी हो जाती है खत्म
पर खत्म नहीं होता अहसास
क्योंकि
वो लोगों के बीच में
छोड़ जाता है अहसास
अपने होने या
न होने का।
००००

पूनम

शनिवार, 5 दिसंबर 2009

बच्चे मन के सच्चे------


कुछ कुछ तलाशती, कुछ खोजती नजरें। आपके चेहरे के भावों को बनते बिगड़ते देखती नजरें। कभी कभी अपने अगल बगल झांकती नजरें। कभी अपनों से ही नजर चुराती नजरें। आर्द्रता के साथ याचना और थोड़ी कड़वाहट से भरी नजरें।थोड़ी सी सहमी भी फ़िर भी आपसे सवाल करने की हिम्मत जुटाती नजरें।फ़िर धीरे धीरे पैरों के नाखूनों से धरती को खुरचती हुई जमीन पर झुकी नजरें।
महीन सी आवज में पूछती हैं वो नजरें कि क्या हम इतने अवांछनीय हैं?कि प्यार के दो शब्द भी हमारे लिये आपके शब्दकोश में नहीं हैं? आज भी हम उतने ही तिरस्कृत और हेय नजरों से देखे जाते हैं जैसे शायद हमारे बुजुर्गों को भी देखा जाता रहा होगा। तो फ़िर आज के समय का ये बदला हुआ वाक्य सिर्फ़ उन्हीं लोगों के लिये है जो कदम जमाने के संग मिला सके। या फ़िर उच्च वर्गों के लिये जिसमें से ज्यादा तो मात्र दिखावा ही करते हैं। वो नन्हीं नन्हीं नजरें
जो पानी से भरी भरी हैं,जिनके आंसू पोंछने वाले शायद बहुत ही कम दिखते हैं। और बहुत से तो ऐसे भी लोग होते हैं जो उनके बच्चे की कोई चीज देखने पर ये कहने से नहीं चूकते कि क्यों नजर लगाते हो,मेरे बच्चों की चीजों पर।
शायद वो पढ़े लिखे इन्सान भी इस बात को नहीं जानते कि ये मासूम बच्चे क्या जानें कि नजर लगाना क्या बला है।ये किस चिड़िया का नाम है। उनको तो शायद उनके मां बाप का नाम व अता पता भी नहीं मालूम होता।कुछ को अपना नाम बुलाये जाने पर लगता है कि यही उसका असली नाम है। ऐ लड़की,ओ कल्लो,ओए सुनता नहीं क्या,ओ बहरा है क्या,ढंग से काम करना नहीं आता,देखने में बैल जैसा है। फ़िर धीरे धीरे ये मासूम इसके अभ्यस्त हो जाते हैं।
ये मासूमियत भरी नजरें नजर लगाना तो नहीं जानती। लेकिन शायद नई नई चीजों को देखकर उनकी उत्सुकता जो उनकी नजरों में भर जाती है या जिस चीज को देखकर उनके मन में उसे छू कर देखने की इच्छा जागृत हो जाती हो।उसे हम और आप मिलकर उनकी नजरों को लालचीपने का नाम देने से नहीं कतराते।
जरा इन कूड़ा बीनने वालों ,बर्तन माजने वाली लड़कियों या सड़क पर बैठ कर बूट पालिश करते, कार की सफ़ाई करते लड़कों से पल भर के लिये अपना दिमाग हटा कर देखिये। और जरा अपने बच्चों पर भी एक नजर डालिये । क्या किसी नई चीज को देखकर उनमें उत्सुकता नहीं जागृत होती?क्या वे उसे पाने या खाने के लिये
जिद नहीं करते? कम से कम वे बोल कर आपसे अनुरोध करके या फ़िर आप से जिद करके अपनी बात मनवा नहीं लेते?और फ़िर हम भी उनके आगे झुकने के लिये मजबूर हो जाते हैं,लेकिन जायज मांग पर।

फ़िर उन मासूम बच्चों का क्या दोष जो किसी बात पर अपना हक नहीं जमा सकते। किसी से अपनी मांग पूरी नहीं करवा सकते क्योंकि शायद वो उनके माता पिता के लिये एक स्वप्न के समान होता है। जिसके लिये दो जून की रोटी ही बहुत मायने रखती है। और हम अपने फ़टे पुराने या कभी कभार कुछ नया देकर ऐसा अहसान
जताते हैं जैसे उन्हें खरीद लिया हो।
फ़िर हम ऐसे बच्चों को बजाय झिड़कने के प्यार के दो बोल बोलने में भी इतनी कंजूसी क्यों करते हैं।जिसके लिये आपके प्यार भरे दो बोल ही उसको कम से कम पल भर की खुशी दे जाती है।
एक बात और है। हम अगर अपने घर काम करने वाली के बच्चे का शौक पूरा करने के लिये ही पढ़ाना लिखाना शुरू करते हैं।तो उनके सीखने,पढ़ने ,लिखने की गति तेज होती है।इसके पीछे भी मुख्य कारण उनकी लगन और जागरूकता होती है।भले ही उनके मां बाप को ये बेकार का काम लगता हो।पर इसमें उनका कोई दोष नहीं है।
क्योंकि घूम फ़िर कर बात उनकी रोटी पर ही आकर टिक जाती है।
मुझे तो इस बात की बेहद खुशी होती है कि मैनें अपनी शिक्षा का दुरुपयोग नहीं किया।जितनी भी काम वालियां चाहे मेरे घर पर काम करती हों या नहीं ,मैनें उन्हें पढ़ना लिखना सिखाकर इस काबिल बना दिया कि कम से कम वह अपने पैसे रूपयों का हिसाब किताब रख सके। या वक्त पड़ने पर चार लाइन ही लिख सके तो मैं समझूंगी कि मेरा जीवन थोड़ा बहुत सार्थक हो गया। और जब ये बच्चे आकर आपको ये बताते हैं कि आंटी जी आपने पढ़ने का जितना काम दिया वो हमने घर के काम निपटाने के बाद कर लिया। तो यह सुनकर मेरे मन में इतनी अधिक खुशी होती है कि मुंह से बरबस ही निकल पड़ता है---वाह इसे कहते हैं लगन । जो संभवतः अपने बच्चे में कम ही देखने को मिलती है।
फ़िर हमारा समाज ये कहने से नहीं चूकता कि व्यर्थ में अपना समय बर्बाद कर रही हैं।इनको पढ़ाने लिखाने से कोई फ़ायदा नहीं।इनकी तो नियति ही यही है।बस कलम यहीं बंद करती हूं।सोचती हूं क्या कर्म से भाग्य को नहीं बदला जा सकता? कोशिश तो की जा सकती है। इनको भी एक खुशहाल जीवन देने ,अच्छा इन्सान बनाने के लिये।ताकि वो भी विरासत में पाई जिन्दगी के साथ साथ कुछ अच्छा भी कर सकें।
****
पूनम

गुरुवार, 26 नवंबर 2009

वो भयानक दिन


आज वो खूनी मंजर फ़िर याद आ गया
सब की आंखों को फ़िर से वो बरसा गया।

मांएं इंतजार में बैठी बस नजरें बाट जोह रही
विधवायें सूनी मांग लिये हर कोने में सिसक रहीं।

बेबस अनाथ बच्चे जैसे अपनों को भीड़ में ढूंढ़ रहे
खो चुके जो अपनी पहचान खुद अपना परिचय पूछ रहे।

कहीं पथराई सी आंखें हैं जिनका सब कुछ लुटा हुआ
आज का खूनी दिन देखो फ़िर से उनको रुला रहा।

हम सब बेबस बन कर के कैसे हाथों को बांधे खड़े रहे
मूक दर्शक व श्रोता बन कर केवल मन में चीत्कार लिये।

भीगी पलकों से ही हमने श्रद्धांजलि अर्पित कर दी उनको
रस्म अदाई की अपनी फ़िर अगले पल ही भुला दिया।

ऐसी दिल दहलाने वाली घटना जिससे था जर्रा जर्रा कांपा
डर डर के लमहे बीते थे आगे अब जाने क्या होगा ।

खून सभी का एक ही है फ़िर क्यों करते हैं हम बटवारा
मिल करके दुआ करो रब से हादसा न हो फ़िर दोबारा।
00000000
पूनम




गुरुवार, 19 नवंबर 2009

टिक टिक घड़ी


जीवन की अविरल चलती घड़ी
कभी मुड़े ना पीछे बस आगे ही बढ़ी
कभी दुख की घड़ी तो कभी खुशियों की लड़ी
हर पल को सिलते बुनते हुये
सतरंगी सपने संजोते हुये
घावों पे मलहम लगाते हुये
सबसे हाथ मिलाते हुये
हर तरह से साथ निभाते बढ़ी
जीवन की अविरल चलती घड़ी।

कानों में ज्यों टिक टिक इसकी पड़ी
धड़कने भी सुइयों सी दौड़ पड़ी
जीवन में भागम भाग बढ़ी
ज्यों ज्यों इतनी आबादी बढ़ी
कर्तव्य बोध की मांग बढ़ी
आनन फ़ानन में फ़िर तो
पैसों की भी आन पड़ी
मन का सुख तो छिन ही गया
जब भौतिक सुखों की मांग बढ़ी
जीवन की चलती अविरल घड़ी।

जन्म से जो पहली स्वांस मिली
वो कदम दर कदम पर आगे बढ़ी
बचपन की हाथ से जब छूटी लड़ी
युवा कन्धों पर फ़िर आगे बढ़ी
कर्तव्य बोध और लक्ष्य प्राप्ति
के मध्य बनी संघर्ष की घड़ी
जीवन की चलती अविरल घड़ी।

फ़िर हार जीत की आई घड़ी
कशमकश दोनों के बीच चली
हार भी हुयी फ़िर जीत भी हुयी
दोनों को गले लगाते हुये
फ़िर मुस्काती हुयी जिन्दगी बढ़ी
जीवन की चलती अविरल घड़ी।

जन्म से लेके मृत्यु तलक
बचपन से लेके बुढ़ापे तक
हर पल हर क्षण हर वक्त ये घड़ी
दिन महीनों सालों तक
जब तक दे सकती थी साथ हमें
पकड़ी रही वो स्वांस की डोरी
अविराम निरन्तर टिक टिक करती
बस बढ़ती रही और बढ़ती रही
और फ़िर अविरल ही बढ़ती रही ।
00000
पूनम


गुरुवार, 12 नवंबर 2009

गजल-- आख़िरी सलाम


खूने जिगर से लिख रहा हूं आखिरी सलाम
इल्तजा बस जरा सी कबूल इसको कर लेना।

इन्तजार करते करते हो गई इंतहा इंतजार की
दिले खयाल तब आया नहीं नसीब में तेरा दीदार होना।

जीते जी ना सही जब हो जाऊं सुपुर्दे खाक मैं
मजार पर आके मेरी अश्क दो बहा लेना।

तेरे दो अश्क ही मेरी मुहब्बत का ईनाम होंगे
मैं न सही मेरी कब्र के ही संग दो पल बिता लेना।

तेरी नफ़रत ही बनती गयी मेरी मुहब्बत का सबब
हो सके तो जरूर इसे अपनी कड़वी यादों बसा लेना।

खत्म हुये शिकवे गिले अब अलविदा तुझे कहता हूं
जब उठेगा जनाजा मेरा बस इक नजर डाल लेना।

चलो मैं हो गया रुखसत अब तेरे इस जहां से
जाकर कहूंगा ऐ खुदा मेरी मुहब्बत को आबाद रखना।
0000
पूनम

शुक्रवार, 30 अक्तूबर 2009

जीना इसी का नाम है


कुछ बूंदें ओस की
टपकीं टप से
बिखर गयीं
फ़ूलों की कोमल पंखुड़ियों पर
बिना विचारे कि
वहां उनका स्वागत करेंगे
नुकीले बेदर्द कांटे
जिनका काम ही है
दर्द बांटना।

पर क्या मतलब इससे
दीवानी बूंदों को
उन्होंने तो खुद को कुर्बान कर
चार चांद लगाया
फ़ूलों के सौन्दर्य में
जड़ दिये हीरे और ढेरों नग
फ़ूलों की पंखुड़ियों पर।

फ़ूलों ने भी किया
स्वागत
उन बूंदों का उन्हें गले लगाकर
तहे दिल से किया शुक्रिया अदा
क्योंकि
वो भी इस बात को जानते हैं कि
बूंदें तो क्षणभंगुर हैं
उनका रिश्ता है इस धरती से
सिर्फ़ सूरज की किरणों के आने तक।

पर बूंदों की कुर्बानी के आगे
फ़ूल भी हो गये नत मस्तक
क्योंकि
बूंदों ने अपने नन्हें से जीवन
को व्यर्थ नहीं गंवाया
फ़ूलों को क्षणिक खुशी ही देकर
पूरी दुनिया को अहसास कराया
कि सबका ही जीवन तो क्षणभंगुर है
किसी को छोटी सी खुशी देकर
कुर्बान होना ही
जीने का दूसरा नाम है।
0000
पूनम

बुधवार, 21 अक्तूबर 2009

लेख --- जिम्मेदार कौन--?

बचपन में देखा करती थी और देख देख के खुश भी होती थी कैसे चिड़ा चिड़िया का जोड़ा अपने घरौंदे को बनाने में मशगूल रहता था।दोनों ही खुशी खुशी ,बारी-बारी से एक एक तिनका तोड़ कर लाते और अपने घरौंदे को सजाते। अपने बच्चों को सुरक्षित रखने की पूरी कोशिश करते कि कहीं कोई शिकारी आ कर उनके घरौंदे व बच्चों को नुक्सान न पहुँचा दे।दोनों जोड़े जी तोड़ कोशिश करते,मीलों दूर तक जाते सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने बच्चों का पेट भरने की चिन्ता में,और फ़िर चोंच मे दाना दबाये व्याकुल से भागे आते अपने बच्चों को प्यार से निवाला खिलाने के लिये। और फ़िर अपनी छोटी सी दुनिया में बच्चों को छोटी छोटी बातें ज़िन्दगी की समझाते ताकि उनका भी जीवन सुखमय हो और वे भी आपस में प्रेम से रहें ।
आज अकस्मात ही बचपन की वो बात अर्थात उन चिड़ा चिड़ी की याद आ गयी।जब आज के समाज में हर माँ बाप को दिन रात अपने बच्चों की चिन्ता सताती रहती है शायद उनके जन्म के साथ ही।
सम्भवतः सभी माँ बाप अपने बच्चे के सुन्दर भविष्य की कल्पना लिये हुए अपनी यथाशक्ति से ज्यादा उन्हें वो सब कुछ देने की कोशिश करते हैं जो उनके बच्चों को चाहिये,शायद उन्हीं चिड़ा चिड़ी की तरह ।
बचपन से ही उनको अच्छे संस्कारों मे ढालकर एक आदर्श इन्सान बनाने की कोशिश में उन्हें छोटी छोटी बातों से समझाने की शुरुआत करते हैं। जहाँ तक मेरा मानना है कि अगर कोई गलत करता है तो हम अपने बच्चों को यही शिक्षा देते हैं कि तुम गलत मत करो।गलती करने वाले को खुद ही भूल का एह्सास एक दिन हो जायेगा।
जब बच्चा स्कूल जाने लगता है तो सारे मैनर्स घोल कर उसे पिलाने की कोशिश करते हैं, जो हमें हमारे माता पिता से मिले थे-ईमानदार बनो, झूठ मत बोलो(कहते है न…honesty is the best policy…)।पर धीरे धीरे वक्त बदलता जाता है।बच्चे भी घर के दिये संस्कार तथा बाहर समय व माहौल को देखकर उलझे से रहते हैं क्योंकि तब उन्हें अच्छे बुरे का ज्ञान तो थोड़ा थोड़ा होने लगता है।
फ़िर वो अपने संस्कारों के विपरीत कहीं कुछ अपने या किसी के साथ भी गलत होता देखते हैं तो फिर तनाव में आने लगते हैं।क्योंकि उनका मन उन्हें गलत का साथ देने की इजाजत नहीं देता। पर जब बाहर का माहौल मिलता है और चार अलग अलग लोगों की संगत मे बच्चा पड़ ज़ाता है तो थोड़ी देर के लिये ही सही उस पर बाहर का माहौल हाबी होने लगता है।इसका मतलब ये नहीं कि वो आपके दिए गये संस्कारों को भूल गया हो।लेकिन यही वो उम्र है कि जब बच्चे को लगता है कि क्यों हमको
इतना आदर्शवादी बनाया गया? क्यों हम दूसरों की गलत बातों को चुपचाप सहन
करें फिर या तो वो खुद में कसमसाते रहते हैं।या फिर बारी आती है आपसे
सवाल जवाब की------कि आपने हमें इतना सिद्धान्तवादी क्यों बनाया?आज का समय तो वो है कि कोई एक थप्पड़ मारे तो उसे दस थप्पड़ लगायें। कोई कुछ भी कह कर निकल जाये तो आप हमें यह समझाते रहें कि उसे अपनी गलती का अहसास जरूर होगा।कोई आकर गलत इल्जाम लगाये आप विनम्रता की मूर्ति बन कर खडी रहें
और कहें कि जाने दो बात को ना बढ़ाओ बावजूद इसके कि आप सच हों------
तभी एक झटका सा लगता है और याद आती है चिड़िया के उस जोड़े की जिन्हें हरदम अपने बच्चों की चिन्ता सताये रहती थी। कि कैसे जल्दी से उनके बच्चे बड़े हो जायें ताकि शिकारी के रुप मे आये किसी से भी अपनी रक्षा खुद ही कर सकें और किसी के बहकावे मे न आयें।
आज वही हश्र हमारे बच्चों का हो रहा है (जो कल का भविष्य बनेंगे) क्योंकि वो जब बेहद तनावग्रस्त हो जाते हैं। तब बाज रूपी शिकारी उनके दिलो-दिमाग पर हावी हो जाता है और बच्चे थोड़ी देर के लिये ही सही अपना आपा खो देते हैं। और गलत सही का फ़ैसला नही कर पाते।फ़िर माँ-बाप को ही लगने लगता है कि शायद उनकी परवरिश में ही कोई कमी रह गयी हो और वो सोचने पर मजबूर हो जाते हैं –वास्तव में कौन जिम्मेदार है इन सब का?
हम ,हमारे संस्कार,हमारे बच्चे या हमारा आज का समाज --------ज़रा आप भी इसपर सोचिये।
000000
पूनम



शनिवार, 17 अक्तूबर 2009

दीपावली


दीपावली के शुभ अवसर पर सभी पाठकों को मेरी हार्दिक मंगलकामनायें।

दीपावली


दीपों की अवली से सजी
दीवाली आई प्यारी
जगमग जगमग रोशन करती
घर आंगन और क्यारी।

दीपावली की तैयारी में
जुटे बड़े बूढ़े और बच्चे
खुशी से सबका मन भर दे
शुभ दीपावली न्यारी।

कहीं पे फ़ूटे बम बताशे
कहीं अनार कहीं फ़ुलझड़ी
उछल कूद कर नाचें बच्चे
जब नाचती घूम के चकरी।

चाहे छोटे हों या बड़े
या फ़िर गरीब अमीर
खुशियों से ये पर्व भरेगा
सबके मन की झोली।

चाहे झोपड़ी झुग्गी वाले
या फ़िर हों कोई किस्मत के मारे
खुशियों के दीप जले हर घर में
हे ईश यही है प्रार्थना मेरी।

सबको रोशनी देता दीपक
खुद उसके तले अंधेरा
एक दिये की बाती करती
दूर अमावस की रात घनेरी।

सच्चे मन से मांगू दुआ
खुशी खुशी त्यौहार मने
दीपों की माला से जुड़कर
हम देश के हर दुश्मन से लड़ें।
00000
पूनम

शनिवार, 10 अक्तूबर 2009

सिर्फ़ तुम्हारे लिए

दुनिया में जीवन मिलता नहीं बार बार
पर चाहती हूं जिन्दगी सिर्फ़ तुम्हारे लिये।

लफ़्ज़ लबों तक आकर थिरकते रहे
पर सी लिया है उनको सिर्फ़ तुम्हारे लिये।

लोग शब्दों से छलनी करते जिगर को
सीती हूं जख्मों को सिर्फ़ तुम्हारे लिये।

हमदर्दी के मायने गलत लेते हैं लोग
इस दर्द को सहती हूं सिर्फ़ तुम्हारे लिये।

जहां में होता नहीं हर कोई एक जैसा
समझाती हूं मन को सिर्फ़ तुम्हारे लिये।

फ़ूलों के संग होते कांटे भी बहुत ही
बीनती हूं उनको सिर्फ़ तुम्हारे लिये।

वक्त हर घाव को भरता नहीं
फ़िर भी मलहम लगाती हूं सिर्फ़ तुम्हारे लिये।

राहों में आती हैं मुश्किलें बहुत सी
उनसे लड़ती हूं मैं बस तुम्हारे लिये।

अश्क आंखों से न गिरने पाये जमीं पे
समेटती हूं आंचल में पहले से ही सिर्फ़ तुम्हारे लिये।

लहर गमों की जो आये तुम्हारी तरफ़
बन सागर समा लूंगी उन्हें सिर्फ़ तुम्हारे लिये।

पीना पड़ेगा अगर ज़हर भी कभी
पी लूंगी अमृत समझ सिर्फ़ तुम्हारे लिये।

रहेगी जब तलक जिन्दगानी मेरी
जीऊंगी मैं सिर्फ़ और सिर्फ़ तुम्हारे लिये।
0000पूनम

शनिवार, 3 अक्तूबर 2009

प्यारी बेटी नेहा के जन्मदिन दो अक्टूबर पर आशीष

2 अक्टूबर को मेरी प्यारी बेटी नेहा शेफ़ाली का जन्म दिवस था।उस दिन मैनें यह कविता लिखी थी । परन्तु नेट की गड़बड़ी के कारण इसे पोस्ट नहीं कर पायी।इसे आज पोस्ट कर रही हूं।

होठों पे हंसी तेरी नजर में खुशी
का समन्दर हरदम लहराता रहे।

दिल में उमंग चेहरे की दमक
देख देख चांद भी शरमाता रहे।

श्रावणी बयार सी तू झूमे सदा
पुरवईया भी देख के लजाती रहे।

यूं गुनगुनाना तेरा खनखनाती हंसी
सुर संगम भी सुन के मचलता रहे।

चांद सूरज सी तू हो सितारों जैसी
जिससे आंगन तेरा झिलमिलाता रहे।

जो है तेरी खुशी वही मेरी खुशी
तेरा जीवन मधुबन सा खिलता रहे।

हो निश्छल सा प्यार मिले ढेरों दुलार
आशीष तुझे देवों का मिलता रहे।

है तेरे लिये मेरी ये ही दुआ
मेरी बेटी जहां भी रहे तू सलामत रहे।

नजर न लगे किसी की तुझे
तुझ पर हमेशा खुदा की इनायत रहे।

हर चाहत हो पूरी सदा ही तेरी
दुआ सबके दिल से निकले तेरे लिये।
****
पूनम

शुक्रवार, 25 सितंबर 2009

नया जमाना

सभी पाठकों को दुर्गा अष्टमी एवं
दशहरे की हार्दिक शुभकामनाएं

सादर प्रणाम चरण स्पर्श का
शायद जमाना बीत गया
हाय हैलो और जमाना
यार का अब आ गया।

अम्मा बाबू जी कहने में
जो मिठास होती थी
मम्मा डैडी जैसे शब्दों
के बीच कहीं खो गया।

मां के हाथ की रोटियों का
स्वाद भी शायद भूल गया
मजबूरी में या वैसे भी
जमाना होटलों का हो गया।

घर के छप्पन व्यंजन भी
खिलाने में शर्म है लगती
अब तो पिज्जा बर्गर और
चिली चिकन का जमाना आ गया।

महाभारत रामायण जैसी
पौराणिक कथायें खो रही
अब तो कार्टून मिक बीन
पोगो का जमाना आ गया।

आजादी हमें कैसे मिली
अब भी बहुत लोग नहीं जानते
अब तो खुद ही आजाद
होने का जमाना आ गया।

बच्चों को समझाने की
कोशिश तो करके देखिये
शायद जवाब ऐसा ही मिले
जमाना आपका चला गया।

ताल में ताल मिला के
हम भी संग जमाने के चले
फ़र्क आया नजर बुराई वक्त में नहीं
सोचों में अन्तर आ गया।

अब दौर है नये जमाने का
तो आप भी ढल जाइये
मिल के संग इनके हम भी कहें
कि अब नया जमाना आ गया
००००
पूनम

गुरुवार, 17 सितंबर 2009

गज़ल-जमीं से आसमा तक


आज हम छूने चले हैं आसमां को
पर सहारा तो जमीं का चाहिये।

लाख मोड़ लें रुख चाहे जिधर भी
पर अन्त में किनारा तो नदी को चाहिये।

चाहे कितने भी बड़े हो जायें हम फ़िर भी
लोरी सुनने के लिये इक गोद मां की चाहिये।

कुछ भी पाने के लिये सोच ऊंची है जरूरी
मिल जाये कितनी शोहरत मन न बढ़ना चाहिये।

हमें मिले जो संस्कार हैं बुजुर्गों की निशानी
गर पड़ें कमजोर तो सम्बल इन्हीं का चाहिये।

है बहुत आसान कीचड़ उछालना दूसरों पर
पर पहले खुद पे भी एक नजर डाल लेना चाहिये।
********
पूनम

शुक्रवार, 11 सितंबर 2009

गीत---अजनबी शहर में


इस शहर में हम अजनबी हैं
जाने पहचाने से चेहरे हैं फ़िर भी
हर पल में लगता ये और ही कोई है।
इस शहर में-----------------।

बेमतलब यहां पे तो कुछ भी नहीं है
ऐसा हो शायद ही इन्सान कोई
यहां जो मतलबी नहीं है
इस शहर में-------------------।

है खून का रिश्ता जिससे भी जिसका
वक्त पड़ने पे देखा
बदल रक्त की रंगत ही गई है।
इस शहर में ----------------।

दुश्मनी होती नहीं किससे किसीकी
खुरच दे उसे जिल्द पुरानी समझ के
फ़िर चढ़ा दे कवर दोस्ती की नई सी।
इस शहर में ---------------------।

जाना पहचाना या हो वो बेगाना
पहले हम इन्सां हैं
फ़िर हम कोई हैं
इस शहर में -------------------।

कभी झांक कर देखो औरों के दिल में
उनमें जो है वो हमारे में भी
क्या लगता है फ़र्क थोड़ा भी कोई है
इस शहर में ---------------।

रंजो सितम से ये दुनिया भरी है
है जीना इसी में और मरना यहीं है
आपस में फ़िर क्यूं यूं ही ठनी है
इस शहर में ---------------।

शहर में ही जब अपने हम अजनबी हैं
तो दुनिया तो फ़िर भी बहुत ही बड़ी है
फ़िर भी हम क्यों अजनबी हैं।
इस शहर में ---------------।
00000000
पूनम



शनिवार, 5 सितंबर 2009

ख्वाब देखो जरूर-----


ख्वाब देखो तो जरूर पर इतना देखो
तुम्हारे पांवों को ढंक सके चादर इतना तो देखो।

अपने से ऊपर देखो तो जरूर पर इतना देखो
तुमसे नीचे भी कोई है इतना तो देखो।

एक चींटी भी कोशिश से चढ़ती है पहाड़ इतना देखो
कुछ पाने के लिये हिम्मत है जरूरी इतना तो देखो।

अच्छा बीज ही बनता बेहतर पौधा इतना देखो
अच्छे कर्मों से ही होता है बड़ा इन्सां इतना तो देखो।

यदि चाहत है तो उंचाई तक पहुंचोगे जरूर इतना तो देखो
पांव टिके हैं जमीं पर कितने इतना तो देखो।

एक माचिस की लौ भी दूर करती है अंधेरा इतना तो देखो
बन के देश के दीपक रौशनी दे सकते सबको इतना तो देखो।
********
पूनम

सोमवार, 31 अगस्त 2009

चलते चलते


कभी ऐसा सोचा है आपने की पसीने की बून्दे लगातार आपके माथे से चू रही हैं ,कपड़े पसीने से ऐसे गीले हो रहे हैं मानो धोने के बाद सुखाना भूल गये हों ,हर तरफ़ से तरह तरह के पसीनो की मिली जुली खुशबू और हवा तक बीच से ना निकल पाये ऐसी भीड़ और ऊपर से कुछ लोगो की पोलिटिकल गपशप और उन सब के बीच आप!!!!!! आपका क्या ऐसा मन नही करेगा की पोलिटिकल व्यूज़ दे रहे उन लोगो को पार्लियामेन्ट मे छोड आये।
बिल्कुल यही,यही मन हुआ था मेरा भी जब पिछ्ले दिनो मेरी गाडी ने मुझे धोखा दे दिया और मुझे कोलेज जाने के लिये “मैन्गो पीपल” यानि आम जनता वाला टैम्पो लेना पडा।
12 बजे की तपती धूप, उमस भरी गर्मी और उसके बीच मे श्रीमान लालू प्रसाद यादव…उफ़्फ़्फ़्फ़!!!!!!! मेरा मन तो हुआ की मेरे बगल (बगल नही, दरअसल मेरे ऊपर) बैठी उन मोटी आन्टी को चलते टैम्पो से धक्का मार दूँ। ऐसा करके मै उनकी भी मदद करती और अपनी भी - उनकी क्योकी वो अपनी बहू के तानो से परेशान थी,उसके रोज़ जान बूझ के खाना जलाने की आदत से परेशान थी (ताकि वो खाना ना खा पाये…ऐसा वो सोचती थी…पर उन्हे देख के तो कुछ और ही लगता था)…अपना मन पसन्द सास बहू ना देख् पाने से परेशान थी…उफ़्फ़्फ़्…कितनी सारी परेशानिया…जिनका हल मै चुटकियो मे …सिर्फ़ एक धक्के से कर सकती थी…खैर्…॥
अब मैने अपना ध्यान मेरे सामने बैठे एक दो साल के बच्चे और उसकी माँ पर केन्द्रित किया।बेटी लगातार अपनी माँ से उसकी गोद मे बैठने की ज़िद कर रही थी पर माँ अपने नये पैन्टालून्स के (ज़बर्दस्ती अडसाये गये)कुर्ते पर सिल्वटे पडने के डर से उस बेचारी को डान्टे जा रही थी…हाय रे माँ !!ये वही भारत है जहाँ माँ अपने बच्चो के लिये अपने प्राण तक न्यौछावर कर देती थी…पर ये तो ठहरी जेनरेशन –आई की माँ !!!!!!!!
विज्ञान ने कितनी प्रगती कर ली है…इसका सीधा सा उदाहरण है आपका सेल फ़ोन। आप कही भी रहे ,किसी भी अवस्था मे ,फ़ोन से आपकी सभी मुश्किले हल हो जायेगी। ये मेरे बगल मे बैठे “डूड” ने मुझे एह्सास दिलाया…वो लगातार किसी को ये विश्वास दिला रहा था कि जब तक वो है उसे कोई दिक्कत नही होगी…बडा रहस्यमय लगा ये…फ़िर थोडा और गौर फ़रमाने पर पत चला कि जनाब के दोस्त ने सारे पैसे लेवाइस की जीन्स और फ़ास्ट्रैक के चश्मो पे लगा दिये…गर्ल्फ़्रैन्ड को इम्प्रेस करने के चक्कर मे…और अब घरवालो से किताबो के पैसे मागने की हिम्मत नही थी…भई वाह किसी ने सच ही कहा है “a friend in need is a friend indeed”…दोस्ती हो तो ऐसी।ये है जेन –आई के युवा…जिनके लिये ब्रान्डेड कपडे और गर्ल्फ़्रैन्ड स्टेटस सिम्बल होता है…राहुल गान्धी और भगत सिह भी काश ये हाई-फ़ाई मेन्टैलिटी समझ पाते…॥
“…देश की बाग डोर सौपने की बात हो रही है ऐसे गैर जिम्मेदार लोगो के हाथों में …खुद का तो अता पता नही है,देश चलायेंगे ये…”…एक बूढे सज्जन अपना फ़्रस्ट्रेशन निकाल रहे थे उस लडके को फ़ोन पे बतियाता देख देख के…किसपे…पता नही। पर जब उन्हे लगा की मै उनकी बात सुन रही हूँ तो उन्होने स्वर ऊंचा करके बोलना शुरू किया…“हमारे ज़माने मे तो……………………”।…वो तो भला हो उस टैम्पो वाले का जो उसने अपना टेप चालू कर दिया और उसपे आ रहे “है जुनून …”ने मुझे बचा लिया वर्ना आज तो उन बाबा जी ने मुझे रानी लक्ष्मी बाई ही बना दिया होता॥
काश्…एक बार कैट्रीना ओर जौन मेरे स्थिती मे आकर देखे…सारा जुनून धरा का धरा रह जायेगा…ह्म्म्…”दीदी…ज़रा अपना बैग उधर कर लो”…एक 8-9 साल की लडकी फ़ूलो की डलिया थामे मुझे कह रही थी…उसके फ़टे चिथडे कपडो ने अनयास ही मेरा ध्यान अपनी तरफ़ आकर्शित किया…मुझे ध्यान आया…मेरे बैग मे माँ का दो दिन पहले का दिया हुआ एक सेब रखा था…जिसकी हालत देख के मैने उसे किसी पशु के सामने डालने की सोची थी……………”थान्क्यू दीदी”…सेब पाकर वो लडकी काफ़ी खुश थी…
मुझे अपने से एक पल के लिये घृणा सी हुआ…क्या इन्सान और पशु मे कोई फ़र्क ही नही है…पर बाद मे मैने सोचा … 15रू कम से कम बर्बाद तो नही हुए…वाह रे इन्सान्…वाह रे स्वार्थ्…और तभी “India is a free n democratic country…wat an idea sir ji”………हाँ …सही तो कहा अभिशेक ने…भारत सच मे एक free country है जहाँ लोगो को कुछ भी कहने का और कैसे भी रहने का हक है…ऐसा सोचते हुए मैने अपने को फ़िर से चारो तरफ़ मचे कोलाहल का एक हिस्सा बना लिया।

नेहा शेफ़ाली

मंगलवार, 18 अगस्त 2009

पुकारती धरोहरें


अभी भी बाकी है कुछ निशानियां

जो पुकारती हैं मुझको

आकर बचा लो हमको।

वो हमारी धरोहरें जो

शान थीं इस देश की

आवाज देती मुझको

आकर बचा लो हमको।

वो ऐतिहासिक स्थल

खण्डहर होती इमारतें

वो बादशाहों के ख्वाब औ

बेगमों की हसरतें

रो रो के कहते मुझको

आ के बचा लो हमको।

वो चिटकती दीवारें

जंग खाती खिड़कियां

चरमराते दरवाजे

जो थीं अद्भुत निशानियां

बुला रही हैं मुझको

आकर सम्हालो हमको।

वो आजादी के मस्तानों की कुर्बानियां

याद आते ही आंखों में

बस जाती हैं परछाइयां

कहती हैं जो देश सौंपा तुमको

अब बचा लो उसको।

प्राचीन ग्रन्थों की बहुमूल्य गाथायें

महान कवि कुल गुरुओं की

अद्भुत रचनायें

गर्त में कहीं खोती जा रहीं

कह रही हैं मुझको

वक्त है बचालो ढूंढ़ लो हमको।

भूल जाना ना ये निशानियां

पुकारती हैं सबको

रखना संभाल हमको।

0000000000

पूनम

सोमवार, 10 अगस्त 2009

बालगीत


आज मैं अपना एक बालगीत प्रकाशित कर रही हूं।

वैसे आप लोग मेरे अन्य बालगीत फ़ुलबगिया ब्लाग

पर पढ़ सकते हैं।

नाना जी की मूँछ

नाना जी की मूँछ
जैसे गिलहरी जी की पूंछ
अकड़ी रहती हरदम ऐसे
जैसे कोई रस्सी गयी हो सूख।
नाना जी मूँछों पर अपनी
हरदम देते ताव
पहलवान जी जैसे कोई
जीत गए हों दाँव।
कभी दाई मूँछ तो कभी बांई फ़ड़कती
कभी ऊपर उठती कभी नीचे गिरती
दरोगा की मूँछ भी
उनके आगे पानी भरती ।
नाना जी की मूँछ हरदम
ऐंठन में ही रहती
शान न गिरने पाए कभी
हरदम कोशिश करती ।
नाना जी की मूँछ की
गली गाँव में पूछ
फ़ेल हो गई उनके आगे
नत्थू राम की मूँछ ।
0000
पूनम


शुक्रवार, 31 जुलाई 2009

हम जिंदा तो हैं


पंच तत्वों से मिलकर मानव का हुआ मानवीकरण,
मानवता तो खो रही फ़िर भी हम जिंदा तो हैं।

धड़कनें भी चल रही हैं नब्ज भी साथ दे रही,
पर दिल तो भावशून्य है फ़िर भी हम जिंदा तो हैं।

जमीर अपनी बेच दी आत्मा भी मर चुकी,
अपने को बड़े फ़ख्र से कहते फ़िर भी हम जिंदा तो हैं।

हर गली चौराहे पर मां बेटी बहन की बोली लगी है,
देख कर अनदेखे हुये फ़िर भी हम जिंदा तो हैं।

रक्षक ही भक्षक बन बैठे हम हाथ पर हाथ धरे रहे,
आंख का पानी भी मर चुका फ़िर भी हम जिंदा तो हैं।

रिश्तों के मतलब बदल रहे हर अखबार चीख रहा ,
शर्मसार हो रहे रिश्ते फ़िर भी हम जिंदा तो हैं।

हमारे संस्कारों की नींव अब तो डगमगा रही शायद,
गिरने से पहले इसे संभालें इसीलिये हम जिंदा तो हैं।
०००००००

पूनम

शुक्रवार, 17 जुलाई 2009

बारिश में

बारिश में माटी की
सोंधी सी खुशबू से
भीज उठा तन
बहक गया मन।

कलियों के होठों पे
नहलाई धूप सा
निथर उठा तन
महक उठा मन।

पक्षियों के कलरव सा
अठखेलती लहरों सा
नाच उठा मन
थिरक उठा तन।

सांझ की झुरमुट में
प्रियतम की आहट पर
गा उठा मन
हुलस उठा तन।
00000000
पूनम

शनिवार, 11 जुलाई 2009

मन


मन भीगा भीगा क्यों है
तन भीगा भीगा क्यों है
लगता है जैसे आने वाला
हरियाली सावन है ।

मंदिर यूं सजने लगे
घंटे यूं बजने लगे
लगता है जैसे शिव शंकर का
हो रहा अर्चन है ।

बिजली यूं चमकने लगी
बादल यूं गरजने लगे
लगता है जैसे सागर का
हो रहा मंथन है ।

कोयलों का कुंजन है
भौरों का गुंजन है
लगता है जैसे सावन का
हो रहा अभिनंदन है ।
*******
पूनम

बुधवार, 1 जुलाई 2009

ग़ज़ल


दीदारे यार होने का जरा जश्न तो मनाने दो,
यार मेरा फ़िर कहीं पर्दा नशीं न हो जाये।

बड़ी मुद्दत से हमको तो खुदा से ये शिकायत थी,
ये ख्वाब उनकी बेरुखी से फ़िर न खाक हो जाये।

पर खुदा ने भी इनायत की मेहरबां हुआ हम पर,
मोहलत इतनी दे ही दी तमन्ना अधूरी न रह जाये।

कहते हैं खुदा तो लेता इम्तहान घड़ी घड़ी,
बन्दे की सच्ची बन्दगी को जरा वो भी तो आजमाये।
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पूनम

शनिवार, 27 जून 2009

सत्य के पर्याय


सच्चाई के आज मायने बदल गये,
सच पर झूठ के ताले पड़ गये।

कानून की आंख पर पट्टी बंधी,
हाथ भी रिश्वत की तराजू में तौल गये ।

पैसों के बोझ तले गुनहगार बच गये,
बेगुनाह आज देखो गुनहगार बन गये।

अपराधी दण्डित हों पर बेगुनाह न सजा पाये,
कानून की किताब से ये शब्द हट गये।

सत्य को बचाने में जो कदम आगे बढ़े,
वो झूठ और फ़रेब के दलदल में फ़ंस गये।

सत्यमेव जयते के अर्थ कहीं खो गये,
बेईमानी धोखाधड़ी आज सत्य के पर्याय बन गये।
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पूनम

सोमवार, 22 जून 2009

लघुकथा-- मजबूरी


रोज सबेरे इधर उधर काम करती हुई बरबस ही निगाह किचेन की खिड़की से बाहर चली जाती है ।रोज की तरह मैं देखती हूं उस औरत को जो अपने कंधे पर बोरे जैसा बड़ा सा थैला लटकाये अपने दो छोटे छोटे बच्चों के साथ अपने काम में जुटी होती है ।पूरी तन्मयता के साथ ।कूड़ा बीनते हुये ,सफ़ाई करते हुये जैसे उसे किसी के होने या न होने का कोई फ़र्क नहीं पड़ता ।
चाहे वो जून की चिलचिलाती धूप हो या फ़िर जनवरी की कड़ाके की सर्दी ।साथ में उसके बच्चे कभी कूड़ा बीनते---कभी खेलने में मगन हो जाते ।सूरज की धधकती आग या तपती हुई
धरती की तपन उनके नंगे पांवों या चीथड़ों में लिपटे शरीर पर कोई असर नहीं डालती ।शायद मां का आंचल ही उनको इन सबसे लड़ने का संबल देता है ।
देखते देखते उसकी दो साल की लड़की का हाथ मेरे दरवाजों की कुन्डी तक पहुंचने लगा है। और उसकी महीन सी आवाज ----‘आण्टी------कूला दे दो’ जब मेरे कानों में पहुंचती है तो मेरा हाथ उसे कूड़ा देने के बजाय ,घर में खाने की चीजों पर जल्दी –जल्दी दौड़ने लगता है।एक हाथ से मैं उसे कूड़ा देती हूं,दूसरे से उसे खाने का थैला पकड़ाती हूं । ऐसा करके मैं उसके ऊपर अहसान नहीं करती हूं । बल्कि थैले को देखकर उस बच्चे की आंखों में जो चमक उभरती है---वह मेरे मन को इतनी असीम शान्ति देती है जो मैं बयां नहीं कर सकती ।
जब मैं उसकी मां से पूछती हूं कि इस आग उगलती धूप को ये कोमल बच्चे कैसे सहन करते हैं ? उसका एक ही जवाब होता है –“दीदी ---इन बच्चों के पेट में जो आग जल रही है उसकी लपटों और जलन से सूरज की गर्मी और तपिश तो बहुत कम है”। और मेरी निगाहें एक हाथ में बच्चों का हाथ थामे-----कन्धे पर कूड़े का थैला लिये उस औरत का दूर तक पीछा करती रहती हैं ----जब तक कि वह निगाहों से ओझल नहीं हो जाती ।और कानों में गूंजते रहते हैं उसके शब्द-----पेट की आग की जलन से तो सूरज की गर्मी की तपिश बहुत कम है।
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पूनम

सोमवार, 15 जून 2009

दिल-ए-दास्ताँ


दिल के हाल का क्या कहिये
जब दिल ये अपना रहा नहीं।

नजरें तो चुरा गईं दिल मेरा
पर उनकी इनायत रही नहीं।

उनके सितम का क्या कहिये
जब करम अपनों पर रहा नहीं।
आंखों से अश्क बहाते रहे
पर दिल उनका पिघला ही नहीं।

यूं आंख मिचौली खेली बहुत
अब इतने बेगैरत हम भी नहीं।

आखिर हम भी तो इन्सां हैं
पत्थर ही सही न मोम सही।

आयेंगे दर पर बार-बार वो
हम भी उनसे कम तो नहीं।
==========
पूनम

मंगलवार, 9 जून 2009

क्या करुँ




शब्द नये आज मन में नहीं आ रहे
क्या लिखूं कैसे लिखूं समझ नहीं पा रहे।

शब्दों को गीतों की माला में पिरोऊं
पर शब्द रूपी सच्चे मोती ढूंढ़ नहीं पा रहे।

शब्द ही सच हैं शब्द ही झूठ भी
उलझन है मन में बहुत सुलझ नहीं पा रहे।

सच को बयान करूं तो शब्द लगे तीर से
शब्द रूपी तीर लोग झेल नहीं पा रहे।

झूठ जो बयां करूं तो शब्द देते साथ नहीं
कलम भी लिखने से हाथ को रोक रहे।

फ़िर सोचती हूं जो मन के भाव उन्हीं को उतार दूं
पर व्यक्त करूं कैसे उन्हें शब्द नहीं पा रहे।
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पूनम

रविवार, 17 मई 2009

मन पाखी


मन तुम तो पाखी बन कर
उड़ जाते हो दूर गगन तक
पल भर में ही हो आते हो
सात समुन्दर पार तक।

पल में यहां और पल में वहां
हर क्षण जगह बदलते हो
क्या कोई तुम्हारा एक ठिकाना
बना नहीं है अब तक।

हर पल तुम तो विचरा करते
चैन न लेने देते हो
जैसे भटकता कोई राही
मिले न मंजिल जब तक।

सोचूं तुमको बंधन में बांधूं
पर कैसे और कहां तक
तुम ऐसे परवाज़ हो जिसको
बांध सका ना कोई अब तक।
00000000
पूनम

रविवार, 10 मई 2009

मातृ दिवस

मां शब्द ही अवर्णनीय,अतुलनीय है।उनके बारे में लिखना किसी के लिये सम्भ्व नहीं है।
दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि उनके लिये लिखना सागर की एक बूंद की तरह होगा।
आज मातृ दिवस पर मैं अपनी एक कविता प्रकाशित कर रही हूं।

मां
मां सिर्फ़ शब्द नहीं
पूरी दुनिया पूरा संसार है मां
अंतरिक्ष के इस पार से
उस पार तक का अंतहीन विस्तार है मां।
मां सिर्फ़ शब्द नहीं--------------------।

शिशु की हर तकलीफ़ों को रोके
ऐसी इक दीवार है मां
शब्दकोश में नहीं मिलेगा
वो कोमल अहसास है मां।
मां सिर्फ़ शब्द नहीं-------------------।

सृजनकर्ता सबकी है मां
प्रकृति का अनोखा उपहार है मां
ममता दया की प्रतिमूर्ति
ब्रह्म भी और नाद भी है मां।
मां सिर्फ़ शब्द नहीं---------------------।

स्वर लहरी की झंकार है मां
लहरों में भी प्रवाह है मां
बंशी की धुन है तो
रणचण्डी का अवतार भी है मां।
मां सिर्फ़ शब्द नहीं---------------------।

मां सिर्फ़ शब्द नहीं
पूरी दुनिया पूरा संसार है मां।
000000000000
पूनम


मंगलवार, 5 मई 2009

जख्म


जख्म जाने कब के भर गए होते
यदि बार बार उनको कुरेदा न जाता।

बात बनती हुयी यूँ बिगड़ती नहीं
यदि बार बार उसको बढाया न जाता।

गैरों से अपनेपन का एहसास ही न होता
यदि बार बार अपनों ने ठुकराया न होता।

हंसती हुयी जिंदगी यूँ वीरान न होती
यदि बार बार उसको रुलाया न जाता।

विरहन की आस यूँ ही न टूटती
यदि बार बार उसको भरमाया न जाता।

कसौटी पर जिंदगी के खरा उतरता न कोई
यदि बार बार उसको आजमाया न जाता।
*****************
पूनम

गुरुवार, 30 अप्रैल 2009

जीत


जिंदगी का हर लुत्फ़ तू
उठाये जा उठाये जा
कब हो जाए ये बेवफा
हर लम्हा तू जिए जा,तू जिए जा।

जिंदगी चाहत भी है
मोहलत भी है जिंदगी
जिंदगी खुदा की इनायत
इबादत तू किए जा,तू किए जा।

जिंदगी के दो पहलू
कभी खुशी कभी गम कहीं
वास्ता दोनों से तेरा
हंस के तू निभाए जा ,तू निभाए जा।

जिंदगी की बिसात पर
मौत की चादर तनी
जीत जायेगी जिंदगानी
मौत को तू हराए जा,तू हराए जा.
************
पूनम


गुरुवार, 23 अप्रैल 2009

धरती की सैर


चाँद ने बैठे बैठे सोचा,
चलो धरती की सैर कर आयें
थोड़ा मन बहलायें।

चाँद उतरा जमीन पर
पहुँचा एक पेड़ के पास
और बोला
दोस्त चलो हम दोनों
मिल कर धूम मचाएं
झूमें नाचें और गायें।

पेड़ ने दुखी होकर चाँद को देखा
निहारा और फ़िर कराहा
दोस्त तुम ग़लत जगह आए हो
कहाँ की हरियाली
कहाँ की खुशहाली
अब तो बात गुजरने वाली।

यहाँ तो इन्सान
इन्सान को काट रहा है
ज्यादा पाने की लालच में
सब कुछ मिटा रहा है
हमारी जड़ें खोद कर
अपने लिए कब्र बना रहा है।

सुन कर चाँद आहत हुआ
मानो उसको कोई भ्रम हुआ
फ़िर घूमते घामते पहुँचा नदी के पास
कल कल करते नदी झरने तालाब।

वह देखकर हुआ बड़ा प्रसन्न
और बोला
तुम्हारी दुनिया कितनी सुंदर है
झरने तालाब कितने निर्मल हैं।

नदी ने सुनकर
अपना सर उठाया
आँखों से आंसू टपकाया
और बोली ……
तुम्हारी बातें थोथा हैं
ये सिर्फ़ नजरों का धोखा है।

यहाँ तो मनुष्य ने
फ़िर अपना जाल बिछाया
हमारी प्राकृतिक सुन्दरता को
नष्ट कराया
अपने सपनों को साकार
करने के लिए
बहुमंजिली इमारतें और
कारखाने बनवाया
बढ़ती आबादी के लिए
जंगल को सूना करवाया
हरियाली को श्मशान बनाया
सारा जग प्रदूषित करके
अपना ही जीवन नर्क बनाया।

चाँद से रहा न गया
वह बोला —
अच्छा दोस्त चलते हैं
तुम्हारी दुनिया से तो
मेरी दुनिया अच्छी है
जहाँ मनुष्य नहीं है।
००००००००००००
पूनम

रविवार, 19 अप्रैल 2009

कहानी --गुनाह कुबूल (भाग २)


आप यकीन मानिये उस पूरी रात मैं चैन से सो न सका.रात भर मेरी आँखों के आगे उस बेबस बुढिया का चेहरा नाचता रहा.मुझे उसकी बेबस ऑंखें घूरती रहीं..कभी वो ऑंखें मेरी अम्मी की आँखों में तब्दील हो जातीं कभी अब्बू की आँखों में.सारी रात मेरे जेहन में अब तक मेरे हाथों मारे गए चेहरे घूमते रहे…और मैं ..जितना ही उनसे बचने की कोशिश करता उतना ही वो चेहरे मेरे जेहन को और झकझोरते रहे…
अगली सुबह जब मैंने अशरफ भाई के सामने अपनी बात रखी तो….चटाक..चटाक…मेरे गालो पर अशरफ भाई की उँगलियों के निशान उभर आये।
‘बड़ा ईमान वाला..हो गया तू. अपने भाइयों से ज्यादा उस बूढी की बातें तुझे टीस रही हैं.अपने भाइयों का हल तुझसे नहीं देखा जाता है? अँधा और बहरा हो गया है क्या?
मैनें अशरफ भाई से माफी मांगी और आगे से गुस्ताखी न होने का भरोसा दिया.और फ़िर क्या ग़लत कहा उन्होंने?जब ऐसे हमारी बात नहीं मानी जायेगी तो अपनी चीज तो छीन कर ही लेनी होगी न.यही सोचकर मैं अपने भाइयों के लिए दूसरे भाइयों का खून बहाता गया ..और फंसता गया एक अंतहीन दलदल में.जिसका न कोई आदि था न अंत।
और कल जो कुछ हुआ लगभग १० सालों बाद उसने मुझे अन्दर तक हिला डाला. कल हमने पाकिस्तान में ही रह रहे गोरों पर चढाई करने की ठानी थी.सब कुछ ठीक चल रहा था कि अचानक मेरी निगाहें एक छोटे लड़के पर टिक गयीं.जिसके अम्मी अब्बू हमारी गोलियों के शिकार हो चुके थे.और मेरे जेहन में घूम गया वो दिन जब मेरे अब्बू अम्मी को इन्हीं आतंकवादियों ने गोलियों से छलनी कर दिया था.उस लड़के की आँखों में मुझे वही खौफ नजर आया जो अबसे बरसों पहले मेरी आँखों में उन दरिंदों को देख कर पैदा हुआ था.उसकी लाचार पर तीखी निगाहों ने मुझे अन्दर तक झकझोर दिया.सैकडों सवाल पूछ डाले उसकी खौफजदा आँखों ने मुझसे ..बिना कुछ मुझसे बोले हुए ही…क्यों मारा तुमने इन्हें?क्या बिगाडा था मैनें तुम्हारा..?क्यों बनाया तुमने मुझे अनाथ?....अब क्या तुम मुझे भी मारोगे या अपनी ही तरह दरिन्दगी का खेल खेलने वाला आतंकवादी बनाओगे?बोलो है कोई माकूल जवाब तुम्हारे पास..?
और इन सवालों का मेरे पास कोई भी माकूल जवाब न उस वक्त था न ही आज है.आज मैंने आपको यही बताने के लिए कलम उठाई है कि मैं उन सब लोगों का गुनाहगार हूँ जिनकी जिंदगियाँ मैंने उजाड़ी.जिनके बसे बसाये आशियानों को मैंने तबाह किया.जिन बच्चों को मैंने अनाथ कर दिया..जिन मां बाप को मैंने बेऔलाद कर दिया..जिन औरतों को मैंने बेवा बना डाला..कहाँ तक गिनाऊँ मेरे गुनाहों की फेहरिस्त बड़ी लम्बी है.अल्लाह
..परवरदिगार मुझे शायद कभी नहीं बख्शेगा.मैं उन लोगों को वापस भी तो नहीं ला सकता…बस पछता सकता हूँ.ताउम्र …लेकिन ताउम्र क्यों मेरे जेहन में तो कुछ और ही चल रहा है…॥
मैं आज ही ख़ुद को ख़तम करने जा रहा हूँ.कल का सूरज मैं नहीं देख सकूंगा.इसीलिये अपनी ये पूरी कहानी आपके सामने लिख रहा हूँ…खुदा को हाजिर नाजिर मान कर.क्या पता इसी से बहुत सारे आशियाने उजड़ने से बच जायें..क्या मालूम मेरी इस कुर्बानी से खुश होकर मेरे जैसे बहके बन्दों को सही राह दिखाए.
मैं अपनी इस कहानी से सिर्फ़ और सिर्फ़ ये बताना चाहता हूँ कि हम लोग जानबूझ कर आतंकवादी नहीं बनते.या तो इसके लिए हालात जिम्मेदार होते हैं या लोग.मेरे ऊपर तो पहली ही बात लागू होती है .वैसे दूसरी बात भी काफी हद तक सही है.और एक बार इस दलदल में फंस जाने के बाद हमारा अंजाम क्या होगा ये किसी को नहीं पता रहता.आपको मै अपनी बात कैसे समझाऊँ?हाँ ,एक उदाहरण से आप समझ सकते हैं.अगर आप को बिना खिड़की और दरवाजे वाले एक कमरे में बंद कर दिया जाय तो आपकी हालत क्या होगी?पूरी दुनिया से आप कट जायेंगे.जब आपसे कहा जाएगा कि बाहर दिन है तो आप यही मानेंगे कि बाहर दिन है..जब आपसे कहा जाएगा कि बाहर रात है तो आप यही मानेंगे कि बाहर रात है.क्योंकि तब आपके पास उस बात को कुबूल करने का और चारा भी नहीं रहेगा जिसके जरिये आप बाहर की सच्चाई जान सकेंगे.ठीक यही सब मेरे साथ भी हुआ..और जब तक मैं बाहर की दुनिया से जुड़ने के काबिल हुआ बहुत देर हो चुकी थी।
खैर …मुझे जो भी कहना था मैंने कह दिया.अब मै आखिरी बार अपने हमसफ़र इस असलहे को छूने जा रहा हूँ.क्या पता था कि मुझे अपने जिस हमसफ़र पर इतना गुमान था वही मुझे भी मौत से रूबरू कराएगा.अल्लाह से कैसे और क्या कहूं…हो सके तो आप लोग मेरे लिए अपने नफरत के जज्बात को थोड़ा ..बस थोड़ा कम कर दीजियेगा…शायद वही मुझे एक सकून की मौत दे सके.......................................................................
……………………………………………………………………………….अलविदा…………………………………………………………………….
कहानीकार
:नेहा शेफाली
झरोखा पर पूनम द्वारा प्रकाशित

बुधवार, 15 अप्रैल 2009

कहानी--गुनाह कुबूल (भाग १)




“और ये मैंने पूरा किया पचास!”चक्कर में पड़ गए न….नहीं नहीं ….मुझे क्रिकेटर न समझिये…..हम्म्म…तो फ़िर क्या समझेंगे?चलिए मैं आप लोगो की उलझन को सुलझाता हूँ.मैं हर समाज,हर देश का एक घृणित मानव,एक पत्थर दिल इंसान हूँ जो हर रोज़ अपने “खाते” में अनगिनत बाद-दुआएं डालता है-एक आतंकवादी .क्या हुआ??मेरा नाम सुनते ही पसीना छूट गया.. या आपने मुझे कोसना शुरू कर दिया??खैर!!आप चाहे जो करें या सोचें मुझे इसकी परवाह नहीं है….मै आपसे नही डरता….
अब इन सब बातों को छोडिये.आपके मन में अब ये जरूर आ रहा होगा की ग्रेनेड और ए के -४७ चलाने वाले को कलम पकड़ने की क्या जरूरत पड़ गयी.तो ये बताते हुए मुझे थोड़ी शर्म आ रही है कि जो काम मैंने अपनी अब तक की जिंदगी में नही किया उस काम को करने के लिए मुझे इसका सहारा लेना पड़ रहा है.मैंने कभी किसी काम को करने के लिए सफाई नही दी. इसलिए मुझे इसकी आदत नही रही.सफाई इसलिए नही दी क्योंकि मुझसे कोई पूछने वाला नही था……रुकिए!मै आपको अपनी पूरी कहानी सुनाता हूँ।
दरअसल जब मै पैदा हुआ था तो अल्लाह ने मुझे ये कह के नहीं भेजा था कि “जा,तू एक आतंकवादी है. जिससे सारी कायनात नफरत करेगी.”हमें भी छोटेपन में अम्मी अब्बू की गोदी,प्यार दुलार और किस्से नसीब होते थे.रमजान पर मुझे भी सिवैयां दी जाती थी. और मै मेले भी जाता था. अपने रंग बिरंगे पठानी सूटों में.
पर वह खौफनाक रात मै नहीं भूल सकता.उस समय जेहाद के नाम पर कई संगठन जगह-जगह धार्मिक उन्माद बाँट रहे थे .बड़े बुजुर्गों से उनके बेटों को जेहादी बनाने की गुजारिश कर रहे थे.जो राजी खुशी मान गया तो ठीक …नहीं तो…।
ऐसी ही एक खौफनाक रात थी वह .मै अम्मी अब्बू के बगल में सोया था. उसी समय दरवाज़े की सांकल बजी.अब्बू के दरवाज़ा खोलते ही कई काले साये एक साथ मेरे घर में घुस आये.पहले उन सबने अब्बू को पीटा फ़िर अपनी काली बंदूकों से उन्हें छलनी कर दिया.अम्मी को भी उन्होंने……अम्मी अब्बू का जुर्म सिर्फ़ इतना था कि उन्होंने अपनी औलाद यानी मुझे जेहादियों को सुपुर्द नहीं किया था…गोलियों की बरसात ..अम्मी अब्बू के खून में नहाये जिस्म….मै ज्यादा देर वो खौफ़नाक मंजर न देख सका………बस मुझे इतना याद है कि एक दरिन्दे ने मुझे खींच कर उठा लिया था…
और फ़िर जब मेरी आंख खुली तो मैंने ख़ुद को उन्ही काले सायों के साथ एक अंधेरी जगह पे पाया.उनकी काली डरावनी और खौफनाक आँखों ने मेरी चीखों को हलक में ही फंसा दिया…।
बस,उस दिन से जहाँ तक मुझे याद है मेरे संगी साथी ये तमंचे और बम-गोले ही बन गए हैं और अब इनके बिना मै ख़ुद को अकेला पाता हूँ.मेरी हदें इसी से शुरू होती हैं और इसी पे ख़त्म .रोएँ तो इनके साथ और हंसें तो इनके साथ. अल्लाह को याद करें तो भी इनके साथ.उसी की तो रहमत है जो मै अज भी जिन्दा हूँ.
खैर जब मै बड़ा हुआ तो इन लोगों ने मुझे एक नाम दिया-अल जफारी..और मैंने अपना पहला आतंकवादी हमला किया था अट्ठारह बरस की उम्र में अमरीका के एक छोटे से शापिंग मॉल में .इंशा अल्लाह !! मेरा तो हाथ ही इस बात की गवाही नहीं दे रहा था पर वो तो खुदा भला करे इस्मत भाई का जिन्होंने ग्रेनेड मेरे हाथ से लेकर एक झटके में फेंक दिया नहीं तो……।
वो खूनी मंजर आज भी याद है मुझे.हर तरफ़ खून से लथपथ लाशें पडी थीं.मेरे हलक से इतने बेगुनाहों को बेवजह मौत देने की बात नीचे नहीं उतर रही थी.वापस आते ही मुझे बड़े भाइयों ने बहुत फटकार लगाई.बहुत गालियाँ सुनाईं.फ़िर काफी अरसे के बाद मुझे अशरफ भाई ने समझाया-“”जफारी तेरा काम इन लोगो को देखकर हमदर्दी जाताना नहीं है.इन गोरों ने हमारे मुल्क पे फतह हासिल करने के लिए हमारे भाइयों की जानें ली हैं.तुम्हारे जैसे बन्दों को अनाथ कर दिया.हमारे मुल्क के लोगों पर सैकड़ों जुल्म ढाए.और सिर्फ़ अमेरिका ही नहीं हिंदुस्तान ने भी हमें काफी नुकसान पहुँचाया है.कश्मीर ..जिसे कि हमारे मुल्क का हिस्सा होना चाहिए.. जहाँ पर हमारे अपने भाई रहते हैं ,इन हिन्दुस्तानियों ने उस पर भी अपना कब्ज़ा कर लिया है॥”
और अशरफ भाई ने इन बातों को मेरे जेहन में अच्छी तरह दफना दिया .इतने सालों तक इन भाइयों के बीच यही सब सुना तो इसे ही सच मानता रहा.और वैसे भी हमारे अन्दर कुछ भी सोचने की ताकत को इन्होने सालों पहले ख़तम कर दिया था.और अब जब अल्लाह ने मुझे सही रास्ता दिखाया है तो काफी देर हो चुकी है.आज अगर मै जाकर उन लोगों से बोलूँ कि मैं एक आतंकवादी था पर अब अपने गुनाह कबूल करके अपने मुल्क के लोगों का भला करना चाहता हूँ तो मेरी बात पे विश्वास करना तो दूर ,देखते ही मुझे गोलियों से छलनी कर दिया जाएगा. इसलिए अब यहाँ इन लोगों के साथ ही रहकर मुझे अपनी बाकी ज़िंदगी काटनी है।
जब मै २०-२१ की उम्र में था तो बहुत जोश से लोगों को उड़ाता था. और इसमें बहुत फख्र होता था मुझे.मेरे साथ के भाई भी मेरा जोश बढाते थे.हौसला अफजाई करते थे. पर एक बार जब मैंने एक लाचार बूढी पर अपनी बन्दूक तान दी तब मेरे ईमान ने मुझे बहुत धिक्कारा.क्या कर रहा है जफारी? क्या इन्हीं बूढे बेबसों का खून बहाना ही जेहाद है?क्या इसीलिये तुझे अल्लाहताला ने इस धरती पर भेजा है?...काफी देर तक मैं जेहाद ..इस्लाम..अल्लाह और उस बूढी की बेबस खौफजदा आँखों में उलझा रहा.मेरा पूरा जिस्म पसीने से तरबतर हो गया था.हाथ की उंगलियाँ ऐ.के.४७ के ट्रिगर पर कसी थीं ..पर मेरे हाथ कांप रहे थे..जेहन में एक अलग ही जेहाद शुरू हो चुका था…शायद मैं उस बूढी की बेबस आँखों से हार भी जाता .पर ठीक..ठीक उसी वक्त जब उस बूढी ने मुझे एक निर्दयी पत्थरदिल आतंकवादी कहा तो …मेरे जिस्म में लावा भर गया..जेहन में बम फूटने लगे.और तैश में आकर मैंने अपनी गन का फायर उसके ऊपर झोंक दिया.बूढी औरत का बेजान जिस्म मेरे सामने पड़ा था..और मैं हांफ रहा था……………
(क्रमश:)


कहानीकार:नेहा शेफाली
पूनम द्वारा प्रकाशित.

शुक्रवार, 10 अप्रैल 2009

ख्वाब सुनहरे


जुगनू सी चमकती आँखों में
कई ख्वाब सुनहरे सजने लगे
अमर बेल से मन के अन्दर
धीरे धीरे पनपने लगे।

फ़िर चाहत पूरा करने की
उमंगें भी उडानें भरने लगीं
एक समय ऐसा आया
जब सच को हम भी समझने लगे।

सपने जो संजोये आँखों ने
वो बनने और बिखरने लगे
सपने और हकीकत में
अन्तर को बयां वो करने लगे।

ठानी हमने भी अपनी
किस्मत को अजमाने की
मेरा जुनूँ ज्यों बढ़ता गया
हकीकत में सपने बदलने लगे।

सपने तो सपने होते हैं
इस सच को हम झुठलाने लगे
पूरे होते हैं ख्वाब तभी
जब रंग मेहनत के भरने लगें।
०००००००००
पूनम

शुक्रवार, 3 अप्रैल 2009

बात


बात ही बात में,बात शुरू होती है,
बात ही बात में,बात निकल जाती है,
बात ही बात में, सुबह हो जाती है,
बात ही बात में,शाम हो जाती है।

बात ही बात में,सवाल हो जाता है,
बात ही बात में, बवाल हो जाता है,
बात ही बात में, सैलाब बह जाता है,
बात ही बात में, हिसाब हो जाता है।

बात ही बात में,अंदाज बदल जाते हैं,
बात ही बात में,अल्फाज बदल जाते हैं,
बात ही बात में ,बात छुपी होती है,
बात ही बात में,राज खुल जाते हैं.

बात ही बात में,ईमान बदल जाता है,
बात ही बात में,इन्सान बदल जाता है,
बात ही बात में,बात बन जाती है,
बात ही बात में,बात बिगड़ जाती है।

बात ही बात में,क्या बात करें बात की,
बात ही बात में, इतिहास बदल जाता है।
०००००००००००००
पूनम

गुरुवार, 26 मार्च 2009

कहानी--- तेरे सपने मेरे सपने





“दिल्ली से इंजीनियरिंग करने के बाद अब अर्नव तुंरत ही चालीस हज़ार की नौकरी कर रहा है.”
“तो ठीक है , अपना रिशब भी चार-पांच साल में किसी न्यूज चैनल का प्रोड्यूसर बना बैठा होगा.”
“हाँ हाँ ,और पाएगा बीस पचीस हज़ार …संतुष्ट रहो उसी में.पहले खर्च करो लाखों और फ़िर हजारों पाओ.”

रिशब ये सारी बातें अपनी छोटी बहन मिश्टी के साथ बैठा सुन रहा था.माँ-पापा के इन रोज़ रोज़ के झगड़ों से वह ऊब चुका था और इसके लिए कहीं न कहीं ख़ुद को जिम्मेदार मानता था.कुछ सोच कर वह बाहर चला गया .

दरअसल रिशब ने इसी साल बारहवी की परीक्षा पचासी परसेंट के साथ साइंस में पास की है .उसकी मम्मी उसे इंजीनियर बनाना चाहती थी.रिशब का सपना मीडिया से जुडकर अपना एक एन जी ओ चलाने का था .पर उसके सपनों के आगे है एक दीवार,माँ के सपनों की- – बड़ा बंगला ,लक्जरी कार…..इसीलिये माँ ने उसकी इच्छा के विरुद्ध इंजीनियरिंग के सारे फार्म भरवाए.उसका पुणे के कालेज में सेलेक्शन भी हो गया.अब वे उसे अपने सपने पूरे करने के लिए जबरदस्ती पुणे भेजना चाहती हैं.
सुबह का निकला रिशब रात दस बजे घर लौटा .”माँ मेरा कल रात का रिजर्वेशन हो गया है,आप मेरी तैयारी करवा दीजिये .”कहकर वह सोने चला गया.
मुम्मी ने खुशी में पूरी कालोनी में लड्डू बटवा दिया .पर पापा को अंदाजा था की खुशी का भूत उतरने तक शायद…….

“पापा प्लीज़, अपना आशीर्वाद हमेशा मेरे साथ रखियेगा .”कहते हुए रिशब फफक पड़ा था. पापा ने भरे गले से कुछ कहना चाहा..पर शब्द कहीं अटक कर रह गए थे .वे बस दूर तक जाते हुए आटो को देखते रहे …रिशब के अब तक छपे आर्टिकल्स और मम्मी के ताने ….लक्जरी कार ,सब कुछ उनके आंसुओं में गड्ड-मड्ड होता चला गया.

पुणे पहुँचते ही रिशब एकदम बदल गया. चंचल ,हँसमुख रिशब कहीं खो गया .उसकी जगह ले ली थी गुमसुम किताबों के पीछे छिपे रहने वाले रिशब ने.इस अकेलेपन में बस प्रशांत ही तो था ,जिससे वह सारे दुःख बाँट लेता था .
प्रशांत ने ही तो सबसे पहले रिशब के पापा को ख़बर दी थी की वह ड्रग एडिक्ट हो गया है. प्रशांत ने ही फोन पर उन्हें बताया कि पहले और दूसरे सेमेस्टर्स में बहुत कम नंबर आने के बाद से ही रिशब ड्रग्स लेने लगा था. फाइनल एक्जाम के बाद तो वह पूरी तरह टूट गया.एक तरफ़ माँ के सपने न पूरे कर पाने का दुःख ,दूसरी तरफ़ अपने सपनों के बिखरने का दर्द,सब कुछ सुनने के बाद जब तक रिशब के पापा पुणे पहुंचते तब तक …रिशब ने ख़ुद को सारे दुखों से एक झटके में मुक्त कर लिया था.मम्मी को भी जब तक समझ में आया तब तक बहुत देर हो चुकी थी.
आज ….बीस साल बाद ,रिशब के जन्मदिन पर एक पुराने फोटो एल्बम के पन्ने पलटते पलटते मिश्टी की ऑंखें डबडबा आयी.वह आज भारती चैनल में इंग्लिश न्यूज की हेड है.
“माँ, मेरे एन जी ओ का ये प्रोजेक्ट यूनिसेफ वालों को जरूर पसंद आयेगा.”
“हा ,बेटी जा…भाई का सपना पूरा कर .”माँ ने ऑसू पोछते हुए कहा.
और पापा --यही सोच रहे थे कि काश ये आशीर्वाद बीस साल पहले निकला होता तो…………..
०००००००००००००००००
लेखिका--नेहा शेफाली की कहानी झरोखा पर

पूनम--- द्वारा प्रकाशित




रविवार, 22 मार्च 2009

कविता ----- जिन्दगी


कहते हैं जिसे जिन्दगी
उसे ढूँढती हूँ गली गली
क्या नाम है क्या उसका पता
पूछती हूँ गली गली।

आंख जबसे है खुली
मटमैली चादर सी धुली
दिन गुजरता फांकों में
रात कटे बदनाम गली।

मिल जाए गर मुझे जिन्दगी
पूछूंगी उससे कई सवाल
क्यों इंसानी रिश्तों में वह
दो पाटों के बीच ढली।

क्या अमीरों की शान जिन्दगी
या गरीबी की दास्तान जिन्दगी
क्यूं किसी को लगती अनमोल जिन्दगी
क्यों किसी को मौत जिन्दगी से लगती भली।

तू मुझे मिले या ना मिले
चलो कोई शिकवा नहीं
थक चुकी तुझे ढूंढ ढूंढ
अब तो शाम हो चली।

पर मेरा संदेश तेरे नाम है जिन्दगी
एक समय ऐसा आए
जब दिल के हर दरवाजे से निकले
प्रेम से भरी प्रेम गली।
**********
पूनम

बुधवार, 18 मार्च 2009

ग़ज़ल--बता दो जरा


अंधेरे में दिया जला दो जरा
मुझे कोई रास्ता सूझता नहीं।

जिंदगी बन गयी पहेली मेरी
मगर कोई उसको बूझता नहीं।

उठते हुए को पूजते हैं लोग
गिरते को कोई पूछता नहीं।

मन में पडी जो ऐसी दरार
लाख कोशिश से भी वो जुड़ता नहीं।

मोम सा दिल ऐसा पत्थर बना
जो पिघलाने से भी अब पिघलता नहीं।

दिल पर जख्म इतने गहरे हुए
जो मलहम लगाने से सूखता नहीं।

बता दो जहाँ में इन्सां कोई ऐसा
जो मुश्किलों से कभी जूझता नहीं।
०००००००००
पूनम

शनिवार, 14 मार्च 2009

यादें




यादों के झरोखों से झांक लिया करूंगी
अतीत के पन्ने कभी पलट लिया करूंगी।

पल पल को समेटती चलती हूँ कभी
बीते हुए वक्त को दुहरा लिया करूंगी।

याद आयेगी तेरी जिंदगी के किसी मोड़ पे
दिल के आईने से तुझे देख लिया करूंगी।

सच का आईना होता है कड़ुआ बहुत मगर
अपने आप को फ़िर भी भरमा लिया करूंगी।

छोटी सी जिंदगी में रास्ते हैं कठिन बहुत
पर मंजिल पाने की कोशिश तो करुंगी।
०००००००००००००००
पूनम

बुधवार, 11 मार्च 2009

आया देखो फागुन री


आया देखो फागुन री
मन सबका भटकाए री
लहर लहर बरसे रंग अंगना
सारी देह भिजो डारी।


रंग दे सखि इक ऐसे रंग में
जीवन भर ना छूटे री
रंग होरी के कच्चे सारे
पर पी का संग ना छूटे री ।

आज पिया बन कृष्ण कन्हैया
रंग देंगे जो तन मन सारा
मैं राधा बन रास रचाॐ
कंत के संग रंग जाऊं री।


बाकी रंग तो कच्चे सारे
मन का रंग ही पक्का री
इस रंग में रंग दे जो हमको
सखि ऐसा गीत सुना जा री।
********
सभी पाठकों को होली की शुभकामनाएँ
पूनम




रविवार, 8 मार्च 2009

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस


अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर सभी पाठकों,चिट्ठाकारों को हार्दिक मंगल कामनाएं।
आज की मेरी कविता सभी महिलाओं को समर्पित है।
नारी
अबला नहीं आज तो
सशक्त है नारी
स्वाभिमान स्वावलंबन से
भरपूर है नारी।

चहारदीवारी के भीतर
और बाहर भी
अपने अस्तित्व के साथ
संपूर्ण है नारी।

कहीं पत्थर की मूरत तो
कहीं अहसास कोमल भी
कहीं शोला कहीं शबनम
कहीं परवाज है नारी।

जो छेड़े दिल के तार
ऐसी साज है नारी
हर रूप में अपने
नया अंदाज है नारी।

कई महान विभूतियों में
से एक है नारी
बूझ न पाए देव मुनि
ऐसी राज है नारी।

फ़िर भी क्यूं नहीं हम
मानने को हैं तैयार
आज तो समाज का एक
स्तम्भ है नारी।
********
पूनम

गुरुवार, 5 मार्च 2009

एक फूल


मैं एक फूल हूँ
जिसकी महक का एहसास
करते हो तुम
इन वादियों में
और जिसकी खुशबू से
सुगन्धित करते हो
तुम अपने मन को।

लेकिन क्या तुम
बन सकते हो फूल
क्योंकि तुम्हें भी मेरी तरह
अपने आंसुओं को
पीना पड़ेगा
और देना पड़ेगा अमृत
जो मैंने तुमको दिया है।
००००००००००
पूनम

शनिवार, 28 फ़रवरी 2009

उड़ान


अनजाना सपनों में कोई
अच्छा लगता है
अपनों में वो बेगाना भी
अच्छा लगता है।

अनदेखा है फ़िर भी वो
जाना पहचाना लगता है
अनजानी सी डगर पे चलना
फ़िर अच्छा लगता है।

लुका छिपी का खेल निराला
वो तितली की पकड़ा पकडी
गुड्डे गुडियों का ब्याह रचाना
अब बचकाना लगता है।

सखियों के संग समय बिताना
अच्छा लगता है
पर अकेले में मुस्काना भी
अब अच्छा लगता है।

दिल को तन्हाई का आलम
अच्छा लगता है
तस्वीरों से भी बतियाना
अच्छा लगता है।

दिल की बात बताऊँ जिससे
साथी ऐसा नहीं मिला
मिल जाता जो साथी मन का
अच्छा लगता है।
*********
पूनम