गुरुवार, 30 अप्रैल 2009

जीत


जिंदगी का हर लुत्फ़ तू
उठाये जा उठाये जा
कब हो जाए ये बेवफा
हर लम्हा तू जिए जा,तू जिए जा।

जिंदगी चाहत भी है
मोहलत भी है जिंदगी
जिंदगी खुदा की इनायत
इबादत तू किए जा,तू किए जा।

जिंदगी के दो पहलू
कभी खुशी कभी गम कहीं
वास्ता दोनों से तेरा
हंस के तू निभाए जा ,तू निभाए जा।

जिंदगी की बिसात पर
मौत की चादर तनी
जीत जायेगी जिंदगानी
मौत को तू हराए जा,तू हराए जा.
************
पूनम


गुरुवार, 23 अप्रैल 2009

धरती की सैर


चाँद ने बैठे बैठे सोचा,
चलो धरती की सैर कर आयें
थोड़ा मन बहलायें।

चाँद उतरा जमीन पर
पहुँचा एक पेड़ के पास
और बोला
दोस्त चलो हम दोनों
मिल कर धूम मचाएं
झूमें नाचें और गायें।

पेड़ ने दुखी होकर चाँद को देखा
निहारा और फ़िर कराहा
दोस्त तुम ग़लत जगह आए हो
कहाँ की हरियाली
कहाँ की खुशहाली
अब तो बात गुजरने वाली।

यहाँ तो इन्सान
इन्सान को काट रहा है
ज्यादा पाने की लालच में
सब कुछ मिटा रहा है
हमारी जड़ें खोद कर
अपने लिए कब्र बना रहा है।

सुन कर चाँद आहत हुआ
मानो उसको कोई भ्रम हुआ
फ़िर घूमते घामते पहुँचा नदी के पास
कल कल करते नदी झरने तालाब।

वह देखकर हुआ बड़ा प्रसन्न
और बोला
तुम्हारी दुनिया कितनी सुंदर है
झरने तालाब कितने निर्मल हैं।

नदी ने सुनकर
अपना सर उठाया
आँखों से आंसू टपकाया
और बोली ……
तुम्हारी बातें थोथा हैं
ये सिर्फ़ नजरों का धोखा है।

यहाँ तो मनुष्य ने
फ़िर अपना जाल बिछाया
हमारी प्राकृतिक सुन्दरता को
नष्ट कराया
अपने सपनों को साकार
करने के लिए
बहुमंजिली इमारतें और
कारखाने बनवाया
बढ़ती आबादी के लिए
जंगल को सूना करवाया
हरियाली को श्मशान बनाया
सारा जग प्रदूषित करके
अपना ही जीवन नर्क बनाया।

चाँद से रहा न गया
वह बोला —
अच्छा दोस्त चलते हैं
तुम्हारी दुनिया से तो
मेरी दुनिया अच्छी है
जहाँ मनुष्य नहीं है।
००००००००००००
पूनम

रविवार, 19 अप्रैल 2009

कहानी --गुनाह कुबूल (भाग २)


आप यकीन मानिये उस पूरी रात मैं चैन से सो न सका.रात भर मेरी आँखों के आगे उस बेबस बुढिया का चेहरा नाचता रहा.मुझे उसकी बेबस ऑंखें घूरती रहीं..कभी वो ऑंखें मेरी अम्मी की आँखों में तब्दील हो जातीं कभी अब्बू की आँखों में.सारी रात मेरे जेहन में अब तक मेरे हाथों मारे गए चेहरे घूमते रहे…और मैं ..जितना ही उनसे बचने की कोशिश करता उतना ही वो चेहरे मेरे जेहन को और झकझोरते रहे…
अगली सुबह जब मैंने अशरफ भाई के सामने अपनी बात रखी तो….चटाक..चटाक…मेरे गालो पर अशरफ भाई की उँगलियों के निशान उभर आये।
‘बड़ा ईमान वाला..हो गया तू. अपने भाइयों से ज्यादा उस बूढी की बातें तुझे टीस रही हैं.अपने भाइयों का हल तुझसे नहीं देखा जाता है? अँधा और बहरा हो गया है क्या?
मैनें अशरफ भाई से माफी मांगी और आगे से गुस्ताखी न होने का भरोसा दिया.और फ़िर क्या ग़लत कहा उन्होंने?जब ऐसे हमारी बात नहीं मानी जायेगी तो अपनी चीज तो छीन कर ही लेनी होगी न.यही सोचकर मैं अपने भाइयों के लिए दूसरे भाइयों का खून बहाता गया ..और फंसता गया एक अंतहीन दलदल में.जिसका न कोई आदि था न अंत।
और कल जो कुछ हुआ लगभग १० सालों बाद उसने मुझे अन्दर तक हिला डाला. कल हमने पाकिस्तान में ही रह रहे गोरों पर चढाई करने की ठानी थी.सब कुछ ठीक चल रहा था कि अचानक मेरी निगाहें एक छोटे लड़के पर टिक गयीं.जिसके अम्मी अब्बू हमारी गोलियों के शिकार हो चुके थे.और मेरे जेहन में घूम गया वो दिन जब मेरे अब्बू अम्मी को इन्हीं आतंकवादियों ने गोलियों से छलनी कर दिया था.उस लड़के की आँखों में मुझे वही खौफ नजर आया जो अबसे बरसों पहले मेरी आँखों में उन दरिंदों को देख कर पैदा हुआ था.उसकी लाचार पर तीखी निगाहों ने मुझे अन्दर तक झकझोर दिया.सैकडों सवाल पूछ डाले उसकी खौफजदा आँखों ने मुझसे ..बिना कुछ मुझसे बोले हुए ही…क्यों मारा तुमने इन्हें?क्या बिगाडा था मैनें तुम्हारा..?क्यों बनाया तुमने मुझे अनाथ?....अब क्या तुम मुझे भी मारोगे या अपनी ही तरह दरिन्दगी का खेल खेलने वाला आतंकवादी बनाओगे?बोलो है कोई माकूल जवाब तुम्हारे पास..?
और इन सवालों का मेरे पास कोई भी माकूल जवाब न उस वक्त था न ही आज है.आज मैंने आपको यही बताने के लिए कलम उठाई है कि मैं उन सब लोगों का गुनाहगार हूँ जिनकी जिंदगियाँ मैंने उजाड़ी.जिनके बसे बसाये आशियानों को मैंने तबाह किया.जिन बच्चों को मैंने अनाथ कर दिया..जिन मां बाप को मैंने बेऔलाद कर दिया..जिन औरतों को मैंने बेवा बना डाला..कहाँ तक गिनाऊँ मेरे गुनाहों की फेहरिस्त बड़ी लम्बी है.अल्लाह
..परवरदिगार मुझे शायद कभी नहीं बख्शेगा.मैं उन लोगों को वापस भी तो नहीं ला सकता…बस पछता सकता हूँ.ताउम्र …लेकिन ताउम्र क्यों मेरे जेहन में तो कुछ और ही चल रहा है…॥
मैं आज ही ख़ुद को ख़तम करने जा रहा हूँ.कल का सूरज मैं नहीं देख सकूंगा.इसीलिये अपनी ये पूरी कहानी आपके सामने लिख रहा हूँ…खुदा को हाजिर नाजिर मान कर.क्या पता इसी से बहुत सारे आशियाने उजड़ने से बच जायें..क्या मालूम मेरी इस कुर्बानी से खुश होकर मेरे जैसे बहके बन्दों को सही राह दिखाए.
मैं अपनी इस कहानी से सिर्फ़ और सिर्फ़ ये बताना चाहता हूँ कि हम लोग जानबूझ कर आतंकवादी नहीं बनते.या तो इसके लिए हालात जिम्मेदार होते हैं या लोग.मेरे ऊपर तो पहली ही बात लागू होती है .वैसे दूसरी बात भी काफी हद तक सही है.और एक बार इस दलदल में फंस जाने के बाद हमारा अंजाम क्या होगा ये किसी को नहीं पता रहता.आपको मै अपनी बात कैसे समझाऊँ?हाँ ,एक उदाहरण से आप समझ सकते हैं.अगर आप को बिना खिड़की और दरवाजे वाले एक कमरे में बंद कर दिया जाय तो आपकी हालत क्या होगी?पूरी दुनिया से आप कट जायेंगे.जब आपसे कहा जाएगा कि बाहर दिन है तो आप यही मानेंगे कि बाहर दिन है..जब आपसे कहा जाएगा कि बाहर रात है तो आप यही मानेंगे कि बाहर रात है.क्योंकि तब आपके पास उस बात को कुबूल करने का और चारा भी नहीं रहेगा जिसके जरिये आप बाहर की सच्चाई जान सकेंगे.ठीक यही सब मेरे साथ भी हुआ..और जब तक मैं बाहर की दुनिया से जुड़ने के काबिल हुआ बहुत देर हो चुकी थी।
खैर …मुझे जो भी कहना था मैंने कह दिया.अब मै आखिरी बार अपने हमसफ़र इस असलहे को छूने जा रहा हूँ.क्या पता था कि मुझे अपने जिस हमसफ़र पर इतना गुमान था वही मुझे भी मौत से रूबरू कराएगा.अल्लाह से कैसे और क्या कहूं…हो सके तो आप लोग मेरे लिए अपने नफरत के जज्बात को थोड़ा ..बस थोड़ा कम कर दीजियेगा…शायद वही मुझे एक सकून की मौत दे सके.......................................................................
……………………………………………………………………………….अलविदा…………………………………………………………………….
कहानीकार
:नेहा शेफाली
झरोखा पर पूनम द्वारा प्रकाशित

बुधवार, 15 अप्रैल 2009

कहानी--गुनाह कुबूल (भाग १)




“और ये मैंने पूरा किया पचास!”चक्कर में पड़ गए न….नहीं नहीं ….मुझे क्रिकेटर न समझिये…..हम्म्म…तो फ़िर क्या समझेंगे?चलिए मैं आप लोगो की उलझन को सुलझाता हूँ.मैं हर समाज,हर देश का एक घृणित मानव,एक पत्थर दिल इंसान हूँ जो हर रोज़ अपने “खाते” में अनगिनत बाद-दुआएं डालता है-एक आतंकवादी .क्या हुआ??मेरा नाम सुनते ही पसीना छूट गया.. या आपने मुझे कोसना शुरू कर दिया??खैर!!आप चाहे जो करें या सोचें मुझे इसकी परवाह नहीं है….मै आपसे नही डरता….
अब इन सब बातों को छोडिये.आपके मन में अब ये जरूर आ रहा होगा की ग्रेनेड और ए के -४७ चलाने वाले को कलम पकड़ने की क्या जरूरत पड़ गयी.तो ये बताते हुए मुझे थोड़ी शर्म आ रही है कि जो काम मैंने अपनी अब तक की जिंदगी में नही किया उस काम को करने के लिए मुझे इसका सहारा लेना पड़ रहा है.मैंने कभी किसी काम को करने के लिए सफाई नही दी. इसलिए मुझे इसकी आदत नही रही.सफाई इसलिए नही दी क्योंकि मुझसे कोई पूछने वाला नही था……रुकिए!मै आपको अपनी पूरी कहानी सुनाता हूँ।
दरअसल जब मै पैदा हुआ था तो अल्लाह ने मुझे ये कह के नहीं भेजा था कि “जा,तू एक आतंकवादी है. जिससे सारी कायनात नफरत करेगी.”हमें भी छोटेपन में अम्मी अब्बू की गोदी,प्यार दुलार और किस्से नसीब होते थे.रमजान पर मुझे भी सिवैयां दी जाती थी. और मै मेले भी जाता था. अपने रंग बिरंगे पठानी सूटों में.
पर वह खौफनाक रात मै नहीं भूल सकता.उस समय जेहाद के नाम पर कई संगठन जगह-जगह धार्मिक उन्माद बाँट रहे थे .बड़े बुजुर्गों से उनके बेटों को जेहादी बनाने की गुजारिश कर रहे थे.जो राजी खुशी मान गया तो ठीक …नहीं तो…।
ऐसी ही एक खौफनाक रात थी वह .मै अम्मी अब्बू के बगल में सोया था. उसी समय दरवाज़े की सांकल बजी.अब्बू के दरवाज़ा खोलते ही कई काले साये एक साथ मेरे घर में घुस आये.पहले उन सबने अब्बू को पीटा फ़िर अपनी काली बंदूकों से उन्हें छलनी कर दिया.अम्मी को भी उन्होंने……अम्मी अब्बू का जुर्म सिर्फ़ इतना था कि उन्होंने अपनी औलाद यानी मुझे जेहादियों को सुपुर्द नहीं किया था…गोलियों की बरसात ..अम्मी अब्बू के खून में नहाये जिस्म….मै ज्यादा देर वो खौफ़नाक मंजर न देख सका………बस मुझे इतना याद है कि एक दरिन्दे ने मुझे खींच कर उठा लिया था…
और फ़िर जब मेरी आंख खुली तो मैंने ख़ुद को उन्ही काले सायों के साथ एक अंधेरी जगह पे पाया.उनकी काली डरावनी और खौफनाक आँखों ने मेरी चीखों को हलक में ही फंसा दिया…।
बस,उस दिन से जहाँ तक मुझे याद है मेरे संगी साथी ये तमंचे और बम-गोले ही बन गए हैं और अब इनके बिना मै ख़ुद को अकेला पाता हूँ.मेरी हदें इसी से शुरू होती हैं और इसी पे ख़त्म .रोएँ तो इनके साथ और हंसें तो इनके साथ. अल्लाह को याद करें तो भी इनके साथ.उसी की तो रहमत है जो मै अज भी जिन्दा हूँ.
खैर जब मै बड़ा हुआ तो इन लोगों ने मुझे एक नाम दिया-अल जफारी..और मैंने अपना पहला आतंकवादी हमला किया था अट्ठारह बरस की उम्र में अमरीका के एक छोटे से शापिंग मॉल में .इंशा अल्लाह !! मेरा तो हाथ ही इस बात की गवाही नहीं दे रहा था पर वो तो खुदा भला करे इस्मत भाई का जिन्होंने ग्रेनेड मेरे हाथ से लेकर एक झटके में फेंक दिया नहीं तो……।
वो खूनी मंजर आज भी याद है मुझे.हर तरफ़ खून से लथपथ लाशें पडी थीं.मेरे हलक से इतने बेगुनाहों को बेवजह मौत देने की बात नीचे नहीं उतर रही थी.वापस आते ही मुझे बड़े भाइयों ने बहुत फटकार लगाई.बहुत गालियाँ सुनाईं.फ़िर काफी अरसे के बाद मुझे अशरफ भाई ने समझाया-“”जफारी तेरा काम इन लोगो को देखकर हमदर्दी जाताना नहीं है.इन गोरों ने हमारे मुल्क पे फतह हासिल करने के लिए हमारे भाइयों की जानें ली हैं.तुम्हारे जैसे बन्दों को अनाथ कर दिया.हमारे मुल्क के लोगों पर सैकड़ों जुल्म ढाए.और सिर्फ़ अमेरिका ही नहीं हिंदुस्तान ने भी हमें काफी नुकसान पहुँचाया है.कश्मीर ..जिसे कि हमारे मुल्क का हिस्सा होना चाहिए.. जहाँ पर हमारे अपने भाई रहते हैं ,इन हिन्दुस्तानियों ने उस पर भी अपना कब्ज़ा कर लिया है॥”
और अशरफ भाई ने इन बातों को मेरे जेहन में अच्छी तरह दफना दिया .इतने सालों तक इन भाइयों के बीच यही सब सुना तो इसे ही सच मानता रहा.और वैसे भी हमारे अन्दर कुछ भी सोचने की ताकत को इन्होने सालों पहले ख़तम कर दिया था.और अब जब अल्लाह ने मुझे सही रास्ता दिखाया है तो काफी देर हो चुकी है.आज अगर मै जाकर उन लोगों से बोलूँ कि मैं एक आतंकवादी था पर अब अपने गुनाह कबूल करके अपने मुल्क के लोगों का भला करना चाहता हूँ तो मेरी बात पे विश्वास करना तो दूर ,देखते ही मुझे गोलियों से छलनी कर दिया जाएगा. इसलिए अब यहाँ इन लोगों के साथ ही रहकर मुझे अपनी बाकी ज़िंदगी काटनी है।
जब मै २०-२१ की उम्र में था तो बहुत जोश से लोगों को उड़ाता था. और इसमें बहुत फख्र होता था मुझे.मेरे साथ के भाई भी मेरा जोश बढाते थे.हौसला अफजाई करते थे. पर एक बार जब मैंने एक लाचार बूढी पर अपनी बन्दूक तान दी तब मेरे ईमान ने मुझे बहुत धिक्कारा.क्या कर रहा है जफारी? क्या इन्हीं बूढे बेबसों का खून बहाना ही जेहाद है?क्या इसीलिये तुझे अल्लाहताला ने इस धरती पर भेजा है?...काफी देर तक मैं जेहाद ..इस्लाम..अल्लाह और उस बूढी की बेबस खौफजदा आँखों में उलझा रहा.मेरा पूरा जिस्म पसीने से तरबतर हो गया था.हाथ की उंगलियाँ ऐ.के.४७ के ट्रिगर पर कसी थीं ..पर मेरे हाथ कांप रहे थे..जेहन में एक अलग ही जेहाद शुरू हो चुका था…शायद मैं उस बूढी की बेबस आँखों से हार भी जाता .पर ठीक..ठीक उसी वक्त जब उस बूढी ने मुझे एक निर्दयी पत्थरदिल आतंकवादी कहा तो …मेरे जिस्म में लावा भर गया..जेहन में बम फूटने लगे.और तैश में आकर मैंने अपनी गन का फायर उसके ऊपर झोंक दिया.बूढी औरत का बेजान जिस्म मेरे सामने पड़ा था..और मैं हांफ रहा था……………
(क्रमश:)


कहानीकार:नेहा शेफाली
पूनम द्वारा प्रकाशित.

शुक्रवार, 10 अप्रैल 2009

ख्वाब सुनहरे


जुगनू सी चमकती आँखों में
कई ख्वाब सुनहरे सजने लगे
अमर बेल से मन के अन्दर
धीरे धीरे पनपने लगे।

फ़िर चाहत पूरा करने की
उमंगें भी उडानें भरने लगीं
एक समय ऐसा आया
जब सच को हम भी समझने लगे।

सपने जो संजोये आँखों ने
वो बनने और बिखरने लगे
सपने और हकीकत में
अन्तर को बयां वो करने लगे।

ठानी हमने भी अपनी
किस्मत को अजमाने की
मेरा जुनूँ ज्यों बढ़ता गया
हकीकत में सपने बदलने लगे।

सपने तो सपने होते हैं
इस सच को हम झुठलाने लगे
पूरे होते हैं ख्वाब तभी
जब रंग मेहनत के भरने लगें।
०००००००००
पूनम

शुक्रवार, 3 अप्रैल 2009

बात


बात ही बात में,बात शुरू होती है,
बात ही बात में,बात निकल जाती है,
बात ही बात में, सुबह हो जाती है,
बात ही बात में,शाम हो जाती है।

बात ही बात में,सवाल हो जाता है,
बात ही बात में, बवाल हो जाता है,
बात ही बात में, सैलाब बह जाता है,
बात ही बात में, हिसाब हो जाता है।

बात ही बात में,अंदाज बदल जाते हैं,
बात ही बात में,अल्फाज बदल जाते हैं,
बात ही बात में ,बात छुपी होती है,
बात ही बात में,राज खुल जाते हैं.

बात ही बात में,ईमान बदल जाता है,
बात ही बात में,इन्सान बदल जाता है,
बात ही बात में,बात बन जाती है,
बात ही बात में,बात बिगड़ जाती है।

बात ही बात में,क्या बात करें बात की,
बात ही बात में, इतिहास बदल जाता है।
०००००००००००००
पूनम