रविवार, 27 मार्च 2011

रुसवाई


जमाने ने रुसवा किया है मगर

हमें उनसे कोई शिकायत नहीं है।

बद अच्छा बदनाम बुरा

ये जुमला उन्हीं की अमानत रही है।

कदम दर कदम हमें धोखा दिया

ये हमेशा से उनकी फ़ितरत रही है।

न समझा जमाने ने मुझको जरा भी

न ही समझने कि उसे फ़ुर्सत रही है।

जहां में अकेले हमीं तो नहीं

जिसे दर्द सहने की आदत नहीं है।

शिकवा करे किसी से भी क्यों

जब खुदा की ही हम पर इनायत नहीं है।

000

पूनम

मंगलवार, 15 मार्च 2011

मन की व्यथा


इधर चार पांच दिनों से कुछ लिखने का मन नहीं कर रहा था।जापान में हुयी तबाही प्रकृति की विनाशकारी लीला,उस पर उसका भयानक ताण्डव शायद जेहन से उतर ही नहीं रहा है। ऐसा लगता है जैसे दिमाग ने काम करना बंद कर दिया है। समाचार पत्रों और टी वी पर दिखाये जाने वाले महाविनाश का दृश्य आंखों से हट ही नहीं रहा है। मन बहुत बेबस बेचैन और अपने आप को बहुत लाचार समझ रहा है।

क्या अपने हाथ में कुछ भी नहीं है? हम क्या केवल देखने और सुनने के लिये ही रह गये हैं। जो लाखों लोग सुनामी की लहरों में खो गये,शहर के शहर को प्रकृति ने अपने कोप का भाजन बना लिया जो बचे वो भी अपने अपने प्रिय जनों से बिछड़ बिखर गये। किसी को किसी के बारे में कुछ नहीं पता।

हालां कि प्रकृति के प्रलयंकारी रूप से हम आप भी सुरक्षित नहीं हैं। ये जिन्दगी किसी की अपनी नहीं है। कभी भी कहीं भी कुछ भी हो सकता है पर जब तक सांस है तब तक आस है। इसी उम्मीद पर लोग जीते भी हैं। आज हम अपने अपने घरों में बैठ कर आराम से खाना खा रहे हैं,टी वी पर न्यूज व सीरियल देखने में लगे हैं।

पर हर कौर गले में अटकता हुआ सा महसूस होता है। सच मानिये जब भी खाना सामने आता है वो तबाही का मंजर किसी शूल की भांति दिल में चुभ सा जाता है।और यह तबाही बर्बादी अभी भी खत्म होने का नाम नहीं ले रही है। मन इतना अशान्त हो गया है कि कुछ भी अच्छा नहीं लगता । पर मन को कैसे समझाये कि जो हर वक्त वहीं का चक्कर लगाता रहता है। बस आज आपसे मन की व्यथा बांटने का मन हुआ और लिखने बैठ गयी।

सांई नाथ के आगे जब भी हाथ जोड़ती हूं दिल से यही प्रार्थना करती हूं कि हे सांई बाबा जो भूकंप और सुनामी की लहरों में समा गये उनकी अत्मा को शान्ति देना।जो अनाथ बेघर और अपना सब कुछ गंवा कर बच गये हैं उनको भी शान्ति दो। धैर्य के साथ इन विकट परिस्थितियों का सामना करने का संबल दो । हे प्रभु इन सबके साथ हमेशा अपने आशीष के हाथ रखना। इस वक्त तुम्हारे सहारे से बढ़ कर कोई दूसरा नहीं दिखता। हम सबको तुम्हारे सहारे की जरूरत है।

कुछ पंक्तियाँ…

प्रकृति अपना विनाशकारी रूप है दिखला रही

कभी भूकंप,कभी सुनामी बन सब कुछ है निगल रही

कितने शहर,गाँव इसके आगोश में समा गये

अपने दूजे सब बिखर गये कितने…

गिनती कोई रही नहीं।

जुदा हुई आँखें

खोई खोई सी दिख रही…

जीने को अब बचा क्या

शायद साँसें यही हैं कह रहीं।

लेकिन प्रकृति का तो तांडव

अभी भी बरकरार है

कितने कहर और ढायेगी

किसी को कुछ पता नहीं।

फ़िर भी आलम समाज का देखिये

उसपर जैसे असर नहीं

कुछ चेते, फ़िर भी अभी

कुछ की आँखें बन्द पड़ीं।

किसी की सत्ता में जाँ है

तो कोई कुर्सी के है पीछे पड़ा

दुराचार और भ्रष्टाचार में

अब भी कोई कमी नहीं।

हैवानों की हैवानियत में

कोई फ़र्क पड़ा नहीं

एक तरफ़ प्रकृति का प्रकोप

तो,इनका कहर भी कम नहीं।

आँखें नम हैं,दिल है रोता

क्यों नहीं समझता अब भी कोई

आओ सबके लिये दुआ करें

जो गये,जिनकी साँसें बची हुईं।

जीवन का भरोसा नहीं

हँस लो,मुस्कुरा लो

अब भी वक़्त है,बंद करो सब

प्रकृति सबक सिखा रही।

000 पूनम

गुरुवार, 10 मार्च 2011

खुशगवार उजाला


उजाले आजकल तुम

कहां खो गये हो

मुंह छुपा कर अपना

किन वादियों में सो गये हो।

दिल के आईने पर भी

है बुराइयों की धूल जम गयी

जो बार बार कोशिश करने

पर भी साफ़ होती नहीं।

आईने पर गर्द

इस तरह बैठ गयी

कि अब कुछ भी साफ़

नजर आता नहीं।

कभी गैर लगे अपने

कभी अपने ही लगते बेगाने

सच क्या है झूठ क्या

ये जानना अब आसां नहीं।

चेहरे पर जो नकाब लगाये

घूमते हैं लोग

उसकी ओट में क्या छुपा है

यह भी नजर आता नहीं।

अंधेरे के सन्नाटे में ही

किसी की चीख दबा दी गयी

यूं सरे आम भी कोई रोशनी

की सही राह देख पाता नहीं।

अब तो निकलो

अपने उजाले की किरणों से

अंधेरे में फ़ैल रही

इंसानियत की कालिमा

को खत्म करो।

आईने पर पड़ी हुयी

मन की गंदगी को

समाज में फ़ैल रही

अमानवीयता तथा

भ्रष्टाचार रूपी धूल की

परत को हटाओ।

दिल पर अपनी चमचमाती

खुशगवार व सुनहरी रंगत

से सबके मन में फ़ैल जाओ

ताकि धूल हटने के बाद

सभी की आंखें खुल सकें

और आईने में सब कुछ

हंसता मुस्कुराता नजर आये।

000

पूनम

शनिवार, 5 मार्च 2011

चींटी की कोशिश






चींटी
चढ़ी पहाड़ पर


फ़िसलती गिरती बार-बार

जितना ही वो कोशिश करती

आ गिरती नीचे धाड़-धाड़ ।


दूर से देख रहा था बंदर

बैठा बैठा डाल पर

देख को चींटी को बेहाल

तरसा उसके हाल पर।


बोला ज़ोर से-ओ नन्हीं चींटी

क्यों करती कोशिश खाली पीली

गिर गयी जो तू नीचे

बचेगी ना फ़िर हड्डी पसली।


चढ़ना छोड़ पहाड़ पे तू

ये तेरे बस की बात नहीं

पहाड़ पे यूँ ही चढ़ जाना

इतना है आसान नहीं।


चींटी बोली –“बंदर भैया

क्यों मेरी हिम्मत गिराते हो?

कोशिश से ही मिलती मंज़िल

क्या तुम ये नहीं जानते हो?


बंदर बोला-कर लो कर लो

कोशिश चाहे लाखों बार

हाथ ना आयेगी मंज़िल

चाहे आज़मा लो फ़िर एक बार।


सुन चींटी को आया जोश

बोली अब तो ज़रूर चढ़ूँगी

चाहे जां चली ही जाये

चढ़ कर ही मैं दम लूँगी।


आखिर कोशिश दम लाई

चींटी खुशी से चिल्लाई

चढ़ी पहाड़,मैं जीत गयी

देख लिया बंदर भाई!


बंदर ने खुश हो दी बधाई

बात पते की तूने बताई

कोशिश नहीं जाती बेकार

समझ में मेरे अब आयी।

पूनम