शुक्रवार, 1 मई 2015

अरे ओ मजदूर

(फ़ोटो-गूगल से साभार)
अरे मजदूर, अरे मजदूर
तुम्हीं से है दुनिया का नूर
फ़िर क्यों तुम इतने मजबूर।

अपने हाथों के गट्ठों से
रचते तुम हो सबका बसेरा
पर हाय तुम्हें सोने को तो बस
मिला एक है खुला आसमां
अरे मजदूर, अरे मजदूर।
तुम हो क्यों इतने मजबू्र।

बारिश,धूप कड़ी सर्दी में
तन पर वही पुरानी कथरी
बुन बुन कर दूजों के कपड़े
बुझती है नयनों की ज्योति
अरे मजदूर, अरे मजदूर।
तुम हो क्यों इतने मजबू्र।

अनाज भरे बोरे ढो ढो कर
भरते जाने कितने गोदाम
फ़िर भी दोनो वक्त की रोटी
तुम्हीं को क्यूं ना होती नसीब
अरे मजदूर,अरे मजदूर।
तुम हो क्यों इतने मजबू्र।
0000
पूनम श्रीवास्तव



6 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

जय मजदूर

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (02-05-2015) को "सारी दुनिया का बोझ हम उठाते हैं" (चर्चा अंक-1963) पर भी होगी।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
श्रमिक दिवस की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
---------------

कविता रावत ने कहा…

बहुत बढ़िया
मजदूर सबके पास
सबसे दूर
कितने मजबूर!

रचना दीक्षित ने कहा…

श्रमिक दिवस की हार्दिक शुभकामनायें.
सुंदर कविता प्रस्तुत की इस अवसर पर. बधाई स्वीकारें पूनम जी.

दिगम्बर नासवा ने कहा…

श्रमिक दिवस पर सार्थक भाव पूर्ण रचना ...

जीवन और जगत ने कहा…

बढि़या। आपकी इस रचना को पढ़कर अपनी ही ग़ज़ल की कुछ पंक्तियां याद आ रही हैं- मुझको बता के कायदे उपवास के हज़ार, मेरी फसल की दावतें उड़ा रहे हैं लोग।