पितृ दिवस पर आप सभी को हार्दिक शुभकामनाएं। आज में आपको पढ़वा रही हूं प्रदीप सौरभ की एक बहुत भावनात्मक कविता।
पिता हो गये मां
पिता दहा्ड़ते
मेरा विद्रोह कांप
जाता
मां शेरनी की तरह
गुत्थमगुत्था करती
बच्चों को बचाती
दुलराती
पुचकारती
मां की मृत्यु के बाद
पिता मां हो गये।
पिता मर गये और मां ने नया अवतार ले लिया
सौ साल पार कर
चुकने के बाद भी
वे खड़े रहते
अड़े रहते
वाकर पर चलते
फ़ुदक फ़ुदक
सहारे पर उन्हें
गुस्सा आता
वे लाचारगी से
डरते।
कभी-कभी अपने विद्रोह पर खिसियाता मैं
क्षमाप्रार्थी के
तौर पर प्रस्तुत होता
पिता बस मुस्कुरा
देते
अश्रुधारा बह उठती
पिता मां की तरह
सहलाते।
फ़िर एक दिन वे मां
के पास चले गये
उनके अनगिनत पुत्र
पैदा हो गये
कंधा देने की बारी
की प्रतीक्षा ही करता रहा मैं
और वे मिट्टी में
समा गये।
अक्सर स्मृतियों
के झोंके आते
गाहे-बगाहे
रात-रात सोने न देते
विद्रोह और
पितृत्व की मुठभेड़ में
पितृत्व बार बार
जीतता
निरर्थक विद्रोह
भ्रम है और पितृत्व सत्य।
पिता मैं भी बना
दो बेटियों का
पिता क्या होते
हैं तब यह मैंने जाना।
पिता बरगद होते
हैं
पिता पहाड़ होते
हैं
पिता नदी होते हैं
पिता झरने होते
हैं
पिता जंगल होते
हैं
पिता मंगल होते
हैं
पिता कलरव होते
हैं
पिता किलकारी होते
हैं
पिता धूप और छांव
होते हैं
पिता बारिश में छत
होते हैं
पिता दहाड़ते हैं
तो शेर होते हैं।
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प्रदीप सौरभ:
हिन्दी के चर्चित
कवि,पत्रकार और लेखक। मुन्नी मोबाइल उपन्यास काफ़ी चर्चित।“तीसरी ताली”,” “देश भीतर देश” तथा “और बस तितली”
उपन्यासों के साथ 2014 में नेशनल बुक ट्रस्ट से विज्ञापन
और इलेक्ट्रानिक माधयमों पर केन्द्रित पुस्तक
“भारत में विज्ञापन”।कानपुर में जन्म।परन्तु साहित्यिक यात्रा की शुरुआत इलाहाबाद से। कलम के साथ ही कैमरे की
नजर से भी देश दुनिया को अक्सर देखते हैं।पिछले 35 सालों में कलम और कैमरे की यही जुगलबन्दी उन्हें खास बनाती
है।गुजरात दंगों की बेबाक रिपोर्टिंग के लिये पुरस्कृत। लेखन के साथ ही कई
धारावाहिकों के मीडिया सलाहकार।
8 टिप्पणियां:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (20-06-2016) को "मौसम नैनीताल का" (चर्चा अंक-2379) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आभार
http://hradaypushp.blogspot.in/2009/11/gagan.html
बहुत संवेदनशील ... पिता की मूर्ती आँखों के सामने आ जाती है ...
पिता बरगद होते हैं
पिता पहाड़ होते हैं
पिता नदी होते हैं
पिता झरने होते हैं
पिता जंगल होते हैं
पिता मंगल होते हैं
पिता कलरव होते हैं
पिता किलकारी होते हैं
पिता धूप और छांव होते हैं
पिता बारिश में छत होते हैं
पिता दहाड़ते हैं तो शेर होते हैं।
इतनी सुंदर कविता पढवाने का आभार।
सटीक कहा आपने . माँ के बाद पिता माँ बन जाते है भावपूर्ण रचना
पितृत्व को परिभाषित करना संभव नहीं - बाहरी आवरण तले कितना-कुछ समाया है यह समय आने पर ही मालूम पड़ता है .
बहुत सुन्दर रचना है
मै एक चिकित्सक हूं मेरी रचनाये चिकित्सा सम्बन्धित विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती है । हमने एक अभियान भी छेड रखा है जिसमें नि:शुल्क प्रकृतिक चिकित्सा का प्रशिक्षण मेल सेवा से देते है ताकि ऐसे व्यक्ति अपनी चिकित्सा स्वंम घर बैठे कर सके
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