बुधवार, 15 अप्रैल 2009

कहानी--गुनाह कुबूल (भाग १)




“और ये मैंने पूरा किया पचास!”चक्कर में पड़ गए न….नहीं नहीं ….मुझे क्रिकेटर न समझिये…..हम्म्म…तो फ़िर क्या समझेंगे?चलिए मैं आप लोगो की उलझन को सुलझाता हूँ.मैं हर समाज,हर देश का एक घृणित मानव,एक पत्थर दिल इंसान हूँ जो हर रोज़ अपने “खाते” में अनगिनत बाद-दुआएं डालता है-एक आतंकवादी .क्या हुआ??मेरा नाम सुनते ही पसीना छूट गया.. या आपने मुझे कोसना शुरू कर दिया??खैर!!आप चाहे जो करें या सोचें मुझे इसकी परवाह नहीं है….मै आपसे नही डरता….
अब इन सब बातों को छोडिये.आपके मन में अब ये जरूर आ रहा होगा की ग्रेनेड और ए के -४७ चलाने वाले को कलम पकड़ने की क्या जरूरत पड़ गयी.तो ये बताते हुए मुझे थोड़ी शर्म आ रही है कि जो काम मैंने अपनी अब तक की जिंदगी में नही किया उस काम को करने के लिए मुझे इसका सहारा लेना पड़ रहा है.मैंने कभी किसी काम को करने के लिए सफाई नही दी. इसलिए मुझे इसकी आदत नही रही.सफाई इसलिए नही दी क्योंकि मुझसे कोई पूछने वाला नही था……रुकिए!मै आपको अपनी पूरी कहानी सुनाता हूँ।
दरअसल जब मै पैदा हुआ था तो अल्लाह ने मुझे ये कह के नहीं भेजा था कि “जा,तू एक आतंकवादी है. जिससे सारी कायनात नफरत करेगी.”हमें भी छोटेपन में अम्मी अब्बू की गोदी,प्यार दुलार और किस्से नसीब होते थे.रमजान पर मुझे भी सिवैयां दी जाती थी. और मै मेले भी जाता था. अपने रंग बिरंगे पठानी सूटों में.
पर वह खौफनाक रात मै नहीं भूल सकता.उस समय जेहाद के नाम पर कई संगठन जगह-जगह धार्मिक उन्माद बाँट रहे थे .बड़े बुजुर्गों से उनके बेटों को जेहादी बनाने की गुजारिश कर रहे थे.जो राजी खुशी मान गया तो ठीक …नहीं तो…।
ऐसी ही एक खौफनाक रात थी वह .मै अम्मी अब्बू के बगल में सोया था. उसी समय दरवाज़े की सांकल बजी.अब्बू के दरवाज़ा खोलते ही कई काले साये एक साथ मेरे घर में घुस आये.पहले उन सबने अब्बू को पीटा फ़िर अपनी काली बंदूकों से उन्हें छलनी कर दिया.अम्मी को भी उन्होंने……अम्मी अब्बू का जुर्म सिर्फ़ इतना था कि उन्होंने अपनी औलाद यानी मुझे जेहादियों को सुपुर्द नहीं किया था…गोलियों की बरसात ..अम्मी अब्बू के खून में नहाये जिस्म….मै ज्यादा देर वो खौफ़नाक मंजर न देख सका………बस मुझे इतना याद है कि एक दरिन्दे ने मुझे खींच कर उठा लिया था…
और फ़िर जब मेरी आंख खुली तो मैंने ख़ुद को उन्ही काले सायों के साथ एक अंधेरी जगह पे पाया.उनकी काली डरावनी और खौफनाक आँखों ने मेरी चीखों को हलक में ही फंसा दिया…।
बस,उस दिन से जहाँ तक मुझे याद है मेरे संगी साथी ये तमंचे और बम-गोले ही बन गए हैं और अब इनके बिना मै ख़ुद को अकेला पाता हूँ.मेरी हदें इसी से शुरू होती हैं और इसी पे ख़त्म .रोएँ तो इनके साथ और हंसें तो इनके साथ. अल्लाह को याद करें तो भी इनके साथ.उसी की तो रहमत है जो मै अज भी जिन्दा हूँ.
खैर जब मै बड़ा हुआ तो इन लोगों ने मुझे एक नाम दिया-अल जफारी..और मैंने अपना पहला आतंकवादी हमला किया था अट्ठारह बरस की उम्र में अमरीका के एक छोटे से शापिंग मॉल में .इंशा अल्लाह !! मेरा तो हाथ ही इस बात की गवाही नहीं दे रहा था पर वो तो खुदा भला करे इस्मत भाई का जिन्होंने ग्रेनेड मेरे हाथ से लेकर एक झटके में फेंक दिया नहीं तो……।
वो खूनी मंजर आज भी याद है मुझे.हर तरफ़ खून से लथपथ लाशें पडी थीं.मेरे हलक से इतने बेगुनाहों को बेवजह मौत देने की बात नीचे नहीं उतर रही थी.वापस आते ही मुझे बड़े भाइयों ने बहुत फटकार लगाई.बहुत गालियाँ सुनाईं.फ़िर काफी अरसे के बाद मुझे अशरफ भाई ने समझाया-“”जफारी तेरा काम इन लोगो को देखकर हमदर्दी जाताना नहीं है.इन गोरों ने हमारे मुल्क पे फतह हासिल करने के लिए हमारे भाइयों की जानें ली हैं.तुम्हारे जैसे बन्दों को अनाथ कर दिया.हमारे मुल्क के लोगों पर सैकड़ों जुल्म ढाए.और सिर्फ़ अमेरिका ही नहीं हिंदुस्तान ने भी हमें काफी नुकसान पहुँचाया है.कश्मीर ..जिसे कि हमारे मुल्क का हिस्सा होना चाहिए.. जहाँ पर हमारे अपने भाई रहते हैं ,इन हिन्दुस्तानियों ने उस पर भी अपना कब्ज़ा कर लिया है॥”
और अशरफ भाई ने इन बातों को मेरे जेहन में अच्छी तरह दफना दिया .इतने सालों तक इन भाइयों के बीच यही सब सुना तो इसे ही सच मानता रहा.और वैसे भी हमारे अन्दर कुछ भी सोचने की ताकत को इन्होने सालों पहले ख़तम कर दिया था.और अब जब अल्लाह ने मुझे सही रास्ता दिखाया है तो काफी देर हो चुकी है.आज अगर मै जाकर उन लोगों से बोलूँ कि मैं एक आतंकवादी था पर अब अपने गुनाह कबूल करके अपने मुल्क के लोगों का भला करना चाहता हूँ तो मेरी बात पे विश्वास करना तो दूर ,देखते ही मुझे गोलियों से छलनी कर दिया जाएगा. इसलिए अब यहाँ इन लोगों के साथ ही रहकर मुझे अपनी बाकी ज़िंदगी काटनी है।
जब मै २०-२१ की उम्र में था तो बहुत जोश से लोगों को उड़ाता था. और इसमें बहुत फख्र होता था मुझे.मेरे साथ के भाई भी मेरा जोश बढाते थे.हौसला अफजाई करते थे. पर एक बार जब मैंने एक लाचार बूढी पर अपनी बन्दूक तान दी तब मेरे ईमान ने मुझे बहुत धिक्कारा.क्या कर रहा है जफारी? क्या इन्हीं बूढे बेबसों का खून बहाना ही जेहाद है?क्या इसीलिये तुझे अल्लाहताला ने इस धरती पर भेजा है?...काफी देर तक मैं जेहाद ..इस्लाम..अल्लाह और उस बूढी की बेबस खौफजदा आँखों में उलझा रहा.मेरा पूरा जिस्म पसीने से तरबतर हो गया था.हाथ की उंगलियाँ ऐ.के.४७ के ट्रिगर पर कसी थीं ..पर मेरे हाथ कांप रहे थे..जेहन में एक अलग ही जेहाद शुरू हो चुका था…शायद मैं उस बूढी की बेबस आँखों से हार भी जाता .पर ठीक..ठीक उसी वक्त जब उस बूढी ने मुझे एक निर्दयी पत्थरदिल आतंकवादी कहा तो …मेरे जिस्म में लावा भर गया..जेहन में बम फूटने लगे.और तैश में आकर मैंने अपनी गन का फायर उसके ऊपर झोंक दिया.बूढी औरत का बेजान जिस्म मेरे सामने पड़ा था..और मैं हांफ रहा था……………
(क्रमश:)


कहानीकार:नेहा शेफाली
पूनम द्वारा प्रकाशित.

3 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

नेहा शेफाली पूनम की कहानी मार्मिक है।
झरोखा पर प्रकाशित कर पढ़वाने के लिए,
धन्यवाद।

Alpana Verma ने कहा…

नेहा जी आप की कहानी में एक व्यक्ति के आतंकवादी बनाने की जो दास्ताँ आप ने खूब लिखी है.कहते भी हैं न जनम सी कोई भी बुरा नहीं होता परिस्तिथियाँ उसे ऐसा बना देती हैं..अगले भाग की प्रतीक्षा rahegi.

Poonam ji dhnywaad is prastuti ke liye.

Manoshi Chatterjee मानोशी चटर्जी ने कहा…

नेहा, तुम्हारी ये कहानी अच्छी लग रही है, मगर कोशिश करो कि क्न्ट्रोवर्शियल टापिक से दूर रहने की। कई बार हमें जिस बात का अनुभव नहीं होता है, हम उस विषय के साथ न्याय नहीं कर पाते हैं।

मानोशी आंटी