बुधवार, 7 सितंबर 2011

सिसकते शब्द



तन्हाई के आलम में रहते रहते

शब्द भी मेरे बिखर के रह गये।

सोच की धरा पर जो भावों के पुल बने मेरे

शब्द पानी पर नदी के उतराते जैसे रह गये।

दरवाजे पर दस्तक से दिल धड़क धड़क उठे

कौन हो सकता है बेवक्त बस लरज के रह गये।

इन्सान को सही इन्सां समझना है बड़ा मुश्किल

मन ही मन में इसका हल ढूंढ़ते रह गये।

भरोसा भी करें तो कैसे और किस पर हम

सफ़ेदपोश में छुपे चेहरे असल दंग हम रह गये।

उड़ान मारते आसमां में देखा जो परिन्दों को

पिंजरे में बन्द पंछी से फ़ड़फ़ड़ा के रह गये।

मत लगाओ बन्दिशें इतनी ज्यादा

हम गुजारिश पर गुजारिशें ही करते रह गये।

सच्चाई को दफ़न होते देखा है हमने

झूठ का डंका बजा पांव जमीं से खिसक गये।

सन्नाटा पसरा रहता सहमी रहती गली गली

हम झरोखे से अपने झांक के ही रह गये।

जल रहे हैं आशियाने हंस रहे हैं मयखाने

सियासती दांव पेंचों में शब्द सिसक के रह गये।

झिलमिलाते तारों संग जो आसमां पे पड़ी नजर

हो खूबसूरत ये जहां भी चाहत लिये ही रह गये।

00000

पूनम

30 टिप्‍पणियां:

केवल राम ने कहा…

जल रहे हैं आशियाने हंस रहे हैं मयखाने
सियासती दांव पेंचों में शब्द सिसक के रह गये।

हर शब्द महत्वपूर्ण भाव संप्रेषित करता है ...आपका आभार

Er. सत्यम शिवम ने कहा…

सच्चाई को दफ़न होते देखा है हमने

झूठ का डंका बजा पांव जमीं से खिसक गये।


सन्नाटा पसरा रहता सहमी रहती गली गली

हम झरोखे से अपने झांक के ही रह गये।

क्या बात है..बहुत सुंदर रचना...लाजवाब।

Dr.Bhawna Kunwar ने कहा…

उड़ान मारते आसमां में देखा जो परिन्दों को

पिंजरे में बन्द पंछी से फ़ड़फ़ड़ा के रह गये।

bahut khub !

Sunil Kumar ने कहा…

उड़ान मारते आसमां में देखा जो परिन्दों को
पिंजरे में बन्द पंछी से फ़ड़फ़ड़ा के रह गये।
हर शेर लाजबाब दाद को मुहताज नहीं आजकल के हालात पर अच्छी नज़र है आपकी हम तो यही कहेंगे बहुत खूब वाह वाह ......

Unknown ने कहा…

सन्नाटा पसरा रहता सहमी रहती गली गली
हम झरोखे से अपने झांक के ही रह गये।

बहुत सुंदर रचना.

आपका अख्तर खान अकेला ने कहा…

bhtrin prstuti ..akhtar khan akela kota rajsthan

Minoo Bhagia ने कहा…

siyasati daanv pech , sach kaha hai poonam

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

एक दूसरे के मनभावों को समझ पाना बड़ा कठिन है।

Satish Saxena ने कहा…

बहुत खूब !
शुभकामनायें आपको !

सदा ने कहा…

बहुत ही सुन्‍दर शब्‍द रचना ।

vandana gupta ने कहा…

सच मे शब्द सिसक रहे हैं…………सुन्दर भाव समन्वय्।

shikha varshney ने कहा…

जल रहे हैं आशियाने हंस रहे हैं मयखाने

सियासती दांव पेंचों में शब्द सिसक के रह गये
शब्द और भाव दोनों बेहतरीन.
बहुत सुन्दर .

Pallavi saxena ने कहा…

इन्सान को सही इन्सां समझना है बड़ा मुश्किल
मन ही मन में इसका हल ढूंढ़ते रह गये।
भरोसा भी करें तो कैसे और किस पर हम
सफ़ेदपोश में छुपे चेहरे असल दंग हम रह गये।
उड़ान मारते आसमां में देखा जो परिन्दों को
पिंजरे में बन्द पंछी से फ़ड़फ़ड़ा के रह गये।

बहुत बढ़िया ...बधाई कभी समय मिले तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है
http://mhare-anubhav.blogspot.com/

रविकर ने कहा…

जात - पांत न देखता, न ही रिश्तेदारी,
लिंक नए नित खोजता, लगी यही बीमारी |

लगी यही बीमारी, चर्चा - मंच सजाता,
सात-आठ टिप्पणी, आज भी नहिहै पाता |

पर अच्छे कुछ ब्लॉग, तरसते एक नजर को,
चलिए इन पर रोज, देखिये स्वयं असर को ||

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S.N SHUKLA ने कहा…

ख़ूबसूरत रचना , सुन्दर प्रस्तुति , धाई आभार

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

जल रहे हैं आशियाने हंस रहे हैं मयखाने

सियासती दांव पेंचों में शब्द सिसक के रह गये।


सच्चाई कहती एक संवेदनशील रचना

Shayar Ashok : Assistant manager (Central Bank) ने कहा…

सच्चाई को दफ़न होते देखा है हमने
झूठ का डंका बजा पांव जमीं से खिसक गये।

सन्नाटा पसरा रहता सहमी रहती गली गली
हम झरोखे से अपने झांक के ही रह गये।

सुन्दर रचना || बहुत खूब ||

ashish ने कहा…

आपकी संवेदनशीलता की प्रतिकृति है ये रचना , आभार .

G.N.SHAW ने कहा…

" सियासती दांव पेंचों में शब्द सिसक के रह गये।"- शव्द को बलवंती करती शब्द ! अतिभाव पूर्ण

बेनामी ने कहा…

"उड़ान मारते आसमां में देखा जो परिन्दों को
पिंजरे में बन्द पंछी से फ़ड़फ़ड़ा के रह गये।"

Banka Ram Choudhary ने कहा…

खूबसूरत सवेंदनशील रचना..

Maheshwari kaneri ने कहा…

जल रहे हैं आशियाने हंस रहे हैं मयखाने
सियासती दांव पेंचों में शब्द सिसक के रह गये।.....बहुत ही सुन्‍दर शब्‍द रचना ।बधाई..

Dr Varsha Singh ने कहा…

मत लगाओ बन्दिशें इतनी ज्यादा
हम गुजारिश पर गुजारिशें ही करते रह गये।


बहुत सुन्दर एवं मर्मस्पर्शी रचना !
हार्दिक शुभकामनायें !

अनामिका की सदायें ...... ने कहा…

bahut aakrosh bhari samvedansheel rachna.

Rachana ने कहा…

sunder bhav
बड़ा मुश्किल मन ही मन में इसका हल ढूंढ़ते रह गये।
भरोसा भी करें तो कैसे और किस पर हम सफ़ेदपोश में छुपे चेहरे असल दंग हम रह गये। उड़ान मारते आसमां में देखा जो परिन्दों को पिंजरे में बन्द पंछी से फ़ड़फ़ड़ा के रह गये।
मत लगाओ बन्दिशें इतनी ज्यादा हम गुजारिश पर गुजारिशें ही करते रह गये।
kya kahne in shbdon ke
rachana

सुमन दुबे ने कहा…

पूनम जी नमस्कार। आपके ब्लाग पर आकर अच्छा लगा। जल रहे हैं आशियाने हंस रहे हैं मयखाने
सियासती दांव पेंचों में शब्द सिसक के रह गये। बहुत सुन्दर लाइनें है।

Udan Tashtari ने कहा…

बहुत बेहतरीन!!

महेन्द्र श्रीवास्तव ने कहा…

कुछ रचनाएं ऐसी होती हैं, जिसे बार बार पढने का मन होता है।

काफी दिनों से आप की कोई खबर नहीं है।

Rakesh Kumar ने कहा…

सन्नाटा पसरा रहता
सहमी रहती गली गली
हम झरोखे से अपने
झांक के ही रह गये।

एक एक शब्द मानो सिसक रहा हो.
अनुपम गहन और मार्मिक प्रस्तुति.
आपके झरोखे का यह दृश्य भी
अदभूत है,दिल को छूता है.

सुन्दर हृदयस्पर्शी प्रस्तुति के लिए आभार.

मेरे ब्लॉग पर आईयेगा.
मुझे आपके ब्लॉग पर आने में देरी हुई
इसके लिए क्षमा चाहता हूँ.

Asha Joglekar ने कहा…

शब्द, उनका हौसला और मजबूरी सब कुछ कहती कविता ।