रविवार, 19 अप्रैल 2009

कहानी --गुनाह कुबूल (भाग २)


आप यकीन मानिये उस पूरी रात मैं चैन से सो न सका.रात भर मेरी आँखों के आगे उस बेबस बुढिया का चेहरा नाचता रहा.मुझे उसकी बेबस ऑंखें घूरती रहीं..कभी वो ऑंखें मेरी अम्मी की आँखों में तब्दील हो जातीं कभी अब्बू की आँखों में.सारी रात मेरे जेहन में अब तक मेरे हाथों मारे गए चेहरे घूमते रहे…और मैं ..जितना ही उनसे बचने की कोशिश करता उतना ही वो चेहरे मेरे जेहन को और झकझोरते रहे…
अगली सुबह जब मैंने अशरफ भाई के सामने अपनी बात रखी तो….चटाक..चटाक…मेरे गालो पर अशरफ भाई की उँगलियों के निशान उभर आये।
‘बड़ा ईमान वाला..हो गया तू. अपने भाइयों से ज्यादा उस बूढी की बातें तुझे टीस रही हैं.अपने भाइयों का हल तुझसे नहीं देखा जाता है? अँधा और बहरा हो गया है क्या?
मैनें अशरफ भाई से माफी मांगी और आगे से गुस्ताखी न होने का भरोसा दिया.और फ़िर क्या ग़लत कहा उन्होंने?जब ऐसे हमारी बात नहीं मानी जायेगी तो अपनी चीज तो छीन कर ही लेनी होगी न.यही सोचकर मैं अपने भाइयों के लिए दूसरे भाइयों का खून बहाता गया ..और फंसता गया एक अंतहीन दलदल में.जिसका न कोई आदि था न अंत।
और कल जो कुछ हुआ लगभग १० सालों बाद उसने मुझे अन्दर तक हिला डाला. कल हमने पाकिस्तान में ही रह रहे गोरों पर चढाई करने की ठानी थी.सब कुछ ठीक चल रहा था कि अचानक मेरी निगाहें एक छोटे लड़के पर टिक गयीं.जिसके अम्मी अब्बू हमारी गोलियों के शिकार हो चुके थे.और मेरे जेहन में घूम गया वो दिन जब मेरे अब्बू अम्मी को इन्हीं आतंकवादियों ने गोलियों से छलनी कर दिया था.उस लड़के की आँखों में मुझे वही खौफ नजर आया जो अबसे बरसों पहले मेरी आँखों में उन दरिंदों को देख कर पैदा हुआ था.उसकी लाचार पर तीखी निगाहों ने मुझे अन्दर तक झकझोर दिया.सैकडों सवाल पूछ डाले उसकी खौफजदा आँखों ने मुझसे ..बिना कुछ मुझसे बोले हुए ही…क्यों मारा तुमने इन्हें?क्या बिगाडा था मैनें तुम्हारा..?क्यों बनाया तुमने मुझे अनाथ?....अब क्या तुम मुझे भी मारोगे या अपनी ही तरह दरिन्दगी का खेल खेलने वाला आतंकवादी बनाओगे?बोलो है कोई माकूल जवाब तुम्हारे पास..?
और इन सवालों का मेरे पास कोई भी माकूल जवाब न उस वक्त था न ही आज है.आज मैंने आपको यही बताने के लिए कलम उठाई है कि मैं उन सब लोगों का गुनाहगार हूँ जिनकी जिंदगियाँ मैंने उजाड़ी.जिनके बसे बसाये आशियानों को मैंने तबाह किया.जिन बच्चों को मैंने अनाथ कर दिया..जिन मां बाप को मैंने बेऔलाद कर दिया..जिन औरतों को मैंने बेवा बना डाला..कहाँ तक गिनाऊँ मेरे गुनाहों की फेहरिस्त बड़ी लम्बी है.अल्लाह
..परवरदिगार मुझे शायद कभी नहीं बख्शेगा.मैं उन लोगों को वापस भी तो नहीं ला सकता…बस पछता सकता हूँ.ताउम्र …लेकिन ताउम्र क्यों मेरे जेहन में तो कुछ और ही चल रहा है…॥
मैं आज ही ख़ुद को ख़तम करने जा रहा हूँ.कल का सूरज मैं नहीं देख सकूंगा.इसीलिये अपनी ये पूरी कहानी आपके सामने लिख रहा हूँ…खुदा को हाजिर नाजिर मान कर.क्या पता इसी से बहुत सारे आशियाने उजड़ने से बच जायें..क्या मालूम मेरी इस कुर्बानी से खुश होकर मेरे जैसे बहके बन्दों को सही राह दिखाए.
मैं अपनी इस कहानी से सिर्फ़ और सिर्फ़ ये बताना चाहता हूँ कि हम लोग जानबूझ कर आतंकवादी नहीं बनते.या तो इसके लिए हालात जिम्मेदार होते हैं या लोग.मेरे ऊपर तो पहली ही बात लागू होती है .वैसे दूसरी बात भी काफी हद तक सही है.और एक बार इस दलदल में फंस जाने के बाद हमारा अंजाम क्या होगा ये किसी को नहीं पता रहता.आपको मै अपनी बात कैसे समझाऊँ?हाँ ,एक उदाहरण से आप समझ सकते हैं.अगर आप को बिना खिड़की और दरवाजे वाले एक कमरे में बंद कर दिया जाय तो आपकी हालत क्या होगी?पूरी दुनिया से आप कट जायेंगे.जब आपसे कहा जाएगा कि बाहर दिन है तो आप यही मानेंगे कि बाहर दिन है..जब आपसे कहा जाएगा कि बाहर रात है तो आप यही मानेंगे कि बाहर रात है.क्योंकि तब आपके पास उस बात को कुबूल करने का और चारा भी नहीं रहेगा जिसके जरिये आप बाहर की सच्चाई जान सकेंगे.ठीक यही सब मेरे साथ भी हुआ..और जब तक मैं बाहर की दुनिया से जुड़ने के काबिल हुआ बहुत देर हो चुकी थी।
खैर …मुझे जो भी कहना था मैंने कह दिया.अब मै आखिरी बार अपने हमसफ़र इस असलहे को छूने जा रहा हूँ.क्या पता था कि मुझे अपने जिस हमसफ़र पर इतना गुमान था वही मुझे भी मौत से रूबरू कराएगा.अल्लाह से कैसे और क्या कहूं…हो सके तो आप लोग मेरे लिए अपने नफरत के जज्बात को थोड़ा ..बस थोड़ा कम कर दीजियेगा…शायद वही मुझे एक सकून की मौत दे सके.......................................................................
……………………………………………………………………………….अलविदा…………………………………………………………………….
कहानीकार
:नेहा शेफाली
झरोखा पर पूनम द्वारा प्रकाशित

7 टिप्‍पणियां:

मोना परसाई ने कहा…

आतंकवादियों के चरित्र को बयाँ करती सामयिक कहानी .

कडुवासच ने कहा…

... जानदार अभिव्यक्ति!!!!!!!

रश्मि प्रभा... ने कहा…

neha ji ki is kahaani me jagruk hone ki pukaar hai...

Alpana Verma ने कहा…

नेहा ,achchee kahani likhi aap ne.badhaayee.
-अंत दुखद था..मगर आत्मग्लानी aur pachtave से भरे उस आतंकवादी से शायद अपने पापों का बोझ उठाया नहीं जा रहा था.

-बहुत सफाई से kahani mein is ke चरित्र ko प्रस्तुत किया गया.
-aap ki agli kahani ka intzaar rahega.

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

कहानी के माध्यम से आतंकवादी बनाने की प्रक्रिया का एक चित्र खींचा है...बहुत सुन्दर पटकथा है, बधाई

sandhyagupta ने कहा…

Kaphi gehra prabhav chodti hai yah kahani.Ise prastut karne ke liye Neha ji aur Poonam ji dono ko badhai.

रवीन्द्र दास ने कहा…

adbhut samsamayik satya.behtar!