मंगलवार, 31 जुलाई 2018

पुस्तक समीक्षा---“मौत के चंगुल में”


(हिन्दी के प्रतिष्ठित बाल साहित्यकार हमारे पिताजी आदरणीय श्री प्रेमस्वरूप श्रीवास्तव जी की आज पुण्य तिथि है।आज 31 जुलाई 2016 को वो हम सभी को छोड़ कर परमपिता के चरणों में समाहित हो गए थे आज वो भौतिक रूप से हमारे बीच उपस्थित नहीं हैं लेकिन उनकी रचनात्मकता तो हर समय हमारा मार्ग दर्शन करेगीमैं आज उनके चर्चित बाल उपन्यास मौत के चंगुल मेंकी बाल साहित्य के प्रतिष्ठित हस्ताक्षर श्री कौशल पाण्डेय जी द्वारा लिखित समीक्षा यहाँ प्रकाशित कर रही हूँसाथ ही बाल साहित्य के सशक्त समीक्षक,आलोचक और कवि डा०सुरेन्द्र विक्रम जी द्वारा लिखित और जनसन्देश टाइम्स में प्रकाशित समीक्षा भी पुनः प्रकाशित कर रहीयही पिता जी के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी )
                                                                     

पुस्तक समीक्षा

लेखक-- कौशल पाण्डेय


मौत के चंगुल में
(बाल उपन्यास)
  लेखक:प्रेम स्वरूप श्रीवास्त
प्रकाशक:
नेशनल बुक ट्रस्ट,इंडिया,नई दिल्ली
                                 बचकर निकलना-मौत के चंगुल से   

     हिन्दी उपन्यासों की तरह हिन्दी बाल उपन्यास भी एक अत्यंत आधुनिक विधा है, हिन्दी बाल उपन्यासों की एक छोटी,पर समृद्धिशील परम्परा होते हुए भी अभी तक बाल उपन्यास न तो लोकप्रिय हो पाए हैं और न ही इनकी कोई विशेष पहचान बन पाई है। इसके पीछे जो कारण नज़र आता है, वह है अर्थशास्त्र की मांग और पूर्ति का सिद्धांत। बाल उपन्यासों की मांग का पक्ष कभी भी अनुकूल नहीं रहा है। बड़ों की तरह बच्चों को हमारे यहां यह अधिकार नहीं रहा कि वे पाठ्यक्रमों से हटकर पढ़ी जाने वाली सामग्री की खरीद स्वयं करें। लेकिन अब स्थितियाँ बदल रही हैं। महानगरों से लेकर छोटे-छोटे शहरों में लगने वाले पुस्तक मेलों में बच्चों की सहभागिता बढ़ी है। उनके लिये अलग से स्टाल होते हैं, जहां वे अपनी रुचि की पुस्तकें क्रय करते हैं। इस बदलाव में नेशनल बुक ट्रस्ट की एक महत्वपूर्ण भूमिका है।

          साहस और रोमांचपूर्ण कथायें बच्चों को सदैव आकर्षित करती रही हैं।ये कथायें बच्चों में एक जिज्ञासा पैदा कर, उनकी रुचि को लगातार बनाए रखकर, उन्हें पढ़ने को तो प्रेरित करती ही हैं, साथ ही उनमें साहस और वीरता का एक ऐसा भाव भी पैदा करती हैं, जिसकी आज इस कठिन समय में उन्हें बेहद ज़रूरत है। हाल ही में नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित वरिष्ठ बाल साहित्यकार प्रेम स्वरूप श्रीवास्तव का बाल उपन्यास मौत के चंगुल में एक ऐसी ही कृति है। इस उपन्यास के माध्यम से लेखक बच्चों को विश्व की एक ऐसी रोमांचकारी यात्रा पर ले जाता है, जहां कदम कदम पर उनका सामना बड़े-बड़े खतरों से होता है और उन खतरों से बच निकलना भी कम रहस्यमय नहीं है।अध्यापक वाटसन एक असामान्य एवं ज़िद्दी व्यक्ति है तो भी परिस्थितियों से हार नहीं मानता है। यही कारण है कि वह बच्चों का एक ऐसा स्कूल चलाता है,जहां लंगड़े,दृष्टिहीन एवं अपंग बच्चों के साथ पशु-पक्षी भी पारिवारिक सदस्यों की तरह रहते हैं।
         अचानक एक दिन उसने एक ऐसा निर्णय लिया, जो सबको आश्चर्य में डाल देता है।लोगों को लगा कि उसकी सनक कहीं बच्चों को मौत के मुंह तक ना पहुंचा दे, पर वह अपने फ़ैसले पर अडिग रहा।लोग उसकी मदद को आगे आये।वह एटलस नाम के एक समुद्री जहाज से करीब सात सौ बच्चों के साथ एक खतरनाक विश्व यात्रा पर निकल पड़ा।
                                       

         अपनी इस यात्रा में उसे किन-किन संकटों से गुज़रना पड़ा,इसे पढ़ना अपने आप में एक रोमांचकारी अनुभव से गुजरना है।खराब मौसम, अपाहिज बच्चे और उनके जीवन की पल-पल चिंता में लगे वाटसन ने बड़ी से बड़ी प्रतिकूल स्थितियों में भी हार नहीं मानी।न्यूयार्क बंदरगाह से सैनफ़्रांसिस्को तक ही यह यात्रा भारत होकर भी गुज़री।मुंबई आने के बाद यह यात्रा भारत दर्शन पर भी निकली।भारत की समृद्ध सांस्कृतिक परम्पराओं का भी इस यात्रा में संक्षिप्त पर प्रभावी वर्णन मिलता है।बंगाल के जंगल में सांप से जुड़ी घटना रोंगटे खड़ी कर देती है।अंत में जहाज का समुद्र में डूबना और इस संकट से उबरना इस उपन्यास का सबसे खतरनाक और रोमांचकारी पक्ष है।सांसें ठहर सी जाती हैं कि अब आगे क्या होगा।

        सत्रह उपशीर्षकों में विभाजित यह रोचक कथा बच्चों को रोज़मर्रा के जीवन से अलग हटकर एक नई दुनिया से परिचय कराती है,जिसकी उन्हें पहले से कल्पना तक नहीं होती है।बच्चों ही नहीं बड़ों को भी इस उपन्यास का पढ़ना एक ज़िदभरी रोमांचक यात्रा के दुर्लभ अनुभव से होकर गुज़रना है।इस अनुभव का आनंद केवल इसे पढ़कर ही उठाया जा सकता है।पुस्तक के साथ दिये गये चित्रकार पार्थसेन गुप्ता के चित्र भी आलेख से कम जीवंत नहीं हैं।
                              00000

लेखक-- कौशल पाण्डेय
1310ए,वसंत विहार,
कानपुर 208021
मोबाइल:09389462070
                 

रविवार, 11 मार्च 2018

वे नन्हीं कब्रें


(हिन्दी के प्रतिष्ठित बाल साहित्यकार हमारे पिताजी आदरणीय श्री प्रेमस्वरूप श्रीवास्तव जी का आज 89वां जन्म दिवस है।वो भौतिक रूप से हमारे बीच उपस्थित नहीं हैं लेकिन उनकी रचनात्मकता तो हर समय हमारा मार्ग दर्शन करेगी .उन्होंने बाल साहित्य के साथ ही प्रचुर मात्रा में बड़ों के लिए भी साहित्य सृजन किया है ---आप सभी के लिए मैं  आज मैं उनकी एक काफी पहले प्रकाशित कहानी को ब्लाग पर पुनः प्रकाशित कर रही हूँ  ...)

                                                                         


वे नन्हीं कब्रें

--प्रेमस्वरूप श्रीवास्तव

             पेड़ों से अधसूखे पीले पत्ते झर रहे थे।नंगी होती जा रही डालियां शाम की उदासी में खामोश लटकी हुई थीं।बहुत सी गाय-भैंसें उस रास्ते से अभी कुछ देर पहले गयी थीं।उठी हुई धूल नीचे बैठ रही थी और रास्ता अब एकदम सूना नजर आ रहा था।दूर किसी खेत की मेड़ पर बैठे रखवाले की बंसी की टीस भरी तान हवा में तार-तार को कर उड़ रही थी।
                सलमा ने काँपते हाथ से अगरबत्ती के चारों टुकड़े कब्र के ऊपर खोंस दिये।
      नहीं सी कब्र!
                इसकी ताजी और मुलायम मिट्टी आज दिन में हुई बारिश से कुछ नीचे बैठ गयी थी।मुश्किल से दो हाथ नीचे, शीरीं लेटी हुई थी।अभी भी उसका सुबह के ओस भीगे फूल सा मासूम मुखड़ा कीडे़-मकोड़ों से सुरक्षित होगा।मक्खन सी मुलायम हथेलियां अभी भी वैसी ही फैली हुई होंगी।नन्हीं-नन्हीं पायलों को पहनकर रूनुक- झुनुक करने वाले पांव अभी भी उठ बैठने के लिए चंचल होंगे।
                नन्हीं-सी कब्र, नन्हीं-सी शीरीं और नन्हा-सा माँ का दिल।
सलमा खोयी-खोयी सी बैठी रही।पत्ते झर रहे थे और सूखी डालियां उसी तरह खामोश थीं।
                सलमा उसी तरह बैठी रही........ बैठी रही और शाम का रंग बदल चला।
उसके सिर के कर्कश आवाज करता हुआ एक वन पाखी उड़ गया।बड़ी देर तक यह आवाज हवा के सीने पर कांटे की तरह चुभती रही।
    शीरीं की कब्र की बगल में ही एक के बाद एक करके तीन कब्रें और थीं।उनमें उसके भाई बहन लेटे हुए थे।वैसे ही नन्हें, वैसे ही मासूम।
ठीक बगल वाली कब्र अहमद की थी।
   जीवन में मुश्किल से दो बसंत देख पाने वाला अहमद अब पता नहीं कितने पतझड़ बसंत देखने के लिए वहां लिटा दिया गया था।उसकी कब्र पर एक छोटा सा नीले रंग का फूल खिल आया था।उसकी आंख जैसा खूबसूरत!
   और उसके एक हाथ की दूरी पर रोशन था।उसकी कब्र पर पता नहीं किधर से पत्थर की चार छः कंकड़ियां इकट्ठी हो गयी थीं।कितना प्यार था उसे पत्थर के उन गोल-गोल टुकड़ों से।हर समय इन्हें जेबों में भरे घूमता रहता। स्कूल में पिटता, घर में डाटं खाता।मगर आदत थी जैसे मरने के बाद भी न छूटी ।कौन जाने उसकी छोटी-छोटी उंगलियां किसी वक्त इन्हें छूने को निकल पड़ती हों।
                चौथी में मलका सो रही थी।
  सलमा की आंखें अचानक ही उस पर उठ गयीं।हरी घास में ढकी कब्र जैसे आज आठ सालों के बाद वैसी ही ताजी थी।उसके ऊपर झुकी हुई पेड़ों की डालों पर किसी चिड़िया ने अपना घोंसला बना लिया था। तिनके और कुछ उखडे़ हुए पर जमीन पर बिखरे हुये थे।
 कितना शौक था उसे चिड़ियों को पालने का---सलमा उस घोंसले को जब भी देखती है तो सोचने लगती है।चिडि़यों का जोड़ा अक्सर नीचे की कब्रों पर भी आ बैठता।जैसे उस बच्ची को ढूंढ़ता हो।
                अगरबत्तियां जल-जल कर खत्म होने लगी थीं--एक के बाद एक!
                शाम का रंग रात की स्याही में डूब चला था और अब बची हुए अकेली अगरबत्ती का सिरा अंधेरे का फूल जैसा लग रहा था।थोड़ी देर मे वह भी बुझ जायेगा-- सलमा जानती थी।
             सलमा उठना चाहती थी मगर चारों बच्चे उसे छोड़ नहीं रहे थे।कभी मलका, कभी अहमद, कभी रोशन! और शीरीं ने तो अपना चेहरा ही उसके आंचल में छिपा लिया था।अपने अब्बा को चिढ़ाने के लिए अक्सर वह ऐसा करती ।
   पत्ते बराबर झर रहे थे।नंगी डालियां अब अंधेरे में छिप गयी थीं।मगर वे चुपचाप उसे देख रही हैं-- सलमा को मालूम था।
   किसी ने धीरे से उसके कंधों को छुआ।
   सलमा इस तरह उठी जैसे कांटे में फंसी हुई मछली पानी से बाहर निकाली जाय।
   उसने अपने दोनों हाथ मुनीर के कंधे पर टिका दिये।कंपनहीन बेजान हाथ!
मुनीर ने चलने के लिए उसे सहारा दिया।लड़खड़ाते हुए कदम आगे बढ़े।
मां! सहसा सलमा को लगा, चारों बच्चे एक साथ चीखे हों।उन्होंने पूछा हो- हमें अंधेरे बयाबान में अकेले छोड़ कर कहां जा रही हो मां !
  सलमा ठिठक गयी! मुनीर भी रुका।
  पत्ते वैसे ही झर रहे थे और अब रात की गहरी खामोशी में उनकी आवाज बड़ी कड़वी लग रही थी।मुनीर ने सलमा को फिर सहारा दिया।उसके पैर उठते, ठिठकते, फिर उठते और ठिठकते!
फिर काली रात ने सब कुछ निगल लिया!
 सलमा पीछे नहीं लौटना चाहती।हर कोशिश करती है कि न लौटे।मगर मन है कि उसे जितना ही बांधो, उतना ही वह बेकाबू होता है।सामने पड़े हुए फूल को न उठा वह अपने को कांटों से बिंधवा लेता है।जहर की मिठास, पत्थर की कोमलता उसे तो मालूम है।फिर बेचारी सलमा क्या करती!
                भटकता हुआ मन पाखी दूर गगन की गहराइयों में खो जाता है।उड़ते-उड़ते डैने शिथिल हो जाते फिर भी नीचे उतरने को जी नहीं चाहता।सलमा के साथ भी हमेशा  यही हुआ है।
          शहनाई बज रही है, डोली उठने ही वाली है।आंगन में बच्चे बेतरह हल्ला  मचाये हुए हैं। औरतें विदाई के किसी गीत की केवल दो पंक्तियां बार-बार गाए जा रही हैं।शायद उसका भाव था--- दुल्हन की गोद भरी रहे, यह जोड़ा सौ वर्षों तक जिये।कोई सुरताल नहीं।सगुन के लिए गाना जरूरी होता है।
                सलमा सहेलियों और बड़ी-बूढि़यों की बाहों में घिरी डोली की ओर बढ़ती है।उसके रंग लगे पाव बाहर निकले हुये हैं।उसकी आंखें आंसुओं से डूबी हुई हैं और दिल जोर-जोर से धड़क रहा है।
                डोली का परदा उठाकर किसी ने अपना चेहरा भीतर किया।याद आता है शायद उसके रिश्ते की कोई चाची थीं।मां के अभाव में उसी ने अपना स्नेह दिया था। सलमा फूट पड़ती है।यह क्या हो रहा है ? क्यों इसे इस तरह उस घर से हमेशा के लिए अलग किया जा रहा है जिसके चप्पे-चप्पे से उसकी मोहब्बत जुड़ी हुई है।
                मगर चाची की खामोश आंखों में इसका जबाब है।एक दिन हर लड़की के साथ यही होता है। सनातन काल से यही होता आया है।इस रिवाज को कोई तोड़ नहीं सकता।बेटी पराई होती है, जिन्होंने उसे जन्म दिया, उनकी होकर नहीं रह सकती।
                और ये नन्हें-नन्हें किसके हाथ भीतर घुस आये है! नजर पड़ते ही सलमा, असमा को पहचान लेती है।इस गुड़िया सी बहन को भी छोड़ कर जा रही है वह।किसी को साथ नहीं रख सकती। यहां की हर चीज से अब नाता टूट रहा है।
                कहार जल्दी मचाये हुए हैं।उन्हें आठ कोस का रास्ता तय करना है।मगर असमा, बहन का दामन नहीं छोड़ रही है।वह मचल रही है, साथ चलेगी।सहेलियां रो रही हैं, बड़ी-बूढि़यां सिसक रही हैं।
                डोली उठ जाती है।
                सलमा परदे का एक कोना जरा सा सरका कर बाहर देखती है।वह उसका मक्की का खेत पीछे छूट रहा है।जीरा फूट चला है, किसी-किसी में घुई भी निकल आयी है।इन सफेद और सुनहरे रेशों को सर में खोंस कर वह देखते-देखते पके बालों वाली बुढ़िया बन जाती थी।पन्द्रह दिन बाद इनमें भुट्टे निकल आयेंगे।उसका कितना शौक  इसमें समाया हुआ है।
                यह है सामने हिरिया वाला ताल। कुछ दिन पहले तक हिरिया इसमें सिंघाड़े लगाती रही है। हरे लाल दूधिया सिंघाड़े वह उसी के किनारे अपने झोपड़े में बेचती।गांव के शरारती बच्चे ताल में घुस जाते ।सिंघाड़े तोड़ते और बेलों को तितर-बितर कर देते। हिरीया गालियां देती हुई उन्हें बड़ी दूर तक खदेड़ती। बच्चों का दल उसे चिढ़ाता हुआ आगे-आगे भागता। आज न हिरिया है, न उसकी झोपड़ी मगर ताल, हिरिया का ताल है।आधे से ज्यादा हिस्से में सफेद गुलाबी कमल खिले हुए हैं।जैसे हिरिया की तलाश में ताल ने अपनी हजार आंखें फाड़ रखी हों।
                डोली आम की बगिया गुजर रही है।आंधियों के समय में वह यहां  से कच्ची अमियां पल्ले में भर कर ले जाती थी।पेड़ अब भी बौरेंगे, टिकोरिया अब भी लगेंगी, आंधियां अब भी आयेंगी।मगर बीनने वालों में इस साल एक संख्या कम रहेगी।
                खेतों में क्यारियां निराती औरतें खड़ी हो-हो कर जाती हुई डोली देखने लगती हैं।उनकी आंखों में आंसू झलक आते हैं।आज उनके गांव की एक बेटी हमेशा के लिए परायी होकर जा रही है।
                गांव का सिवान आ गया। यहां से दूसरा गांव शुरु होता है।कहार थोड़ी देर के लिए डोली रख देते हैं।
                सलमा सुनती--कोई पीछे से उसकी डोली के परदे को उठाने की कोशिश करता हुआ सूँ-साँ कर रहा है।वह झांकती है--यह तो उसके गांव का कुत्ता है। साथ चला आया।कितनी ममता है इसके दिल में। तोड़े नहीं टूट रही है।
                सलमा अपने को संभाल नहीं पाती।मन का आवेग आंखों की राह बह निकलता है।कुछ हल्कापन आता है तो साथ में रखी पूरियों में दो निकाल कर कुत्ते के आगे डाल देती है।
                डोली फिर उठती है।अब कहार करीब-करीब दौड़ने लगते हैं।दिन ढ़लने से पहले मंजिल पूरी कर लेना चाहते हैं।
शरीर आगे जा रहा है, मन पीछे छूट रहा है।
 खट! आलमारी साफ करते हुए प्लास्टिक की एक गुडि़या फर्श पर जा गिरी।सलमा ने उठकर हथेली पर रख लिया।
                नन्हीं मलका उसके सामने खड़ी हुई।
     यह मलका का खिलौना था।उसके बाद रोशन, अहमद और शीरीं इससे खेले थे।इन सभी बच्चों को बड़ी प्यारी लगती थी यह गुड़िया। मुनीर को खिलौने खरीदने का बेहद शौक  है।उसके लाये हुए खिलौनों से आलमारी की दराजें भरी हुई हैं ।
                आज बहुत दिनों के बाद सलमा ने उसे आलमारी को हाथ लगाया था।उसमे नीचे की दराज में बहुत दिन पहले खरीदे गये जूते का जोड़ा रखा हुआ था।जूता अभी तक ठीक था, केवल मामूली सी शिकनें पड़ गयी थीं।
                सलमा धीरे-धीरे नीचे बैठ गयी।उसने जूतों को उठाया,फिर उन्हें सहलाने लगी।मलका किसी कोने से निकल आयेगी और इन जूतों को पहनने के लिए जिद करने लगेगी।इन्हें पहने बिना वह कभी घर से बाहर नहीं निकलती।
                आलमारी के दोनों पल्ले खुले हुए थे और हर हिस्से से जानी-पहचानी सूरतें झांक रही थीं।
                शीरीं, अहमद, रोशन, मलका---हरेक मां का ध्यान अपनी ओर खींचना चाहता था।
     मुनीर दबे पांव कमरे में आया।देर तक सलमा के पीले चहरे को देखता रहा।फिर आगे बढ़ कर आलमारी के दोनों पल्ले बंद  कर दिये सलमा ने कोई विरोध नहीं किया।क्योंकि बच्चे अब भी उसे झांक कर देख रहे थे।
                मुनीर ने उसे उठाया और रसोई की ओर ले चला।उसने सुबह ने अन्न पानी छुआ तक न था। वह जानती थी, इस तरह मरना संभव नहीं ? न कोई मर ही सकता है।मगर ऊपर से आत्मा के साथ जोर जबर्दस्ती भी तो नहीं की जा सकती।
                मुनीर का सहारा उसे बड़ा भला लग रहा था।इस सहारे की उसे इस वक्त सबसे जयादा जरूरत थी।वह रसोई में न जा कर बस इसी तरह मुनीर के बाजुओं में टिकी रहना चाहती थी।
                आज कई दिन से सलमा की तबियत खराब चल रही थी।खाना नहीं हजम होता था।पानी तक की कै हो जाती।वहीदा ने देखा तो हाय भर कर बोली, ‘इस तरह तो तू मर जायेगी सलमा! कोई ताकत-वाकत की चीज क्यों नहीं लेती ?’
                कुछ भी हजम नहीं होता’! सलमा ने जबाब दिया। वहीदा ने समझाया, ‘एक अकेले तेरी ही बात नहीं है।हरेक को ऐसा होता है।मगर सब पेट भर कर खाते हैं।शरीर टूटा तो दवा से भी जल्दी नहीं सुधरेगा।
मुनीर रोजाना ताजे फल ले आता।घर दूध दे जाने वाले ग्वाले पर उसे जरा भी विश्वास न था।खुद जा कर सामने दुहाता।दवा अलग आ रही थी  मुनीर उसे हर वक्त खुश रखने को कोशिश करता।स्वयं हंसता, उसे हंसाता।जब उसके दांत खुल जाते तो तुंरत अनार के एक मुठ्ठी दाने मुंह में भर देता।
                सलमा का स्वास्थ्य सुधरने लगा था।अब वह पहले से काफी ठीक थी।उसने आने वाले नये जीव के लिए स्वेटर, टोप और ऊनी मोजे बुने।नन्हें जीव को मामूली सी भी ठंड बीमार बना सकती है।
                पड़ोस की औरतें अक्सर ही उसके पास आ जातीं। ढोलक ठुनकती और गीतों से मकान गूंज उठता। जिस मकान में किसी बच्चे की रूलाई  और किलकारियाँ न सुनायी दें, वह मकान नहीं भूत खाना होता है-- औरतें आपस में कहतीं।सलमा सुनती और ख्यालों की गहराई में खो जाती।
         सलमा के दरवाजे पर शहनाई बज रही थी।औरतों के सोहर गीत हवा के परों पर उड़ रहे थे। मुनीर खुश था, अड़ोस-पड़ोस खुश था।
                मौसम बदल गया था।पेड़ पत्तों से लद उठे थे।रात चांद दूधिया चांदनी बरसाता।दिन में बसन्ती बयार फूलों के पराग से होली खेलती।जानवर खुश थे, चिडि़यां खुश थीं, कीडे़-मकोड़े तक खुश थे।अब कोई पेड़ सूना और नंगा न था।बहार लौट आयी थी।डालिया फूलों और पत्तों के भार से नीचे झुक गयी थीं।
                उस दिन रात की खामोशी अचानक भंग सी हो गयी।कोई धीरे-धीरे उन नन्ही-नन्हीं चार कब्रों के पास आ कर खड़ा हो गया।घास और उनमें सिर छिपाये पत्ते उस आहट से परिचित थे।
                झुकी हुई डालियां कुछ और नीचे झुक आयीं।उन्होंने पहचाना, वह सलमा थी।और सलमा जानती थी कि क्यों ये डालियां इतना नीचे झुक आयी हैं और पिछले पतझड़ के गिरे सूखे फूल-पत्तों में वे किसे ढूंढ़ रही हैं।
                                 0000
लेखकप्रेमस्वरूप श्रीवास्तव

11मार्च,1929 को जौनपुर के खरौना गांव में जन्म।
31जुलाई 2016 को लखनऊ में आकस्मिक निधन।
        शुरुआती पढ़ाई जौनपुर में करने के बाद बनारस युनिवर्सिटी से हिन्दी साहित्य में एम0ए0।उत्तर प्रदेश के शिक्षा विभाग में विभिन्न पदों पर सरकारी नौकरी।पिछले छः दशकों से साहित्य सृजन मे संलग्न।देश की प्रमुख स्थापित पत्र-पत्रिकाओं में कहानियों,नाटकों,लेखों,रेडियो नाटकों,रूपकों के अलावा प्रचुर मात्रा में बाल साहित्य का प्रकाशन।आकाशवाणी के इलाहाबाद केन्द्र से नियमित नाटकों एवं कहानियों का प्रसारण।
बाल कहानियों,नाटकों,लेखों की अब तक पचास से अधिक पुस्तकें प्रकाशित।वतन है हिन्दोस्तां हमारा(भारत सरकार द्वारा पुरस्कृत)अरुण यह मधुमय देश हमारा”“यह धरती है बलिदान की”“जिस देश में हमने जन्म लिया”“मेरा देश जागे”“अमर बलिदान”“मदारी का खेल”“मंदिर का कलश”“हम सेवक आपके”“आंखों का ताराआदि बाल साहित्य की प्रमुख पुस्तकें। सन 2012 में नेशनल बुक ट्रस्ट,इण्डिया से प्रकाशित बाल उपन्यास मौत के चंगुल में काफी चर्चित।नेशनल बुक ट्रस्ट,इण्डिया से प्रकाशनाधीन  बालनाटक संग्रहएक तमाशा ऐसा भी  
   इसके साथ ही शिक्षा विभाग के लिये निर्मित लगभग तीन सौ से अधिक वृत्त चित्रों का लेखन कार्य।1950 के आस पास शुरू हुआ लेखन एवम सृजन का यह सफ़र 87 वर्ष की उम्र तक निर्बाध चला।