शुक्रवार, 31 दिसंबर 2010

क्षणिकायें

आप सभी का करती हूं नव वर्ष पर हार्दिक अभिनंदन,

नव संकल्प और आत्म विश्वास से बढ़ें सभी के कदम।

प्रिय बेटी नित्या शेफ़ाली का है आज(1-1-11)जन्मदिन

इसके उज्ज्वल जीवन हेतु मिलें आपके आशीष वचन।

झुक झुक कर चूमें सारी खुशियां तेरे कदम

भूले से न आये कभी तेरी जिन्दगी में गम।


क्षणिकायें

(एक)

नव वर्ष में नव प्रभात

में खिले सुमन

हर मन आंगन।

(दो)

हर्षित हो करें स्वागत

आने वाले पल

खुशियों से पूर्ण।

(तीन)

जो गुजर गया

वो गया वक्त

पर ना छूटे बंधन।

(चार)

वक्त किसे क्या

देवे

जैसे सागर मंथन।

(पांच)

नयी उमंग ले

नये जोश से छू ले

नील गगन।

(छः)

बचपन सा निश्चल

होवे ये मन

जैसे होता दर्पण।

(सात)

सब कुछ भूलें

इस पल से

बनें नेक इंसान।

(आठ)

गुण अवगुण से

ही होती

इंसान की पहचान।

(नौ)

उत्साहित हों

बढ़ें आगे लेकर

मंजिल की लगन।

(दस)

नव जीवन मिले

जाये फ़िर से

मिले जो मन।

(ग्यारह)

एक से एक जुड़

ग्यारह होते

अनेक से बनें एक।

(बारह)

हृदय में प्रेम के अंकुर

मुखारविन्द से

बरसे अमृत घन।

(तेरह)

खुशहाली चहुं ओर

घर घर पहुंचे

खुशियां छन।

000

पूनम

रविवार, 26 दिसंबर 2010

नया साथी


मन ने कहा

चलो एक साथी नया बनायें

किसी से वक्त बांटें,बातें करें

कुछ उसकी सुनें कुछ अपनी कहें।

एक तो श्रीमान जी

सुबह गये ढले शाम घर आये

फ़िर दिन का लेखा जोखा

क्यों सुनें और सुनायें

है आज भी मेरा एक साथी

जो मेरा साथ देने को

हरदम तैयार

लेकिन उसकी मजबूरियां हैं

क्योंकि वो भी

है किसी के अधीन।

पर मैंने उससे विनती की

रोज नहीं तो दो चार

दिन पर ही आ जाया करो

थोड़ा मन बहलेगा।

वो भी मूक दर्शक की तरह

मेरी बातें सुनता रहता है

लेकिन हमने उससे ये भी कहा

कि देखो दगाबाजी मत करना

ऐसे लोग मुझे पसन्द नहीं।

फ़िर भी वो आया

करीब एक सप्ताह के बाद

मुझे पहले तो उस पर

बहुत ही गुस्सा आया

बहुत झुंझलाई

पर वो एक निरीह पशु

के समान चुपचाप

सिर झुकाये मेरी बात

सुनता रहा।

फ़िर मुझे लगा शायद

मैं कुछ ज्यादा ही बोल गयी

काम बिगड़ जायेगा

मैंने उसको प्यार से समझाया

और कहा देखो तुम अपना भी

ध्यान नहीं रख पाते

इसीलिये तुम्हें भी एक साथी की जरूरत है।

मैंने बड़े प्यार से उसके

कपड़ों को झाड़ा

बड़े ही मन से उसकी

उंगलियां सहलायीं

और अपने हाथों ही

उसके चेहरे को साफ़ किया

मेरे इतना करने भर से ही

उसका चेहरा झिलमिला उठा।

पता नहीं उसको

मेरा स्नेह अच्छा लगा या नहीं

पर फ़िर भी

उसकी मुस्कुराहट देखते ही

बनती थी।

मैंने फ़िर उससे बातचीत

करने का सिलसिला शुरू किया

और वो भी मेरा साथ देने के लिये

खुशी खुशी तैयार हो गया।

कुछ मैंने अपने मन की कही

उसकी भी ध्यान से सुनी

और खुशी खुशी जवाब दिया

फ़िर उसने कहा साफ़ साफ़

शब्दों में देखो दोस्ती में

विश्वास का पुट होना चाहिये

मैं रोज का वादा तो नहीं

कर सकता

वो तुम जानती हो

फ़िर भी दगाबाज कहने में

नहीं चूकती हो

हां इतना वादा है जरूर साथ तुम्हारा

दूंगा हमेशा जब तक तुम चाहोगी।

पर अभी वक्त क्यों खराब

कर रही हो

जो कहना है कह डालो

जल्दी जल्दी

पर एक अनुनय है

अपना विश्वास मुझ पर

कायम रखना।

(अरे---- अरे------ जनाब, कहां चल दिये आप।पूरी पोस्ट तो पढ़ते जाइये। ये नये साथी मेरे कोई और नहीं मेरे कम्प्युटर और इन्टरनेट महोदय हैं। जो अक्सर ही आजकल धोखा दे जाते हैं। और मैं उनके आने का इन्तजार करती रहती हूं।क्यों आश्चर्य में पड़ गये न आप………JJ)

000

पूनम

रविवार, 19 दिसंबर 2010

मजबूरी


दरवाज़े की घंटी बजी ट्रिंग ट्रिंग,और आलस से भरी हुई थकी आँखों ने घड़ी पर नज़र डाली।दोपहर के लगभग पौने तीन बज रहे थे।इस वक़्त कौन हो सकता है,ये सोचते हुए तथा बोलते हुए किकौन?,उठने की कोशिश कर ही रही थी कि कानों में आवाज़ पड़ीमैडम प्लीज़।इतना सुनना था की बस फ़िर तो पूछिये मत्।उठने का उपक्रम छोड़कर पुन: लेट गयी।यह जानकर कि एक दो बार घंटी फ़िर बजेगी चादर से मुँह लपेटकर कानों को ढक लिया और उनके लौटते हुए कदमों के आहट का इंतज़ार करने लगी।थोड़ी देर बाद शांति हो गयी।यानि वो जो कोई भी था या थी लौट चुका था।

अब इन बिन बुलाये मेहमानों की तरह टपकने वालों के आने से नींद तो उड़ ही चुकी थी।फ़िर भी सोने की कोशिश करने लगी।पर आँखों में नींद की जगह दिल में अजीब से भाव उपजने लगे।लगा जैसे कि मेरा मन मुझे धिक्कार रहा है।मेरे मन की पुकार अंतर्मन तक पहुँची और फ़िर अंतर्मन ने उधेड़बुन के जाल बुनने शुरू कर दिये।

अपने ही द्वारा किये गये इस आलस्यपूर्ण कार्य के लिये मन में उपजी ग्लानि ने विचारों की अनवरत बहती धारा का रूप लेकर उनसे उपजे भावों को शब्दों का चोला पहनाने पर मुझे विवश कर दिया।और कलम फ़िर धारा प्रवाह डायरी के पन्नों पर थिरकने लगी।

जी हाँ,अब आप समझ गये होंगे कि मैं किसके बारे में बात करे रही हूँ………………………………।

ये हैं एम0बी0ए0 या किसी और शैक्षिक संस्थान से जुडे आजकल के युवा।जो अपनी पढ़ाई के बाद ट्रेनिंग के दौरान दिन रात एक कर के चिलचिलाती धूप,देह को सिकोड़ती ठंड,और धुँआधार बारिश के बीच इस गली से उस गली,एक कालोनी से दूसरी कालोनी चलते रहते हैं। करते हैं हाड़-तोड़ मेहनत और सफ़लता पाने की कोशिश।शायद आपके या हमारे एक खरीद से ही उनका हो जाये प्रमोशन। पर हम हैं कि अपने आपको समझते हैं इंसानियत का शहंशाह। जो कि दरवाज़े पर मैडम प्लीज़ की आवाज़ सुनते ही लेते हैं एक उबासी भरी सांस और उठना तो दूर उनपर नज़र डालना भी पसंद नहीं करते।जो हमारे आराम में इस तरह खलल डालने की करे तनिक भी कोशिश,भले ही वो बेचारे पढ़े लिखे नौजवान अपने आराम को त्याग के एक आशा भरी दृष्टि आप पर डालते हैं,इस उम्मीद से कि शायद आप्…………पर हम हैं कि मैडम प्लीज़्…आज ही नया लांच्…,इसके आगे वो कहना क्या चाहते हैं,सुनने की कोशिश भी नहीं करते।

ये तो रही दूर की बात,ये भी नहीं सोचते कि बेचारे पसीने से लथपथ् कम से कम एक गिलास पानी की ख्वाहिश तो आप से रख ही सकते हैं।पर जब भड़ाक से खिड़की का दरवाज़ा उनके मुँह पर बंद हो जाता है तो बेचारे खुद ही पानी पानी हो जाते हैं और वो आगे बढ़ा लेते हैं अपना कदम बावजूद इतना कुछ होने के…सिर्फ़ एक प्रमोशन की आस में।

(है ना ये हमारी इंसानियत की पहचान… ऐसा होते अक्सर देखा है इसलिये अपने आप को ही केन्द्रित करके लिख रही हूँ…ये पोस्ट दस दिन पूर्व का लिखा हुआ है पर ऐसी घटनायें हमारे साथ रोज़ ही होती हैं)।

0000

पूनम

शनिवार, 11 दिसंबर 2010

वक्त से----


वक्त थम जाओ जरा

आइना तो निहार लूं।

घटाओं घूम के आओ जरा

जुल्फ़ों को संवार लूं।

हवाओं रुख बदल दो जरा

आंचल तो संभाल लूं।

फ़िजाओं इस तरह गमको जरा

सांसों में इनको भर तो लूं।

चमन फ़ैलो हर इक दिशा जरा

फ़ूलों सी मुस्कुरा तो लूँ।

बारिश झूम के बरसो जरा

संग तुम्हारे झूम तो लूं।

स्वप्न सतरंगी इन्द्रधनुषी ज़रा

खुशी से इतरा तो लूँ।

आलम हो इस कदर रंग भरा तो

क्यों ना इस पल को आगोश में समेट लूं।

000

पूनम

शुक्रवार, 3 दिसंबर 2010

वो उम्र


वो एक उम्र ही तो होती है

जो ऐसी होती है

हर शै पर एक बार

जरूर से आती है।

वो एक उम्र ही तो होती है

जो ऐसी होती है

हर शख्स के जीवन में

सपन सतरंगी लाती है।

वो एक उम्र ही तो होती है

जो ऐसी होती है

अपने हर तरफ़ इक खूबसूरत

अहसास सा पाती है।

वो एक उम्र ही तो होती है

जो ऐसी होती है

अपनी ख्वाहिशों का

सुन्दर सा जाल बनाती है।

वो एक उम्र ही तो होती है

जो ऐसी होती है

कोई तो इस जाल को

पूरा बुन जाती है।

वो एक उम्र ही तो होती है

जो ऐसी होती है

और कोई इस जाल में

फ़ंस के रह जाती है।

वो भी तो एक उम्र ही है

जो सब पा जाती है

या फ़िर कभी दोनों को

संगसंग जीती है।

00000

पूनम