दरवाज़े की घंटी बजी ट्रिंग ट्रिंग,और आलस से भरी हुई थकी आँखों ने घड़ी पर नज़र डाली।दोपहर के लगभग पौने तीन बज रहे थे।इस वक़्त कौन हो सकता है,ये सोचते हुए तथा बोलते हुए कि‘कौन?’,उठने की कोशिश कर ही रही थी कि कानों में आवाज़ पड़ी‘मैडम प्लीज़’।इतना सुनना था की बस फ़िर तो पूछिये मत्।उठने का उपक्रम छोड़कर पुन: लेट गयी।यह जानकर कि एक दो बार घंटी फ़िर बजेगी चादर से मुँह लपेटकर कानों को ढक लिया और उनके लौटते हुए कदमों के आहट का इंतज़ार करने लगी।थोड़ी देर बाद शांति हो गयी।यानि वो जो कोई भी था या थी लौट चुका था।
अब इन बिन बुलाये मेहमानों की तरह टपकने वालों के आने से नींद तो उड़ ही चुकी थी।फ़िर भी सोने की कोशिश करने लगी।पर आँखों में नींद की जगह दिल में अजीब से भाव उपजने लगे।लगा जैसे कि मेरा मन मुझे धिक्कार रहा है।मेरे मन की पुकार अंतर्मन तक पहुँची और फ़िर अंतर्मन ने उधेड़बुन के जाल बुनने शुरू कर दिये।
अपने ही द्वारा किये गये इस आलस्यपूर्ण कार्य के लिये मन में उपजी ग्लानि ने विचारों की अनवरत बहती धारा का रूप लेकर उनसे उपजे भावों को शब्दों का चोला पहनाने पर मुझे विवश कर दिया।और कलम फ़िर धारा प्रवाह डायरी के पन्नों पर थिरकने लगी।
जी हाँ,अब आप समझ गये होंगे कि मैं किसके बारे में बात करे रही हूँ………………………………।
ये हैं एम0बी0ए0 या किसी और शैक्षिक संस्थान से जुडे आजकल के युवा।जो अपनी पढ़ाई के बाद ट्रेनिंग के दौरान दिन रात एक कर के चिलचिलाती धूप,देह को सिकोड़ती ठंड,और धुँआधार बारिश के बीच इस गली से उस गली,एक कालोनी से दूसरी कालोनी चलते रहते हैं। करते हैं हाड़-तोड़ मेहनत और सफ़लता पाने की कोशिश।शायद आपके या हमारे एक खरीद से ही उनका हो जाये प्रमोशन। पर हम हैं कि अपने आपको समझते हैं इंसानियत का शहंशाह। जो कि दरवाज़े पर मैडम प्लीज़ की आवाज़ सुनते ही लेते हैं एक उबासी भरी सांस और उठना तो दूर उनपर नज़र डालना भी पसंद नहीं करते।जो हमारे आराम में इस तरह खलल डालने की करे तनिक भी कोशिश,भले ही वो बेचारे पढ़े लिखे नौजवान अपने आराम को त्याग के एक आशा भरी दृष्टि आप पर डालते हैं,इस उम्मीद से कि शायद आप्…………पर हम हैं कि मैडम प्लीज़्…आज ही नया लांच्…,इसके आगे वो कहना क्या चाहते हैं,सुनने की कोशिश भी नहीं करते।
ये तो रही दूर की बात,ये भी नहीं सोचते कि बेचारे पसीने से लथपथ् कम से कम एक गिलास पानी की ख्वाहिश तो आप से रख ही सकते हैं।पर जब भड़ाक से खिड़की का दरवाज़ा उनके मुँह पर बंद हो जाता है तो बेचारे खुद ही पानी पानी हो जाते हैं और वो आगे बढ़ा लेते हैं अपना कदम बावजूद इतना कुछ होने के…सिर्फ़ एक प्रमोशन की आस में।
(है ना ये हमारी इंसानियत की पहचान… ऐसा होते अक्सर देखा है इसलिये अपने आप को ही केन्द्रित करके लिख रही हूँ…ये पोस्ट दस दिन पूर्व का लिखा हुआ है पर ऐसी घटनायें हमारे साथ रोज़ ही होती हैं)।
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पूनम