शनिवार, 26 अक्तूबर 2013

बाल कहानी --------- आत्मविश्वास

                       
         
दो बहनें थीं।बड़ी मेहाली छोटी शेफ़ाली।दोनों बहनें बड़ी ही सभ्य व सुसंस्कृत परिवार की थीं।दोनों बहुत ही समझदार तथा पढ़ाई लिखाई में भी बहुत ही अच्छी थीं।पर दोनों के स्वभाव में बहुत ही अंतर था। जहां बड़ी नम्र स्वभाव की व मृदुभाशी थी वहीं छोटी स्वभाव की तो बहुत ही अच्छी पर थोड़ा उग्र स्वभाव की थी। बचपन से ही छोटी पढ़ने लिखने में बहुत ही तेज थी। उसने छोटी उम्र में ही अपने आप पढ़ना लिखना सीख लिया था। कोई बात एक बार बताने के बाद उसे दुबारा बताना नहीं पड़ता था।धीरे-धीरे दोनों बहनें बड़ी होती गयीं। अब बड़ी बहन मेहाली बी ए और छोटी 10वीं में आ गयी थी।
           इसके पहले जब शेफ़ाली 5वीं कक्षा में आई तो उसे दो बार टायफ़ाइड हो गया।वह बहुत जल्द ही ठीक भी हो गयी पर इससे उसकी सेहत और पढ़ाई पर बहुत ही खराब असर पड़ा।फ़िर उसने अगली कक्षा में अपनी मेहनत के बल पर अच्छे अंक लाये।सभी विषयों में तो उसे बहुत अच्छे अंक मिले पर गणित में बहुत ही कम।
             इधर शेफ़ाली की मां की तबीयत अक्सर खराब रहती।जिससे घर के माहौल व बच्चों की पढ़ाई पर भी असर पड़ा।अब दोनों बच्चों पर अपनी तबीयत की वजह से शेफ़ाली की मां ज्यादा ध्यान दे नहीं पाती थीं। बड़ी बहन मेहाली अपनी पढ़ाई के साथ ही साथ पूरे घर का भी बहुत खयाल रखती थी। साथ ही छोटी बहन शेफ़ाली को भी वह पढ़ाती थी।मां की अस्वस्थता से घर का सारा भार मेहाली के कन्धों पर आ गया था।मां उससे कहती कि बेटा छोटी बहन की मदद भी ले लिया करो लेकिन वो बड़े प्यार से मां से कहती मां अभी वो बहुत छोटी है। मै तो कर रही हूं न। आप परेशान न हुआ करिये मैं सब सम्हाल लूंगी।मां अचानक ही मेहाली के कन्धों पर इतना बोझ आ जाने से और भी चिन्तित रहती थीं।
          खैर 10वीं की छःमाही परीक्षा का परिणाम घोषित हुआ फ़िर शेफ़ाली पिछले साल की तरह गणित में कम नम्बर ले आई। जाने क्यों उसे गणित से इतना डर लगने लगा कि वो उससे दूर भागती। जब-जब टेस्ट या इम्तहान होता गणित वाले दिन उसे बुखार जरूर हो जाता था। ऐसा नहीं था कि वो घर पर अभ्यास नहीं करती थी।मां के समझाने पर वो बार बार सवाल लगाती और हल भी कर लेती लेकिन गणित के पेपर वाले दिन कक्षा में वो पेपर देखते ही इतनी नर्वस हो जाती थी कि आते हुये सारे सवाल उल्टे-सीधे कर आती।उसकी टीचर को भी बड़ा आश्चर्य होता।वो उसे डांटते भी नहीं थे और बड़े प्यार से बुला कर समझाते थे कि बेटा गणित में तुम्हें क्या हो जाता है तुम तो इतनी अच्छी हो पढ़ने में।फ़िर वो रोने लगती। घर आकर भी वो खूब रोती कि मैं कभी भी गणित में पास नहीं हो पाऊंगी। मैं आगे कुछ नहीं कर पाऊंगी।
      फ़िर मम्मी पापा ने विचार करके उसका दाखिला कोचिंग में करा दिया।उसकी कोचिंग के सारे शिक्षक भी बहुत ही अच्छे थे और सभी बच्चों पर बहुत ध्यान देते थे। जो बच्चा जिस विषय में कमजोर था ये पता करके उस पर विशेष ध्यान देते।
 कोचिंग ज्वाइन करने पर मेहनत तो उस पर ज्यादा पड़ने लगी लेकिन फ़िर से पढ़ाई में खासकर गणित में भी उसका ध्यान लगने लगा।कोचिंग में वो हर सवाल हल कर लेती।उसकी टीचर भी उससे कहतीं कि शेफ़ाली तुम बहुत ही अच्छी विद्यार्थी हो। थोड़ी मेहनत और करो और अपना आत्म विश्वास मत खोओ।देखो तुम्हारी पोजीशन कितनी अच्छी हो जाएगी।बस अपनी लगन इसी तरह बनाये रखो।
             एक दिन शेफ़ाली पढ़ाई से थोड़ा खाली होकर अपने घर के बाहर बैठी चिड़ियों को देख रही थी। वह इस उधेड़बुन में भी थी कि कैसे अपनी पढ़ाई को और आगे बढ़ाए। अपना आत्म विश्वास बढ़ाए।तभी उसकी निगाह लान में जा रहे एक गुबरैले पर पड़ी जो एक मिट्टी का बड़ा टुकड़ा आगे ढकेलने की कोशिश कर रहा था। पर बार-बार नाकाम हो जाता था। लेकिन उसने हार नहीं मानी।वह लगातार उसे आगे बढ़ाने की कोशिश करता रहाकरता रहा। और अन्ततः वह मिट्टी के उस टुकड़े को आगे धकेलने में सफ़ल हो गया।---उसे आगे जाते देख शेफ़ाली खुशी से चिल्ला पड़ी---हुर्रे----। बगल में खड़ी उसकी सहेली भी चौंक गयी---क्या हुआ है इसे। पर शेफ़ाली ने उसे समझा दिया कि चिड़ियों का उड़ना देख वो चीखी थी।
             बस उसी दिन शेफ़ाली ने तय कर लिया कि उसे परीक्षा होने तक वही गुबरैला बन जाना है। और वह जुट गयी मेहनत से पढ़ने में।इस बार कोचिंग के सभी टेस्ट में उसके अच्छे नम्बर आए। उसकी शिक्षिकाओं ने भी उसे बहुत सराहा।
         अब उसका खोया अत्म विश्वास लौट आया था। और वह दुगनी लगन से अगली परीक्षा की तैयारी में जुट गयी।मां भी जो उसकी पढ़ाई देख कर काफ़ी चिन्तित रहती थीं अब काफ़ी निश्चिन्त हो गयीं।उन्हें लगने लगा कि उन्हें बचपन वाली जिम्मेदार शेफ़ाली बेटी वापस मिल गयी है। और  वह अच्छी तरह से इस बात को समझ गयी है कि मेहनत लगन और आत्मविश्वास ही जीवन में आगे बढ़ने की कुंजी है।
                             0000

पूनम श्रीवास्तव

मंगलवार, 27 अगस्त 2013

हे कृष्ण

ऊधो जाय कहिये सब हाल
राधे संग सखियन बेहाल
जानत रह्यो जब जावन तुमको
काहे बढ़ायो मोह को जाल।

नजरें इत-उत डोलत हैं
मन कान्हा-कान्हा बोलत है
थकि गये हम टेरत- टेरत
नैना बाट जोहत हैं।

बचपन मां हम संग संग बाढ़े
मिल के रास रचायो खूब
बालपन में गोपियन संग
तूने नटखटपन दिखलायो खूब।

सुनने को तान मुरलिया की
तरसे बरसों हमरे कान
अब भी आके सुर बिखराओ
हे नटवर नागर हे घनश्याम।

होठों पे तेरे सजे बंसुरिया
अब मोहे तनिक भी भावे ना
वो तो पहिले की ही बैरन
अब तो सौतन सी लागे ना।

पर राधा तो तिहारी दिवानी
जो तुझको वो हमको भावे
जिया ना लागे मेरा तुझ बिन
तनिक भी पल कोई रास न आवे।

यादों में तुम हमरे बसे
जिया में हूक उठत है श्याम
तुम सारे जग के पियारे
पर मनवा हमरे बस तिहारो नाम।

बड़ी देर भई तेरी राह निहारे
अब भी दया दिखावत नाहीं
हमरी नगरिया कब अइहौ
बतला दो अब भी निर्मोही कन्हाई।
000
पूनम श्रीवास्तव



गुरुवार, 15 अगस्त 2013

चित्रात्मक कहानी ---- जल्दबाज कालू

                                                             एक बंदर था।नाम था कालू।पर दिल का बहुत साफ़ था।हमेशा लोगों की सहायता करता था।पर कालू की एक बुरी आदत थी।हर काम को जल्दबाजी में करने की।इससे अक्सर उसके काम बिगड़ जाते।वह दुखी हो जाता।

एक दिन वह बैठा सोच रहा था कि कैसे अपनी इस आदत को बदले। उसी समय उसे
भालू पीठ पर कुछ लकड़ियां लेकर जाता दिखा।कालू को लगा कि इसकी सहायता करनी चाहिये।वह कूद कर भालू के सामने पहुंचा,लाइये दादा मैं ये लकड़ियां पहुंचा दूं।
  भालू थक गया था।उसे लगा कालू की मदद ले लेनी चाहिये।उसने लकड़ियां उसे दे दीं।कालू ने कहा,दादा आप आराम से आइये।मैं आपकी ये लकड़ियां लेकर आगे चलता हूं।और वह लकड़ियां लेकर तेजी से आगे बढ़ चला।
  
थोड़ा आगे एक जंगली नाला था।नाले का बहाव भालू की गुफ़ा की ओर था।कालू
बंदर ने सोचा---क्यों न मैं लकड़ियां नाले में डाल दूं।पानी के साथ बह कर गुफ़ा तक
पहुंच जाएंगी।मुझे ज्यादा मेहनत नहीं करनी होगी।
  बस उसने कालू की लकड़ियों का गट्ठर नाले में डाल दिया।नाले का बहाव तेज था।
लकड़ियां तेजी से बहने लगीं।उनके पीछे पीछे कालू ने भी दौड़ लगा दी।
    पर कालू बहुत तेज नहीं दौड़ पा रहा था।लकड़ियां आगे बह गईं।कालू ने सोचा कि भालू की गुफ़ा आने तक तो मैं इन्हें पकड़ लूंगा।
    कालू बहुत तेज उछला।बहुत तेज दौड़ा।पर वह पानी के बहाव के साथ नहीं दौड़
सका।लकड़ियां भालू की गुफ़ा से आगे बह गयीं।कालू उन्हें नहीं पकड़ सका।वह उदास
 होकर गुफ़ा के सामने बैठ गया।

            कुछ ही देर में वहां भालू भी आ गया।कालू बंदर को उदास देख उसने
 पूछा,क्या हुआ।
   कालू ने उसे पूरी बात बताई।भालू हंस पड़ा।उसने कालू को समझाया,जल्दी में काम बिगड़ जाते हैं।अपने काम आराम से किया करो।
बात कालू को समझ में आ गई।उसने उसी दिन से जल्दबाजी की आदत छोड़ दी।
                        --------
            मेरी यह कहानी दिनांक-24-06-13 को दिल्ली से प्रकाशित होने वाले समाचार पत्र "नेशनल दुनिया" में भी पकाशित हुयी थी।
                           

पूनम श्रीवास्तव

बुधवार, 1 मई 2013

कैक्टस के जंगल

(फोटो--गूगल से साभार)

ज्यों ज्यों उम्र उसकी
चढ़ रही थी परवान पे
त्यों त्यों पल रहे थे
सपने उसकी आंखों में।

घर आंगन की लाडली
नन्हीं सी कली खिली खिली
नहीं मालूम था एक दिन
मुरझायेगी वो किस गली।

पूरे घर की आंखों की पुतली
जान निसार थी जिस पर सबकी
अपने ख्वाबों के संग संग
जिसने देखे थे सपने बापू व मां के।

कदम बढ़ा रही थी धीरे धीरे
खोल रही थी पर अपने
धर दबोचा उसको पीछे से
कुछ नापाक हाथों ने।

छटपटाई रोई चिल्लायी
भाई होने की दी दुहाई
पर जिसको दया न आनी थी
वो हुआ कब किसका भाई।

बहुत लड़ी हिम्मत न हारी
पर अंततः लाचार हुई
बड़ी ही बेदर्दी से वो
हैवानियत का शिकार हुई।

बिखर गये सारे सपने
जिस्म के टुकड़े टुकड़े हो कर
चढ़ गयी फ़िर एक बेटी की बलि
शैतानों के हाथों पड़कर।

ना जाने कितनी बेटियां
ऐसी बलि होती रहेंगी
क्या सचमुच ये धरती मां
बेटियों से सूनी हो जायेगी।
000

पूनम





शुक्रवार, 5 अप्रैल 2013

पुस्तक समीक्षा


मौत के चंगुल में

लेखक
प्रेम स्वरूप श्रीवास्तव
प्रकाशक:
नेशनल बुक ट्रस्ट इंडिया,नई दिल्ली

   आज भले ही हिन्दी बाल साहित्य में उपन्यास लेखन हाशिये पर है परंतु स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद छ्ठें,सातवें और आठवें दशक में बाल पाकेट बुक्स के तहत सैकड़ों बाल उपन्यास प्रकाशित हुये थे।सुनहरे हंस,फ़ुटपाथ से महल तक,आलसीराम का सपना,पोपटमल,होटल का रहस्य,मंदिर में चोरी,बहादुर भालू,गधे की हजामत,हाइजैकिंग,चुटकुलानगर,सुरखाब के पर,चित्तौड़ की महारानी जैसे अनेक उपन्यास उस काल में प्रकाशित होकर नन्हें पाठकों के गले का कंठहार बने थे।उसी दौर में बच्चों की सुप्रसिद्ध पत्रिकापराग में---बहत्तर साल का बच्चा:आबिद सुरती,चींटीपुरम के भूरेलाल:मुद्राराक्षस,भागे हुये  डैडी:के0पी0सक्सेना,नागराजवासुकी की मणि:देवराज दिनेश तथा शाबास श्यामू:डा0श्रीप्रसाद आदि धारावाहिक उपन्यास प्रकाशित हुये थे।
    उसी दौर में प्रेमस्वरूप श्रीवास्तव द्वारा लिखे गए बाल उपन्यासमौत के चंगुल मेंको आधुनिक साज-सज्जा के साथ प्रकाशित करके नेशनल बुक ट्रस्ट ने न केवल बाल पाठकों को एक अनोखा उपहार दिया है अपितु रहस्य रोमांच और ऐतिहासिक यात्राओं में रुचि रखने वाले आम पाठकों को नेहरू बाल पुस्तकालय योजना की एक अमूल्य निधि सौंपी है।
        विकलांग,अपाहिज,अंधे-बहरे,लूले,लंगड़े और बदसूरत बच्चों को केन्द्र में रखकर लिखे गये इस उपन्यास की कथावस्तु अद्भुत है। इसे मिस्टर वाटसन की सनक कहा जाय या अपाहिज बच्चों के प्रति उनका असीमित स्नेह कि ऐसे बच्चों के प्रति उसने अपना संपूर्ण जीवन समर्पित कर दिया। अपाहिज बच्चों की खुशी में अपनी खुशियां तलाशने वाले मि0 वाटसन का परिचय उपन्यासकार ने इन पंक्तियों में दिया है:--जाड़े की ठिठुरती रात हो या आग की तरह तपते गर्मी के दिन,वह(वटसन) इन बच्चों के लिये दौड़ता ही रहता। उसका कमरा एक छोटा-मोटा अस्पताल नज़र आता था।रात में दो-दो,तीन-तीन बार उठकर वह इन बच्चों के कमरों के चक्कर लगाता।किसी भी बच्चे की मामूली कराह सुनकर वह बेचैन हो जाता। जब तक उसे मीठी नींद में सुला नहीं देता,वह अपने बिस्तर पर नहीं लौटता।‘—(पृष्ठ7)
             ऐसे धुनी और लगन के पक्के वाटसन ने जब इन अपाहिज बच्चों को दुनिया की सैर कराने का बीड़ा उठाया तो उसका सहयोग करने के लिये कई संपन्न लोग आगे आ गये। दुनिया के सभी बड़े देशों की सरकारों ने भी इस पुण्य काम में सहयोग करने का आश्वासन दिया। जहाज कम्पनी के मालिक हक्सले ने आसानी से एटलस जहाज का प्रबन्ध कर दिया।
         यात्रा वह भी कई दिनों की,कई देशों की----खट्टे-मीठे अनुभवों की-----इस यात्रा को लेकर उन अपाहिज बच्चों में जितना उत्साह और रोमांच था उससे कहीं ज्यादा उत्साहित थे मि0वाटसन ---आखिर यह यात्रा उनके जीवन की प्रस्थान बिन्दु थी।न्युयार्क बंदरगाह से आरंभ होकर जार्जटाउन,साउथैम्प्टन, जिब्राल्टर,पोर्टसईद,मुम्बई,सिडनी,शंघाई तथा याकोहामा होते हुये सैन्फ़्रान्सिसको तक की यह यात्रा मि0वाटसन की सोची समझी रणनीती का हिस्सा थी।इस यात्रा के आरंभ में ही उपन्यासकार ने वाटसन के हवाले से एक बड़ा संदेश दिया है जिसमें पूरे संसार को एक परिवार बताया गया है:---हमें अपने मन की आंखों को इस दूरबीन की तरह ही बना लेना चाहिये ताकि दुनिया के मनुष्य हमें अपने एकदम करीब दिखाई दें। यह समूचा संसार एक बहुत बड़ा परिवार है न।-----(पृष्ठ28)
                 विकलांग बच्चों को लेकर एटलस भारत के मुम्बई बंदरगाह पर आया तो सरकार की ओर से न केवल उन बच्चों का स्वागत किया गया,बल्कि भारत के विकलांग बच्चों का एक दल उसमें शामिल करके भारतीय बच्चों को भी दूसरे देशों की यात्रा का आनन्द उठाने का अवसर प्रदान किया गया। उपन्यासकार ने भारत दर्शन के बहाने प्रसिद्ध ऐतिहासिक स्थानों का उल्लेख करके आधुनिक भारत का एक जीवंत चित्र प्रस्तुत किया है।
                 उपन्यासकार ने यात्रा के इसी क्रम में एक भारतीय सन्यासी का प्रवेश कराकर कथासूत्र को ऐसा मोड़ दिया है जिसमें न केवल भारत की परंपरा के दर्शन होते हैं अपितु ईश्वर के प्रति हमारी आस्था का रंग और गहरा हो जाता है। सन्यासी की भविष्यवाणी वाटसन को दी गयी एक सलाह है:--तुम लोगों को रास्ते में एक भयानक संकट का सामना करना पड़ेगा।लेकिन भगवान को मत भूलना,वह सबकी रक्षा करेगा।(पृष्ठ--36)
            उपन्यास के बीच में साहस और रोमांच के कई पड़ाव आए हैं जिसमें बंगाल के जंगल में एक भयंकर सांप द्वारा रोज़ी को लिपटाना तथा कमांडर जयकुमार मुखर्जी द्वारा सांप को मारकर रोज़ी को बचाना के महत्वपूर्ण घटना है। बदला लेने की नीयत से क्रोधी स्वभाव वाले शरारती जेम्स ने किटी को समुद्र में धकेल दिया था परंतु हवा और समुद्र की लहरों के  संयोग से वह जीवित बच गया। उपन्यासकार ने इस घटना का ताना-बाना इतने सलीके से बुना है कि यह घटना संयोग कम ईश्वरीय कृपा अधिक लगती है। घटना के बाद उदार किटी का जेम्स के प्रति व्यवहार सच्ची इंसानियत का एक जीता-जागता नमूना है:---बोलो जेम्सकहीं इस तरह की शरारत भी की जाती है कि किसी की जान ही चली जाए।मुझे समाप्त कर देने से तुम्हें क्या मिलतातुम्हारे साथियों  में आज एक कम हो जाता।---------------------उसी दिन से जेम्स की सारी शरारतें छूट गयीं। वह दया और प्रेम का जीता-जागता पुतला बन गया।---(पृष्ठ--49)
      आगे चलकर भारतीय सन्यासी की भविष्यवाणी सच हुयी और एटलस भयंकर तूफ़ान में फ़ंस गया। जब एटलस का संपर्क दुनिया के देशों से टूट गया तो उसे खोजने के लिये सिडनी बंदरगाह से ग्लोब तथा हांगकांग से एशिया नामक जहाज निकल पड़े।भारतीय जहाज सन आफ़ इंडिया भी कैप्टन यशवन्त सिंह के नेतृत्व में एटलस की खोज में निकल पड़ा।धीरे-धीरे तूफ़ान का रुख बदला परंतु एटलस पर अभी भी संकट के बादल मंडरा रहे थे।काफ़ी जद्दोजहद के बाद एटलसकी खोज में निकले तीनों जहाजों का एटलस से संपर्क हो पाया।
   दरअसल एटलस पर छाए खतरे के बादलों का प्रकोप सही अर्थों में चूहे बिल्ली का खेल था।स्थिति यहां तक पहुंच गयी कि समुद्र की तेज लहरों में फ़ंसा एटलसकिसी भी समय डूब सकता था। संकट की इस घड़ी में कैप्टन यशवंत सिंह ने अपने साहस,लगन और धैर्य से सात सौ अपंग बच्चों को समुद्र की बेरहम लहरों से उबारा तेजी से डूब रहे। एटलससे बच्चों को बचाकर डेक के खुले हिस्से पर स्थानान्तरित कर दिया गया। इस पूरे घटनाक्रम में जिस तरह से बच्चे मौत के तांडव से बचे,उसे देखकर विलियम का ईश्वर के प्रति विश्वास और बढ़ गया:--हमने मौत को पूरी तरह मात दे दी है। सच बात तो यह है कि इन बच्चों का शरीर गढ़ने में विधाता ने भले ही भूल की हो मगर इनका भाग्य लिखते समय वह बेहद खुश थे।---(पृष्ठ--77)
                प्रस्तुत उपन्यास का समापन सुखांत है।दुनिया के सात सौ अपंग बच्चों की यह खट्टी-मीठी यात्रा उत्साह और उमंग का समन्वय है। इस यात्रा को जय कुमार मुखर्जी और यशवंत सिंह के साहस और विवेक से लिये गये निर्णय ने और भी महत्वपूर्ण बना दिया है। उपन्यास का शीर्षक मौत के चंगुल में बड़ा ही उपयुक्त है।क्योंकि सामने खड़ी मौत की जिस त्रासदी को अपंग बच्चों ने झेला था वह अपने आप में दिल दहला देने वाली थी।यह ईश्वर का लाख-लाख शुक्र है कि बच्चे इस त्रासदी से बाल-बाल बच गये।
         यह समाज की विडंबना है कि विकलांग बच्चों को प्रायः आदर की दृष्टि से नहीं देखा जाता है। आम बच्चों से भी उनकी दूरी बनाकर रखी जाती है। उपन्यासकार ने अपाहिज और अनाथ बच्चों को केन्द्र में रखकर समाज की इस विडंबना को बदलने का प्रयास किया है। पूरे उपन्यास में जगह-जगह भाई-चारे जा अप्रत्यक्ष संदेश इस उपन्यास की एक और विशेषता है।
           उपन्यास की भाषा-शैली इतनी सरल और रोचक है कि पूरा उपन्यास एक ही बैठक में पढ़ा जा सकता है।बिखरे हुये कथासूत्र की तारतम्यता पाठकों का ध्यान बरबस अपनी ओर आकृष्ट करती है। मजे हुए चित्रकार पार्थसेन गुप्ता के बहुरंगी चित्रों का भी अपना आकर्षण है।मुखपृष्ठ तो साहस और चुनौती का पूरा जीता-जागता उदाहरण है।
                          --------------


इस उपन्यास के समीक्षक डा0सुरेन्द्र विक्रम, क्रिश्चियन पोस्टग्रेजुएट कालेज लखनऊ में हिन्दी के एशोशिएट प्रोफ़ेसर एवंविभागाध्यक्ष हैं।आप प्रतिष्ठित बाल साहित्यकार एवं बाल साहित्य आलोचक हैं।

मोबाइल--09450355390 
   

शनिवार, 9 मार्च 2013

अपने लिये भी---।


चुरा लो समय से कुछ पल
अपने लिये भी
मांग लो थोड़ा सा वक़्त
अपने लिये भी
कल रहो या न रहो
ढूंढ़ लो कोई ठिकाना
अपने लिये भी।

दूसरों पर और खुशियां
लुटाओगे कब तलक
बचा लो थोड़ी सी खुशी
अपने लिये भी।
कटु वचन को अपने अंदर
घोलोगे कब तलक
मांग लो दो शब्द प्रेम के
अपने लिये भी।
खुद जियो और जीने दो दूसरों को
मान लो इस सत्य को
अपने लिये भी।
000
पूनम


सोमवार, 4 मार्च 2013

टाल मटोल


टालमटोल  टालमटोल
सब करते हैं टालमटोल।

भैया से पूछूं तो कहते
अभी बताता हूं पहले तू
ठंढा पानी दे के मुझको
चाय में थोड़ी चीनी घोल
टालमटोल------------।

दीदी से कुछ बात करूं तो
प्यारी सी एक चपत लगाती
हाथ पकड़ चक्कर लगवातीं
फ़िर कर जाती बातें गोल
टालमटोल------------।

सारे दिन चौके में अम्मा
रोटी बेला करतीं गोल
पूछूं ये बनती है कैसे
तो हंस के कहतीं ज़रा कम बोल
टालमटोल--------------।

पेपर पर बाबू की नजरें
पढ़ती दुनिया का भूगोल
बोलूं इसमें क्या है ऐसा
कहते अक्ल के ताले खोल
टालमटोल------------।

मेरे मन में कई सवाल
पर मिला न कोई सही जवाब
दोस्त जरा तुम ही बतलाना
बातो का हमारी क्या है मोल
टालमटोल  टालमटोल
सब करते हैं टालमटोल।
********
पूनम




बुधवार, 20 फ़रवरी 2013

उम्मीदें


दिल में तूफ़ानों का सैलाब है मगर
फ़िर भी होठों पर हसीं-मुस्कान लिये हैं।

नाव मझधार में फ़ंसी है मगर
फ़िर भी उम्मीदों की पतवार लिये हैं।

शरीर थक रहा है धीरे धीरे मगर
फ़िर भी अरमानों का आगाज लिये हैं।

भीगी भीगी आंखों से देख रही राह मगर
फ़िर भी वो आएगा या नहीं इंतजार लिये हैं।
000
पूनम





बुधवार, 23 जनवरी 2013

उड़ान


कुछ परिन्दों का दीदार कर लूं तो चलूं
सपनों को थोड़ा उड़ान दे दूं तो चलूं।

उड़ने से पहले ही पर कट न जाय कहीं
उनको कटने से बचा लूं तो चलूं।

झुग्गी झोपड़ियों में बहती है नीर की धारा
उनके आंसुओं को जरा पोंछ लूं चलूं।

उम्मीदों के दीप जो जलाए हैं हमने
उन्हें औरों तक पहुंचा दूं जरा तो चलूं।

कुछ पुण्य किये हैं तो पाप भी बहुत हमने
खुदा की इबादत कर लूं जरा तो चलूं।
000
पूनम



रविवार, 13 जनवरी 2013

यादों का सिलसिला


यादों का सिलसिला चलता है साथ साथ
यादों के साए से निकलना बड़ा मुश्किल।

गुजरता है जमाना गुजर जाते हैं लोग
बिखर जाता परिवार समेटना बड़ा मुश्किल।

कहते हैं वक्त हर मर्ज का इलाज पर
छोड़ गये हैं जो निशान उसे मिटाना बड़ा मुश्किल।

बीते हुये लम्हों का रहता ना हिसाब
फ़िर से जवाब पाना होता बड़ा मुश्किल।

ये समझना और समझाना होता नहीं आसान
जिन्दगी बख्शी जिसने उसी को समझाना बड़ा मुश्किल।

                0000
पूनम

मंगलवार, 1 जनवरी 2013

नारी


मैं किसी बंधन में बंधना नहीं जानती
नदी के बहाव सी रुकना नहीं जानती
तेज हवा सी गुजर जाये जो सर्र से
मैं हूं वो मन जो ठहरना नहीं जानती।

वो स्वाभिमान जो झुकना नहीं जानती
करती हूं मान पर अभिमान नहीं जानती
जो हाथ में आ के निकल जाये पल में
मैं हूं ऐसा मुकाम जो खोना नहीं जानती।

हाथ बढ़ा कर समेटना है जानती
कंधे से कंधा मिलाना है जानती
गिरते हुये को संभालना है जानती
मैं हूं आज की नारी जो सिसकना नहीं जानती।

मन में बसाकर पूजना है जानती
आंखों में प्यार व अधिकार है मांगती
मैं हूं आज के युग की नारी
जो धरा से अंबर तक उड़ान है मारती।
-----
पूनम