गुरुवार, 30 जून 2016

बरसो बदरवा

घनन घनन अब बरसो बदरवा
धरती का हियरा तड़पत है
खेतिहर की अंखियां हरदम
अंसुअन से अब भीगत हैं।

राह निहारे पंख पसारे
पाखी एकटक देखत हैं
अब बरसोगे तब बरसोगे
मन में आस लगावत हैं।

बिन पानी सब सूना सूना
जीव सभी अब भटकत हैं
दिखे पानी की एक बूंद
सब पूरी जान लगावत हैं।

बड़ी बेर भई बादल राजा
सावन सब कहां निहारत हैं
नैनन में अंसुअन भर भर के
सब अपनहि देह भिगोवत हैं।
0000
पूनम श्रीवास्तव


गुरुवार, 23 जून 2016

बेचारा

वो अनाथ हो गया था जब उसकी उम्र आठ साल की थी।सर पर से मां-बाप दोनों का साया उठ गया।बिखर गया था उसका बचपन और वो रह गया था अकेला इस पूरी दुनिया की भीड़ में।
   वो था बहुत ही गरीब परिवार का।किसी ने भी आगे बढ़ कर उसका हाथ नहीं थामा।किसी ने उसके आंसू नहीं पोंछे।पर जब लोग उस मासूम को देखते तो सबके मुंह से बस एक आह सी निकलती—“अब क्या करेगा ये बेचारा?क्या किस्मत लेकर पैदा हुआ बेचारा? कैसे ज़िन्दगी पार करेगा?हाय! अनाथ हो गया बेचारा।” उसका नाम ही बेचारा पड़ गया था।बस हर वक्त जब वह अपनी झोपड़ी से बाहर निकलता उसके कानों में वही आवाज़ें गूँजती।सुनने को मिलती जिसे सुनते-सुनते उसका मन परेशान हो उठता
      उस पर ईश्वर ने एक कृपा की थी।वो दृढ़ निश्चयी था। मज़बूत इरादों वाला।मां–बाप को गुज़रे छ: महीने हो गये थे।धीरे धीरे वह भी अपने को समझाने लगा था।जब वो सोता तो उसे सपने में मां का कहा वाक्य कानों मे सुनायी देता-“बेटा जिसका दुनिया मे कोई नही होता उसका भगवान साथ देता है।”बस यही पंक्तियां उसके मस्तिष्क मे घर कर गयी थीं।वह ईश्वर के सामने बैठ रोज़ हाथ जोड़ता और कहता-“हे भगवान मुझे इतनी शक्ति दे दो कि मैं कुछ कर सकूं और अपने साथ साथ औरों का भला कर सकूं।ईश्वर ने उसकी बात सुन ली।अब लड़के ने मन मे निश्चय किया उसे कुछ करना है कुछ बनना है।
  कच्ची उम्र,भारी काम तो वह कर नहीं सकता था।पढा लिखा भी नहीं था। सो उसने हल्के काम करने शुरु किये। साहब लोगों की गाडियां साफ़ करता,जूते पालिश करता,साग सब्जी ला देता था।बदले में उसे भरपेट खाना व पगार मिल जाती थी।जितनी भी थी वह उससे सन्तुष्ट था।दस बरस बीत गये थे।अब वह जवान हो चला था। अब उसका काम पहले जैसा नहीं था बल्कि और बडे बडे काम करने लगा था व
        वह लकडियां काटता उनके गठ्ठर बनाता और उन्हें शहर बेचने ले जाता।माल ट्रकों पर लदवाता और उन्हें सही जगह  भेजता था।वह काम के प्रति पूर्ण रूप से निष्ठावान था। उसके काम से कभी किसी को कोई शिकायत नहीं रहती थी। सभी लोग उसके काम से खुश रहते थे।
एक दिन कि बात है जब वह लकड़ियों के गठ्ठर बना रहा था तो उसकी नज़र दूर पे के पास बैठे एक लके पर पड़ी।जो बमुश्किल 7-8 साल का था।वह उस लके के पास गया प्यार से सिर सहलाते हुए पूछा-“क्या भूख लगी है?”उस लके ने हां में सिर हिलाया।तो वह लका अपना काम छो कर पास की दुकान से दही जलेबी व ब्रेड ले आया और उस बच्चे से बोला-‘लो खाओ”।बच्चा भूखा तो था ही।किसी का प्यार पाकर उसकी आखों से झर झर आंसू बहने लगे।लडके ने कहा-“रो मत, पहले खा लो।” फ़िर लका झट्पट खाने क सामान चट कर गया। तुम कहां रहते हो?लके ने ना मे गर्दन हिलाई।तब वह लका उस बच्चे को लेकर अपने घर आ गया।और बच्चे से बोला-“चलो आराम कर लो तुम्।तब तक मैं अपना अधूरा काम पूरा कर के आता हूं ।”
       सुबह जब वह सो कर उठा तो उसे बहुत ही अच्छा लग रहा था।उस समय वह लडका अपने और बच्चे के लिये चाय बना रहा था।तब बच्चे ने कहा-भैया मै भी आपके साथ काम पर चलूंगा। थोड़ी देर सोचने के बाद लड़के ने पूछा-तुम्हारा नाम क्या है?बच्चे ने कह-रवि।और उसने फ़िर उस लड़के कि तरफ़ देखा और पूछा- भैया आपका नाम क्या है? लड़के ने कहा कि कुछ भी कह लो।मुझे तो बेचारा नाम इसलिये याद है क्योंकि बचपन में अपने लिये सिर्फ़ यही नाम मैंने सुना है।और फ़िर हंस पड़ा। अच्छा चलो चलते हैं काम पर ।फ़िर रवि को साथ लेकर वह माल ढोने की जगह गया।फ़िर उसने रवि से कहा तू चुपचाप यहीं बैठा रह।कहीं जाने की ज़रूरत नहीं है।काम खत्म होते ही साथ मे घर चलेंगे।थक-हार कर दोनों घर लौटे, थोड़ा चाय पानी किया फ़िर ज़मीन पर चटाई बिछा कर लेट गये।रवि तो सो गया लेकिन लड़के को रात भर नींद नही आयी।
     वो कुछ सोच रहा था।फ़िर उसने रवि की तरफ़ देखा।रवि को देखते देखते उसके मन में अपने बचपन के दिन याद आ गये।बचपन में जो गरीबी देखी थी उसने उसे याद कर ही वह सिहर उठा।अनाज के एक एक दाने को वो लोग मोहताज रहते थे।ईश्वर किसी को वैसे दिन न दिखलाए।उसकी आंखों में आंसू झिलमिला उठे।उसने अपने मन में निश्चय किया कि वह रवि जैसे और बच्चों को अपने साथ रखेगा।ताकि कोई उन्हें बेचारा न कह सके।ऐसे किसी बच्चे को कोई अनाथ न कह सके।तब उसकी आंखों में दृढ़ निश्चय और संतोष का भाव दिखायी पड़ा।फ़िर वह भी चैन की नींद सो गया।
     सबेरे उठते ही बड़े उत्साह से उसने रवि से कहा—“रवि,आज से हम अपने साथ उन बच्चों को रखने की कोशिश करेंगे जिनका इस दुनिया में कोई नहीं है।“
“बात तो सही है भैया आपकी---पर इतने सारे बच्चों को खान खिलाने के लिये पैसा कहां से आयेगा हमारे पास?” रवि ने उत्सुकता से पूछा।
लड़का रवि की बात सुन कर हंस पड़ा—“अरे पगले,किसी को कोई थोड़े ही खिलाता है।वह तो भगवान हैं जो सबके नाम का अन्न बनाते हैं।” कहने को तो वह कह गया।पर उसने अपने मन में सोचा कल से मैं और कड़ी मेहनत करूंग तभी अपने घर आये सभी बच्चों के चेहरों पर खुशी ला सकूंगा।
   अगले दिन सुबह उसने जल्दी से उठकर उसने जल्दी से चाय पिया और रवि को भी देकर काम पर चला गया।वह मेहनत और सिर्फ़ मेहनत करना चाहता था ताकि अन्य बच्चों का भविष्य भी संवारा जा सके।
    धीरे धीरे उसके यहां बच्चों की संख्या बढ़ती गयी।बच्चे भी अपने भइया के अनुरूप ही छोटे छोटे काम करके उसकी मदद कर देते थेऍहल पड़ा था अब आहिस्ता आहिस्ता उनकी खुशियों का संसारअर बच्चे का चेहरा वहां खुशी से चमकता रहता था।पर उन बच्चों की ये खुशी भी ज्यादा दिन तक नहीं चल सकी।
   एक दिन वह लड़का कुछ सामान ट्रक में लदवाकर सड़क के उस पार जा रहा था कि तभी तेजी से भागती गुयी एक कार ने उसे टक्कर मार दी। और वो वहीं पर लहूलुहान हो कर गिर पड़ा।उसके सर में गम्भीर चोट आई थी। वह वहीं तड़प कर हमेशा के लिये शान्त हो गया। आस-पास लोगों की भीड़ इकट्ठी हो गयी।उस भीड़ में कुछ उसे जानने वाले भी थे।किसी ने चिल्लाकर कहा—“अरे ये तो वही बेचारा है।
   तभी वहां पर उसके साथ रहने वाले बच्चे भी आ गये ।शायद किसी ने उन्हें भी खबर कर दी थी।उसके लिये लोगों के मुंह से बेचारा शब्द सुनकर सारे बच्चे चीख पड़े---मत कहो उन्हें बेचारा---वो बेचारे नहीं हमारे भगवान थे।उन्हीं की बदौलत आज हम कुछ करने लायक हो गये।---वो तो सभी के आदर्श थे।महान थे। हम सभी न बेचारे हैं न ही अनाथ।
   उन सभी बच्चों की आंखें नम हो आईं थीं।
उन सभी बच्चों ने मिलकर अपने बड़े भैया का अन्तिम संस्कार किया।और उनके घर के सामने उनकी मूर्ति स्थापित कर उन्हीं के आदर्शों पर चलने लगे।
      0000
पूनम श्रीवास्तव
               


रविवार, 19 जून 2016

पिता हो गये मां

पितृ दिवस पर आप सभी को हार्दिक शुभकामनाएं। आज में आपको पढ़वा रही हूं प्रदीप सौरभ की एक बहुत भावनात्मक कविता।


पिता हो गये मां

पिता दहा्ड़ते
मेरा विद्रोह कांप जाता
मां शेरनी की तरह गुत्थमगुत्था करती
बच्चों को बचाती
दुलराती
पुचकारती
मां की मृत्यु के बाद
पिता मां हो गये।

पिता मर गये और मां ने नया अवतार ले लिया
सौ साल पार कर चुकने के बाद भी
वे खड़े रहते
अड़े रहते
वाकर पर चलते
फ़ुदक फ़ुदक
सहारे पर उन्हें गुस्सा आता
वे लाचारगी से डरते।

कभी-कभी अपने विद्रोह पर खिसियाता मैं
क्षमाप्रार्थी के तौर पर प्रस्तुत होता
पिता बस मुस्कुरा देते
अश्रुधारा बह उठती
पिता मां की तरह सहलाते।

फ़िर एक दिन वे मां के पास चले गये
उनके अनगिनत पुत्र पैदा हो गये
कंधा देने की बारी की प्रतीक्षा ही करता रहा मैं
और वे मिट्टी में समा गये।

अक्सर स्मृतियों के झोंके आते
गाहे-बगाहे रात-रात सोने न देते
विद्रोह और पितृत्व की मुठभेड़ में
पितृत्व बार बार जीतता
निरर्थक विद्रोह भ्रम है और पितृत्व सत्य।

पिता मैं भी बना
दो बेटियों का
पिता क्या होते हैं तब यह मैंने जाना।

पिता बरगद होते हैं
पिता पहाड़ होते हैं
पिता नदी होते हैं
पिता झरने होते हैं
पिता जंगल होते हैं
पिता मंगल होते हैं
पिता कलरव होते हैं
पिता किलकारी होते हैं
पिता धूप और छांव होते हैं
पिता बारिश में छत होते हैं
पिता दहाड़ते हैं तो शेर होते हैं।
000


प्रदीप सौरभ:

हिन्दी के चर्चित कवि,पत्रकार और लेखक। मुन्नी मोबाइल उपन्यास काफ़ी चर्चित।“तीसरी ताली”,” “देश भीतर देश” तथा “और बस तितली” उपन्यासों के साथ 2014 में नेशनल बुक ट्रस्ट से विज्ञापन और इलेक्ट्रानिक माधयमों पर केन्द्रित पुस्तक  भारत में विज्ञापन।कानपुर में  जन्म।परन्तु साहित्यिक यात्रा की शुरुआत इलाहाबाद से। कलम के साथ ही कैमरे की नजर से भी देश दुनिया को अक्सर देखते हैं।पिछले 35 सालों में कलम और कैमरे की यही जुगलबन्दी उन्हें खास बनाती है।गुजरात दंगों की बेबाक रिपोर्टिंग के लिये पुरस्कृत। लेखन के साथ ही कई धारावाहिकों के मीडिया सलाहकार।




रविवार, 12 जून 2016

खोज

जिसे तुम खोज रहे हो
वो मिला नहीं
अब तक शायद
वक्त आगे निकल गया
और फ़िर तुम पीछे रह गये
तुम वक्त का इन्तजार
कर रहे थे
पर वक्त किसी का
इन्तजार नहीं करता
वो निरन्तर हर पल
आगे ही आगे चलता
रहता है।
लाख वक्त को पकड़ने
की कोशिश कर लें
पर वो तो यूं फ़िसल जाता है
हथेली से ज्यूं
बंद मुट्ठी से रेत।
000
पूनम श्रीवास्तव


रविवार, 29 मई 2016

जिन्दगी

जिन्दगी इक बोझ सी
लगने लगती है जब
जिन्दगी का रुख अपनी
तरफ़ नहीं होता
व्यर्थ और निरर्थक
पर तभी अचानक से
रुख पलट जाता है
खुशियों के कुछ
संकेतों से
और फ़िर
हम जिन्दगी से
प्रेम करने लगते हैं
और चल पड़ती है
जिन्दगी
खुशियों का निमन्त्रण पाकर
आगे मंजिल की तरफ़
एक अन्तहीन यात्रा पर
उल्लास से भरी।
  000
पूनम श्रीवास्तव


बुधवार, 25 मई 2016

गीत

खिल रही कली कली
महक रही गली गली
चमन भी है खिला खिला
फ़िजा भी है महक रही।

दिल से दिल को जोड़ दो
सुरीली तान छेड़ दो
प्रेम से गले मिलो
हर जुबां ये कह रही।

कौन जाने कल कहां
हम यहां और तुम वहां
पल को इस समेट लो
वक्त मिलेगा फ़िर कहां।

मिलेगी सबको मंजिलें
नया बनेगा आशियां
कदम कदम से मिल रहे
कारवां भी चल पड़ा।
000

पूनम श्रीवास्तव

सोमवार, 16 मई 2016

गज़ल

कलम चल रही जरा धीरे धीरे
भाव बन रहे मगर धीरे धीरे।

उम्मीदों की जिद कायम है अब भी
शब्द बंध रहे हैं जरा धीरे धीरे।

कसक उठ रही मन में जरा धीरे धीरे
इक धुन बन रही है जरा धीरे धीरे।

सबने मिलकर तरन्नुम जो छेड़ा
कि गज़ल बन रही है जरा धीरे धीरे।

जिन्दगी के साज बज रहे धीरे धीरे
हुआ सफ़र का आगाज जरा धीरे धीरे।
000
पूनम श्रीवास्तव