शुक्रवार, 14 जनवरी 2011

कहां गयीं वो मीठी लोरी----


अगर आप अपनी आंखें कुछ क्षणों के लिये बन्द करें। और याद करें अपने शैशव काल को----तो आपको कानों में मां द्वारा गायी जाने वाली छोटी-छोटी लोरियों की पंक्तियां---मां के मधुर स्वरों में जरूर सुनायी पड़ेंगी। हो सकता है आपने भी अपने लाडले / लाडली को सुलाने के लिये उन्हीं पंक्तियों में से कुछ को गुनगुनाया भी हो।ये लोरियां सिर्फ़ लोरियां न होकर अबोध शिशु के लिये एक सम्बल रहती थीं,इस बात का कि वो अब निर्भय होकर मां की गोद में सो जाये। दुनिया की कोई भी ताकत अब उसका किसी भी प्रकार का अहित नहीं कर सकता।

इतना ही नहीं इन लोरियों के माध्यम से ही मां अपने बच्चों को जो भी सीख देती थी, जो भी कहानियां सुनाती थी,जो भी मार्ग दिखाती थी वो बच्चे के मानस पटल पर इस तरह से अंकित हो जाती थी कि बच्चा जीवन भर उससे प्रेरणा लेता था। और अपने जीवन के किसी मोड़ पर जब वह किसी भी मुसीबत में पड़ता था तो वही लोरियां एक गुरू के समान उसका मार्ग दर्शन करती थीं। उसे हर संकट से बचाती थीं। शायद इसी लिये मां को पहली शिक्षक होने का गौरव भी हासिल है।

लेकिन आज क्या आपको किसी युवती के मुंह से अपने बच्चे को सुलाने के लिये वैसी कोई पंक्ति सुनायी पड़ती है।शायद नहीं सुनायी पड़ती होगी। आज के बढ़ते भौतिकतावद की अन्धी दौड़ और बढ़ रहे औद्योगीकरण के धुंधलके में हमारी पारंपरिक लोरियां भी खो गयी हैं।अब तो शायद बच्चों को सुलाने के लिये भी आडियो कैसेट या सी डी का सहारा लिया जाता है। बच्चा अगर थोड़ा बड़ा हुआ तो उसे या तो क्रेश में भेज दिया जायेगा या फ़िर वो किसी आया के सहारे पलेगा।ऐसे में कहां से हमें सुनाई देंगी लोरियों की मधुर पंक्तियां?

यद्यपि इसके पीछे भौतिकतावद की दौड़ तो है ही लेकिन उसके साथ ही दूसरे बहुत से भी कारण हैं। मां बाप अपने बच्चे की सुख सुविधा के लिये ही धन कमाने के लिये परेशान रहते हैं। दोनों ही अपने बच्चों का भविष्य उज्ज्वल बनाने के लिये नौकरी करने लगते हैं। संयुक्त परिवारों की परंपरा भी खत्म होती जा रही है।परिवारों में बाबा दादी नहीं हैं। बाबा दादी गांवों में रह रहे हैं या किसी अन्य शहर में।यह मजबूरी हर मां के सामने है कि वह चाहते हुये भी बच्चे के लिये समय नहीं दे पाती।बच्चा मां बाप के साथ दूर शहर के अजनबी माहौल में रहता है।ऐसे में भला बच्चे को शैशवावस्था में लोरी कहां से नसीब होगी?

मैं यहां कुछ बहु प्रचलित लोरियों की पंक्तियां उदाहरण स्वरूप दे रही हूं।उनमें जो सन्देश जो भाव हैं ,उनके लिये तो आज के बच्चे तरसते ही हैं--- लल्ला लल्ला लोरी / दूध की कटोरी / दूध में बताशा / मुनिया करे तमाशा । अब इन पंक्तियों में शब्दों का जो दुहराव है वो तो बच्चे को सोने की दवा का काम करेगा ही। इसके साथ ही जो भावना इस लोरी के साथ जुड़ी है कि मां चाहे गरीब हो या अमीर---वो हर हालत में बच्चे को दूध बताशा खिलायेगी।इसी तरह जरा आप इन पंक्तियों पर भी विचार करें------- चन्दा मा मा ---आरे आवा पारे आवा / नदिया किनारे आवा /सोने की कटोरिया में /दूध भात लेहले आवा / बाबू के मुइयां में घुटुक

चांदनी रात में जब मां अपने प्यारे बच्चे को कन्धे पर लेकर सुलाने की कोशिश करती हुयी यह लोरी गाती होगी---तो उसके मन का सारा प्यार,स्नेह बच्चे को सुलाने के लिये काफ़ी होता होगा----उस पर से चन्दा मामा से की गयी यह स्नेहसिक्त याचना---निश्चय ही बच्चा जीवन पर्यन्त मां की यह लोरी नहीं भूलेगा।

इसी तरह एक लोरी पर आप और गौर फ़रमाइये-----

सो जा प्यारी गुड़िया रानी/ मेरी प्यारी राज दुलारी/राज कुवंर जी आयेंगे / एक दिन तुझे ले जायेंगे-----

इस लोरी में भी मां अपनी प्यारी बेटी को यह कह कर सुलाने की कोशिश कर रही है कि ---मेरी राजदुलारी सो जा --- मैं तेरे लिये राजकुमार ही ढूंढ़ कर तेरा विवाह करूंगी।

लेकिन अफ़सोस की बत यह है कि आज हम इन प्रचलित लोरियों को भूलते जा रहे हैं। आज के समाज की स्थिति तो यह हो चुकी है कि बच्चों को माता पिता शुरू से ही टेलीविजन,वीडियो गेम,और कार्टून के आदी बनाने लगते हैं। लोरियां सुनने की उम्र में ही बच्चा कार्टून नेटवर्क और एनिमेशन फ़िल्मों के मायाजाल में उलझने लगता है। और शैशवावस्था में ही वह मां की गोद में सोने के बजाय या तो क्रेश में पहुंच जाता है या फ़िर आया की गोद में। ऐसी स्थिति में कहां से उसके अन्दर मां पिता, बाबा दादी, या नाना- नानी के प्रति संवेदनायें जागृत हो पायेंगी ? कहां से वो जुड़ पायेगा परिवार के साथ?आज हम सभी को मिल कर लोरियों की इस खतम हो रही परंपरा को बचाना ही होगा। इसी विचार से प्रेरित होकर मैंने यह लोरी लिखी है। आप भी मेरी इस लोरी को पढ़िये और फ़िर से एक बार अपने शैशवकाल में वापस लौट जाइये----

एक लोरी

लाडली ओ लाडली
सो जा मेरी लाडली
देर न कर निंदिया रानी
सोने चली मेरी लाडली।
लाडली…………………

मां पापा की लाडली
बहना की तू सखी भली
भइया को प्यारी गुडिया
जैसी बहना तू मिली।
लाडली…………………

तू नाजुक फूलों जैसी
निश्छल तू दर्पण जैसी
तेरी मुस्कराहट पर
खिलती दिल की कली कली।
लाडली……………………

तू शीतल सी चांदनी
जो छेड़े दिल की रागिनी
तेरी बोली लगती ऐसी
मिश्री की जैसी डली।
लाडली……………………

मां की उंगली पकड़ के घूमी
घर आँगन और गली गली
सब कुछ सूना सूना लगता
बिन तेरे मेरी लली।
लाडली…………………

पढ़ लिख कर तू नाम करे
जग तुझपे अभिमान करे
तेरी रोशनी से रोशन हो
धरती से अम्बर की गली।
लाडली…………………………


मां का लाडला एक दिन कोई
तुझको लेने आयेगा
मां का आँचल सूना करके
उसके संग तू हो चली।
लाडली……………………

तेरे जीवन में खुशियों की
बगिया हो महकी महकी
पर भूल न जाना तू कभी
मां के आंगन की गली।
लाडली ओ लाडली
सो जा मेरी लाड़ली।
***************

पूनम

रविवार, 9 जनवरी 2011

अभिमान


अभिमान न करना खुद पे तुम

अभिमानी कहां ठहरता है

नजरों से उतरता एक बार जो

फ़िर दिल से उतर जाता है।

रावण था विद्वान बहुत

था बड़ा अभिमानी भी

डंका बजता तीनों लोक में

था ना कोई सानी भी।

अभिमानी दुर्योधन भी था

और बहुत ही बलशाली

द्यूतक्रीड़ा के बहाने दांव पे

द्रुपद सुता लगा डाली।

मद में चूर दुर्योधन जा

श्रीकृष्ण सिरहाने खड़े हुये

नम्रता दिखाई अर्जुन ने

बन सारथि उनके खड़े हुये।

अभिमानी का हश्र हमेशा

ऐसे ही तो होता है

मान न दे जो दूजों को

वो ही अभिमानी होता है।

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पूनम