(कल 31जुलाई को मेरे स्व०पिताजी(श्वसुर जी)आदरणीय श्री प्रेमस्वरूप
श्रीवास्तव जी की तीसरी पुण्य तिथि है।इस अवसर पर पाठकों के लिए प्रस्तुत है उनकी एक कहानी
“बेटी”। यह कहानी पिता जी ने सन 2010 में लिखी थी।बेटियों को समाज में उचित स्थान दिलाने के एक
प्रयास वाली यह कहानी आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी 2010में थी।–-पूनम श्रीवास्तव)
बेटी
प्रेमस्वरुप
श्रीवास्तव
शेफाली आज बेहद खुश थी।इसलिए नहीं कि
शहर के एक प्रतिष्ठित कालेज में उसे एडमिशन मिल गया था।वह इतनी टैलेन्टड
थी कि उसे एडमिशन पाने की कोई चिन्ता नही थी।उसकी खुशी की वजह
यह थी कि जब से पापा यहां ट्रांसफर होकर आये वे इसी बात को लेकर रात दिन परेशान
रहते थे।उनकी वह परेशानी आज दूर हो चुकी थी।
लेकिन पापा के पास तो परेशानियों का भण्ड़ार था।एक जाती तो दूसरी
निकल आती। शेफाली का कालेज
घर से काफी दूर था।वे नजदीक के किसी कालेज में एड़मिशन चाहते थे।पर कालेज
स्टैडर्ड हो और करीब भी, ये दोनो बातें एक
साथ संभव नही थीं।अब शेफाली अकेली इतनी दूर कैसे जायेगी।उस रूट पर हर दस
मिनट पर आटो आते आते जाते थे।पर इससे क्या हुआ।जमाना खराब है।शेफाली का आना
जाना कैसे सुरक्षित होगा।वैसे उनका आफिस उधर ही था।पर शेफाली उनके
साथ नही जा सकती थी। पीरियड के हिसाब से उसे कभी देर तो कभी सबेरे जाना होगा।
शेफाली ने पापा को समझाया -“ पापा, आप क्यों इतनी चिन्ता करते हैं। मैं अब छोटी सी बच्ची तो रही नहीं ।मै किसी भी परेशानी
से निपटने में सक्षम हूँ। हाँ, आप से आने जाने
में काफी पैसे लगेंगें।इसलिए आप मुझे एक स्कूटी खरीद दीजिए तो पैसे और समय,
दोनो की काफी बचत हो सकती है । ”
पापा चौंक पड़े, शेफाली महानगर की इतनी भीड़ भाड़ वाली सड़क पर स्कूटी चलायेगी,
तरह तरह के एक्सीडेन्ट की काल्पनिक तस्वीरें
उनके जेहन में नाचनें लगीं, अखबार इन्ही
खबरों से पटे रहते है।
पापा के चेहरे पर चिन्ता की लकीरें देखते ही
शेफाली हँस कर बोली-“ पापा, मै जानती हूँ, मेरी इस बात से आप क्यों चिन्ता में पड़ गये, मै लड़की हूँ न, डरिये मत पापा, आपकी यह बेटी तो एक दिन आकाश की ऊँचाइयों में छलांग लगाकर दिखयेगी।”
“नही बेटी मै यह नही करूँगा, आटो मे जो भी पैसे लगते है लगने दे, वह तेरी स्कूटी से ज्यादा सुरक्षित साधन है।” पापा बोले।
“लेकिन पापा, यहाँ तो भीड़ इतनी है कि आटो में जगह पाने के लिए मेरा बड़ा
वक्त लगेगा, छोटे बड़े सभी तो
अपने अपने साधन से आ जा रहे हैं, अब एक्सीडेंट के
डर से कोई अपने घर तो नहीं बैठा रहता।”
“लेकिन
शेफाली......” पापा और कुछ
बोलते कि शेफाली ने बात बीच में ही काट दी........ “पापा आपके इसी भय ने क्या गौरव भैया के पूरे कैरियर को नहीं
प्रभावित कर दिया। उन्होंने किस हौसले से डाक्टरेट की डिग्री हासिल की थी़
किन्तु जब पोर्ट ब्लेयर के गर्वनमेंट कॉलेज में उनका एप्वाइंटमेंट हुआ तो आपने
उन्हें नहीं जाने दिया। ”
“पोर्ट ब्लेयर का मतलब जानती है तू ? अंग्रेजों के जमाने का काला पानी, अंडमान निकोबार, भला इतनी दूर जाने की इजाजत मैं कैसे देता, जिधर भी नजर डालो बस समन्दर ही समन्दर ।”
“अब वह जमाना नहीं
रहा पापा, आज दूरियों का कोई मतलब
नहीं होता, फिर बाद में उनका तबादला
दिल्ली भी हो सकता था, या किसी भी
सेन्ट्रल कॉलेज में।समाज कल्याण विभाग में सहायक निदेशक के पद पर उनकी नियुक्ति
बाड़मेर जैसलमेर जोन में हो रही थी।”
“हाँ हाँ, मगर बेटी वह रेगिस्तानी इलाका है, एक एक बूँद पानी के लिए तरस जाते हैं लोग,
फिर पाकिस्तान का बार्डर भी करीब, हमेषा जान का खतरा, मैंने उसे इसीलिए वहाँ जाने नहीं दिया .”
श्षेफाली हँस कर
बोली-“पापा भूल जाइये अब वह
जमाना।आज तो रेगिस्तानों में भी हरियाली झूम रही है। फिर एकदम बार्डर
पर लोग कितना निडर हो कर रह रहे हैं ।वैसे बाद में भइया अपने हेड क्वार्टर दिल्ली शिफ्ट
हो जाते, भइया कितने डिप्रेशन में
आ गये थे, किसी तरह उससे उबरे तो आज
एक मामूली प्राइवेट फर्म में उन्हें मुश्किल से नौकरी मिली।डाक्टरेट करने के
बाद भी किसी तरह नमक रोटी का ठिकाना।डाक्टरेट करने में उन्हें कितनी मेहनत करनी पड़ी
थी, कितना वक्त जाया किया
उन्होंने ।क्या आप अपनी बेटी के साथ भी यही चाहते हैं ।” शेफाली ने पापा
की आँखों में आँखें डाल कर कहा।
शेफाली की आँखों
की चमक के आगे पापा को झुकना पड़ा। दो दिन बाद ही घर में स्कूटी आ गई। शुरु के चार-छः
दिन पापा अपना स्कूटर उसके साथ ही ले जाते रहे, फिर उसकी ड्राइविंग निपुणता देख उनके तमाम भय और आशंका आप
से आप खत्म हो गये, वे निश्चिन्त हो
गए, मगर ऑफिस से प्रतिदिन
पत्नी को फोन करना न भूलते कि शेफाली आ गई या नहीं, फिर धीरे-धीरे यह भी छूट गया .
ग्रेजुएशन के बाद
शेफाली ने आगे की क्लास में एडमिशन ले लिया।समय यों ही गुजरता जा रहा था, मगर एक दिन शेफाली ने पापा की जिन्दगी में
भूचाल सा ला खड़ा किया, उस दिन ऑफिस से
लौटे पापा नाश्ता कर रहे थे कि शेफाली बोली-“पापा मैं कुछ कहूँ तो आप नाराज तो नही होंगे ?”
“नहीं बेटी,
भला तू मुझे नाराज करने वाली कोई बात कहेगी ही
क्यों, बोल क्या कहना चाहती है।”
“पापा मेरी दो तीन
सहेलियों ने एयरफोर्स में पायलेट की ट्रेनिंग के लिए एप्लाई किया है, क्या मैं भी एप्लीकेशन दे दूँ ?”
पायलेट! पापा के
सिर से पैर तक जैसे एक सर्द हवा का झोंका गुजर गया।मतलब कि ऊपर जहाज
को आसमान में उड़ाने वाले पायलेट की ट्रेनिंग---वह भी एयर फोर्स में---उन्होंने तो उसे
डॉक्टर, इंजीनियर या प्रशासनिक
अधिकारी बनाने के सपने पाल रखे थे।और यह उनकी बेटी हर पल खतरे में जीने वाली नौकरी
की बात कर रही है। वे गंभीर स्वर में बोले-“जिस नौकरी में कब जिन्दगी का आखिरी पल आ जाए, तू वहाँ की बात कर रही है। नहीं शेफाली बेटे नहीं।तुझे तो एक से एक
अच्छी नौकरी मिलेगी।”
शेफाली जानती थी---पापा
का यही उत्तर होगा।लेकिन वह निराश हुए बिना हँस कर बोली--“पापा मैं तो एक कोशिश करके देखना चाहती हूँ।मेरा सेलेक्शन
कहाँ हुआ ही जा रहा है। हजारों में किसी एक को चांस मिलता है।जिन्दगी और मौत
का खेल कहाँ नहीं होता।फिर आप यकीन मानिए, मेरे हाथ की लकीरें बता रहीं हैं कि मैं आकाश की ऊँचाइयों को छूने वाली हूँ।मौत को मैं कभी
पास नहीं फटकने दूँगी, और हाँ याद कीजिए।ये आप ही के शब्द
हैं न - “दोस्तों, हर पल को जियो अन्तिम पल ही जान, अन्तिम पल है कौन सा, ये कौन सका है जान!”
इस क्षण भी
शेफाली की आँखों में वही आत्मविश्वास की भरपूर चमक थी।एक जादू भरी चमक।पापा उसके
सम्मोहन से अपने को नहीं बचा पाए।,उन्होंने नाश्ता खत्म कर चाय की आखिरी चुस्की
के साथ उसकी ओर मुस्करा कर देखा।शेफाली उनके गले से लिपटती हुई बोली-- “पापा आप सचमुच कितने ग्रेट हैं ।”
काश--गौरव के केस
में उन्होंने यह ग्रेटनेस दिखाई होती। तब गौरव का चेहरा कैसा
मुर्झाए फूल सा हो उठा था। फिर उसके चेहरे पर कभी
रौनक नहीं दिखाई दी।आज भी वह अपने ऑफिस से थका माँदा लौटता है तो वैसा ही
मुर्झाया चेहरा लिए हुए।मगर आज शाम उस चेहरे को देख वे पहली बार मन ही मन रो पड़े।आज तक उन्होंने
कभी इसे इस शिद्दत से नहीं अनुभव किया था।शायद शेफाली ने ही उन्हें यह अनुभव करने की
चेतना दी।लेकिन अब क्या हो सकता था ? कुछ नहीं।
एक दिन शेफाली ने
सचमुच छलांग लगा दी।पायलट के प्रशिक्षण के लिए वह चुन ली गई।जिसने सबसे पहले
उसे बधाई दी वह था गौरव।वह अपने सारे दर्द भुला कर बस मुस्करा रहा था।यह बात नहीं कि
शेफाली उसकी मुस्कराहट के पीछे छिपे दर्द को नहीं पहचान रही थी।पर इसके साथ वह
कुछ और भी सोच रही थी अपने बड़े भाई के लिए।
पायलेट का प्रशिक्षण
कोर्स पूरा कर एक दिन शेफाली अपने यूनिफार्म में सबके सामने आ खड़ी हुई।पापा, मम्मी, गौरव, सब चकित से उसे देखे जा
रहे थे।वह इस समय शेफाली मात्र नहीं बल्कि एक शक्तिपुंज सी दिखाई दे रही थी।
अचानक वह बोली -“पापा मेरा प्लेन कौन सा होगा, पोस्टिंग कहाँ होगी, बताना संभव नहीं है।लेकिन आप लोग यहाँ ऊपर आसमान से गुजरते किसी भी
प्लेन को देखेंगे तो आप सब को इस बेटी की याद जरुर आयेगी।मुझे अपनी इस
सफलता से ज्यादा खुशी आपकी सोच में परिवर्तन आने से है।गौरव भैया को
लेकर आप बिल्कुल उदास न हों।उन्होंने अभी भी कुछ खोया नहीं है।उन्हें जो हासिल
होना चाहिए था वह होकर रहेगा।यह मैं करुँगीं।उन्हें अपने से
भी बड़ी कामयाबी दिला कर दिखाऊँगी।”
शेफाली की आँखों
में एक बेटे, एक बेटी दोनों की
चमक थी।एक संकल्प, एक विश्वास से
भरपूर नजर आ रही थी वह।गौरव ने प्रसन्नता से अपनी छोटी बहन को गले लगा लिया।
००००००
लेखक-प्रेमस्वरूप श्रीवास्तव
11 मार्च, 1929 को जौनपुर के खरौना
गांव में जन्म।31 जुलाई 2016 को
लखनऊ में आकस्मि
निधन।शुरुआती पढ़ाई जौनपुर में करने
के बाद बनारस युनिवर्सिटी से हिन्दी साहित्य में एम0ए0।उत्तर प्रदेश के शिक्षा विभाग में विभिन्न पदों पर सरकारी
नौकरी।देश की प्रमुख स्थापित पत्र पत्रिकाओं सरस्वती,कल्पना, प्रसाद,ज्ञानोदय, साप्ताहिक हिन्दुस्तान,धर्मयुग,कहानी, नई कहानी, विशाल भारत,आदि में कहानियों,नाटकों,लेखों,तथा रेडियो नाटकों, रूपकों के अलावा प्रचुर मात्रा में
बाल साहित्य का प्रकाशन।
आकाशवाणी के इलाहाबाद केन्द्र से नियमित
नाटकों एवं कहानियों का प्रसारण।बाल कहानियों, नाटकों,लेखों की अब तक पचास से अधिक पुस्तकें प्रकाशित।“वतन है हिन्दोस्तां हमारा”(भारत सरकार द्वारा पुरस्कृत)“अरुण यह मधुमय देश हमारा”“यह धरती है बलिदान की”“जिस देश में हमने जन्म लिया”“मेरा देश जागे”“अमर
बलिदान”“मदारी का खेल”“मंदिर
का कलश”“हम सेवक आपके”“आंखों
का तारा”आदि
बाल साहित्य की प्रमुख पुस्तकें।इसके साथ ही शिक्षा विभाग के लिये निर्मित लगभग
तीन सौ से अधिक वृत्त चित्रों का लेखन कार्य।1950
के आस पास शुरू हुआ लेखन एवम सृजन का यह सफ़र
मृत्यु पर्यंत जारी
रहा। 2012में नेशनल बुक ट्रस्ट,इंडिया से बाल उपन्यास“मौत के चंगुल में” तथा 2018
में बाल नाटकों का संग्रह एक तमाशा ऐसा भी” प्रकाशित।