सोमवार, 31 अगस्त 2009

चलते चलते


कभी ऐसा सोचा है आपने की पसीने की बून्दे लगातार आपके माथे से चू रही हैं ,कपड़े पसीने से ऐसे गीले हो रहे हैं मानो धोने के बाद सुखाना भूल गये हों ,हर तरफ़ से तरह तरह के पसीनो की मिली जुली खुशबू और हवा तक बीच से ना निकल पाये ऐसी भीड़ और ऊपर से कुछ लोगो की पोलिटिकल गपशप और उन सब के बीच आप!!!!!! आपका क्या ऐसा मन नही करेगा की पोलिटिकल व्यूज़ दे रहे उन लोगो को पार्लियामेन्ट मे छोड आये।
बिल्कुल यही,यही मन हुआ था मेरा भी जब पिछ्ले दिनो मेरी गाडी ने मुझे धोखा दे दिया और मुझे कोलेज जाने के लिये “मैन्गो पीपल” यानि आम जनता वाला टैम्पो लेना पडा।
12 बजे की तपती धूप, उमस भरी गर्मी और उसके बीच मे श्रीमान लालू प्रसाद यादव…उफ़्फ़्फ़्फ़!!!!!!! मेरा मन तो हुआ की मेरे बगल (बगल नही, दरअसल मेरे ऊपर) बैठी उन मोटी आन्टी को चलते टैम्पो से धक्का मार दूँ। ऐसा करके मै उनकी भी मदद करती और अपनी भी - उनकी क्योकी वो अपनी बहू के तानो से परेशान थी,उसके रोज़ जान बूझ के खाना जलाने की आदत से परेशान थी (ताकि वो खाना ना खा पाये…ऐसा वो सोचती थी…पर उन्हे देख के तो कुछ और ही लगता था)…अपना मन पसन्द सास बहू ना देख् पाने से परेशान थी…उफ़्फ़्फ़्…कितनी सारी परेशानिया…जिनका हल मै चुटकियो मे …सिर्फ़ एक धक्के से कर सकती थी…खैर्…॥
अब मैने अपना ध्यान मेरे सामने बैठे एक दो साल के बच्चे और उसकी माँ पर केन्द्रित किया।बेटी लगातार अपनी माँ से उसकी गोद मे बैठने की ज़िद कर रही थी पर माँ अपने नये पैन्टालून्स के (ज़बर्दस्ती अडसाये गये)कुर्ते पर सिल्वटे पडने के डर से उस बेचारी को डान्टे जा रही थी…हाय रे माँ !!ये वही भारत है जहाँ माँ अपने बच्चो के लिये अपने प्राण तक न्यौछावर कर देती थी…पर ये तो ठहरी जेनरेशन –आई की माँ !!!!!!!!
विज्ञान ने कितनी प्रगती कर ली है…इसका सीधा सा उदाहरण है आपका सेल फ़ोन। आप कही भी रहे ,किसी भी अवस्था मे ,फ़ोन से आपकी सभी मुश्किले हल हो जायेगी। ये मेरे बगल मे बैठे “डूड” ने मुझे एह्सास दिलाया…वो लगातार किसी को ये विश्वास दिला रहा था कि जब तक वो है उसे कोई दिक्कत नही होगी…बडा रहस्यमय लगा ये…फ़िर थोडा और गौर फ़रमाने पर पत चला कि जनाब के दोस्त ने सारे पैसे लेवाइस की जीन्स और फ़ास्ट्रैक के चश्मो पे लगा दिये…गर्ल्फ़्रैन्ड को इम्प्रेस करने के चक्कर मे…और अब घरवालो से किताबो के पैसे मागने की हिम्मत नही थी…भई वाह किसी ने सच ही कहा है “a friend in need is a friend indeed”…दोस्ती हो तो ऐसी।ये है जेन –आई के युवा…जिनके लिये ब्रान्डेड कपडे और गर्ल्फ़्रैन्ड स्टेटस सिम्बल होता है…राहुल गान्धी और भगत सिह भी काश ये हाई-फ़ाई मेन्टैलिटी समझ पाते…॥
“…देश की बाग डोर सौपने की बात हो रही है ऐसे गैर जिम्मेदार लोगो के हाथों में …खुद का तो अता पता नही है,देश चलायेंगे ये…”…एक बूढे सज्जन अपना फ़्रस्ट्रेशन निकाल रहे थे उस लडके को फ़ोन पे बतियाता देख देख के…किसपे…पता नही। पर जब उन्हे लगा की मै उनकी बात सुन रही हूँ तो उन्होने स्वर ऊंचा करके बोलना शुरू किया…“हमारे ज़माने मे तो……………………”।…वो तो भला हो उस टैम्पो वाले का जो उसने अपना टेप चालू कर दिया और उसपे आ रहे “है जुनून …”ने मुझे बचा लिया वर्ना आज तो उन बाबा जी ने मुझे रानी लक्ष्मी बाई ही बना दिया होता॥
काश्…एक बार कैट्रीना ओर जौन मेरे स्थिती मे आकर देखे…सारा जुनून धरा का धरा रह जायेगा…ह्म्म्…”दीदी…ज़रा अपना बैग उधर कर लो”…एक 8-9 साल की लडकी फ़ूलो की डलिया थामे मुझे कह रही थी…उसके फ़टे चिथडे कपडो ने अनयास ही मेरा ध्यान अपनी तरफ़ आकर्शित किया…मुझे ध्यान आया…मेरे बैग मे माँ का दो दिन पहले का दिया हुआ एक सेब रखा था…जिसकी हालत देख के मैने उसे किसी पशु के सामने डालने की सोची थी……………”थान्क्यू दीदी”…सेब पाकर वो लडकी काफ़ी खुश थी…
मुझे अपने से एक पल के लिये घृणा सी हुआ…क्या इन्सान और पशु मे कोई फ़र्क ही नही है…पर बाद मे मैने सोचा … 15रू कम से कम बर्बाद तो नही हुए…वाह रे इन्सान्…वाह रे स्वार्थ्…और तभी “India is a free n democratic country…wat an idea sir ji”………हाँ …सही तो कहा अभिशेक ने…भारत सच मे एक free country है जहाँ लोगो को कुछ भी कहने का और कैसे भी रहने का हक है…ऐसा सोचते हुए मैने अपने को फ़िर से चारो तरफ़ मचे कोलाहल का एक हिस्सा बना लिया।

नेहा शेफ़ाली

मंगलवार, 18 अगस्त 2009

पुकारती धरोहरें


अभी भी बाकी है कुछ निशानियां

जो पुकारती हैं मुझको

आकर बचा लो हमको।

वो हमारी धरोहरें जो

शान थीं इस देश की

आवाज देती मुझको

आकर बचा लो हमको।

वो ऐतिहासिक स्थल

खण्डहर होती इमारतें

वो बादशाहों के ख्वाब औ

बेगमों की हसरतें

रो रो के कहते मुझको

आ के बचा लो हमको।

वो चिटकती दीवारें

जंग खाती खिड़कियां

चरमराते दरवाजे

जो थीं अद्भुत निशानियां

बुला रही हैं मुझको

आकर सम्हालो हमको।

वो आजादी के मस्तानों की कुर्बानियां

याद आते ही आंखों में

बस जाती हैं परछाइयां

कहती हैं जो देश सौंपा तुमको

अब बचा लो उसको।

प्राचीन ग्रन्थों की बहुमूल्य गाथायें

महान कवि कुल गुरुओं की

अद्भुत रचनायें

गर्त में कहीं खोती जा रहीं

कह रही हैं मुझको

वक्त है बचालो ढूंढ़ लो हमको।

भूल जाना ना ये निशानियां

पुकारती हैं सबको

रखना संभाल हमको।

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पूनम

सोमवार, 10 अगस्त 2009

बालगीत


आज मैं अपना एक बालगीत प्रकाशित कर रही हूं।

वैसे आप लोग मेरे अन्य बालगीत फ़ुलबगिया ब्लाग

पर पढ़ सकते हैं।

नाना जी की मूँछ

नाना जी की मूँछ
जैसे गिलहरी जी की पूंछ
अकड़ी रहती हरदम ऐसे
जैसे कोई रस्सी गयी हो सूख।
नाना जी मूँछों पर अपनी
हरदम देते ताव
पहलवान जी जैसे कोई
जीत गए हों दाँव।
कभी दाई मूँछ तो कभी बांई फ़ड़कती
कभी ऊपर उठती कभी नीचे गिरती
दरोगा की मूँछ भी
उनके आगे पानी भरती ।
नाना जी की मूँछ हरदम
ऐंठन में ही रहती
शान न गिरने पाए कभी
हरदम कोशिश करती ।
नाना जी की मूँछ की
गली गाँव में पूछ
फ़ेल हो गई उनके आगे
नत्थू राम की मूँछ ।
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पूनम