पुस्तक समीक्षा
समीक्ष्य पुस्तक---बया आज उदास है।(कविता संग्रह)
डा0 हेमन्त कुमार
प्रकाशक---अभिनव प्रकाशन,
52,शिव विहार,से0-आई
जानकीपुरम लखनऊ -226021
मूल्य—एक सौ पच्चीस रूपये।
“बया आज उदास है”---दृष्टि भी और संभावनायें भी
यद्यपि डा0 हेमन्त कुमार विगत तीन दशकों से हिन्दी साहित्य में अपनी सक्रियता निरंतर दर्ज कराये हुये हैं,पर अभी हाल में ही प्रकाशित अपनी पैंतालीस कविताओं के संग्रह ‘बया आज उदास है’ के माध्यम से उनके कवि रूप ने भी हमारा ध्यान आकर्षित किया है। हेमन्त कुमार की इन कविताओं में मध्य वर्गीय दुनिया के दुःखों,कष्टों और संवेदनाओं के ऐसे जीते जागते चित्र हैं,जिनमें सामान्य जन की जिन्दगी अपनी सम्पूर्ण आस्थाओं,विश्वासों और मानवीय सम्बन्धों के साथ उभर कर सामने आई है। कवि ने इस जिन्दगी के बीच से पाई गयी अनुभूतियों,विचारों और सच्चाइयों की नींव पर एक ऐसे कविता संसार की रचना की है जो हमें मुग्ध भी करती है और झकझोरती भी है।
देश समाज और राजनीति में गिरते जीवन मूल्यों पर आज हर रचनाकार चिंतित नजर आता है। आतंकवाद की जड़ें दिन पर दिन गहरी होती जा रही हैं। ऐसे में इन सबके केन्द्र बिन्दु फ़ंसे छोटे बच्चों के बारे में बहुत ही कम सोचा और लिखा जा रहा है। इस दृष्टि से हेमन्त कुमार का यह कविता संग्रह कुछ और भी महत्वपूर्ण हो जाता है,क्योंकि इस संग्रह की करीब दस कविताओं के केन्द्र में देश के बच्चे ही हैं।
यह अनायास ही नहीं है। हेमन्त कुमार एक लम्बे समय से बाल साहित्य,बच्चों की शैक्षणिक फ़िल्मों और बाल कल्याण की अन्य गतिविधियों से सक्रिय रूप से जुड़े हुये हैं। अभावग्रस्त बच्चों का एक चित्र ‘बाजू वाले प्लाट पर’ कविता में देखा जा सकता है—
झोपड़ी के एक कोने में है
उनका किचेन
दूसरा कोना बेडरूम/तीसरा ड्राइंग रूम
बाहर का मैदान है उनका ओपेन टायलेट
जहां वे हगते मूतते
और नाक छिनकते हैं।
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लम्बी लम्बी सड़कों पर भागता ट्रैफ़िक
गली के नुक्कड़ पर कूड़े का ढेर
शहर की ऊंची बिल्डिंगों का हुजूम
सिनेमा के बड़े बड़े पोस्टर
मल्लिका की देह,ऐश्वर्या के उभार
चाय की चुस्की,बीडी का सुट्टा यही सब है
इन बच्चों का ओपेन स्कूल।
इन कविताओं में जहां एक ओर बेहतर जीवन की तलाश के लिये निरन्तर संघर्ष कर रहे लोगों का निश्छल जन जीवन है,वहीं दूसरी ओर भारतीय लोक चेतना के प्रति अगाध चिन्तायें भी हैं। आज हिन्दी कविता की सबसे बड़ी जरूरत है कि वह भाषा के चोचलों और शिल्प के बखेड़ों से अलग हटकर लोक परम्पराओं,मुहावरों और देशज शब्दों के साथ एक आत्मीय नाता जोड़े। यह लोक और देश हेमन्त कुमार की इन कविताओं में अपनी पूरी पहचान के साथ उभरा है। वह ‘बेचारा बुधुआ’ भी हो सकता है जिसके चेहरे पर हर रोज एक नई झुर्री बढ़ जाती है--- अब धीरे धीरे बुधुआ के चेहरे पर
झुर्रियों का हुजूम
बढ़ता जा रहा है
और बुधुआ
इन झुर्रियों के हुजूम के बीच
अपने बुधुआपन की पहचान खोकर
पगले कुत्ते सा बौराया खड़ा है
पता नहीं भौंकने के लिये
या किसी को काटने के लिये।
इस लोक और देश को पूज्य पिता जी से किये गये चन्द सवालों में भी देखा जा सकता है।----- मैंने जब भी कोशिश की तुम्हारे चेहरे पर
घनी होती नागफ़नियों को
जड़ से काट देने की
तुम्हारे खुरदुरे और गट्ठे पड़े
हाथों को
हल की मुठिया पर से हटाकर
उनमें रामायण पकड़ाने की
तुमने पकड़ा दी मेरे हाथों में
एक लम्बी फ़ेहरिस्त
उन रिश्तेदारों के नामों की
जिनके यहां मुझे
बरही तेरही बियाह गौने में
न्योतहरी के लिये जाना है
मेरे पूज्य पिता
ऐसा तुमने क्यों किया।
इस संग्रह में एक गीत भी है।संग्रह में केवल एक ही गीत होने का कारण तो स्पष्ट नहीं है, पर यह जरूर है कि यह गीत हमें हिन्दी काव्य में गीतों की एक समृद्ध परम्परा की याद दिलाता है। लयात्मक अभिव्यक्ति और विशिष्ट प्रतीक विधानों के कारण इस गीत को चाव से पढ़ने और गुनगुनाने का मन करता है--- माझी तू गीत छेड़,आज एक ऐसा
नदियों के सूने तट,गूंज उठें फ़िर से
पनघट पर छाया,ये सूनापन कैसा
विरहन की आंखों में सपनों के जैसा।
वे आगे लिखते हैं----- चुप हुई आज क्यों पायल की रुन झुन
पत्तों के बीच छिपे सुग्गों की सुनगुन
चौरे की नीम तले कैसी ये सिहरन
चौपालों में आज नहीं कोई है धड़कन। दृष्टि और सम्भावनाओं से भरी पूरी ये कवितायें आज की सम्पूर्ण लोक चेतना,खण्डित होते सपनों और आदमीपन की तलाश के साथ साथ इस बात का भी सबूत हैं कि लोक और आंचल से जुड़ा साहित्य ही पाठक को साथ लेकर चल सकता है।इन कविताओं को गम्भीरता से लिये जाने का एक कारण और भी है कि हेमन्त कुमार के पास ग्राम्य पीड़ा को समझने की भरपूर क्षमतायें हैं,संवेदना को ठीक से पहचान सकने वाली खुली खुली आंखें हैं और साथ में कविता के व्याकरण का एक मजबूत आधार भी है। सही मायनों में इन कविताओं को पढ़ना एक आत्मीय रिश्ते जैसी गर्माहट को महसूस करने जैसा है। ===
समीक्षक--- कौशल पाण्डेय हिन्दी अधिकारी आकाशवाणी,पुणे(महाराष्ट्र)
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