क्यों नहीं छोड़ देते
उसे एक बार
अपनी तरह जीने के लिये।
क्यों हमेशा
उसे मेंड़ की तरह
बांधने की करते हो
कोशिश
वो तो
इस धरती का
ही आज़ाद जीव है।
जो अपनी
स्वतन्त्रता का हक़
रखती है
फ़िर क्यूं
भारी भारी पत्थर की
शिला डाल कर
राह में उसके
आगे पैदा करते हो
अड़चनें।
हर वक़्त
उसके चारों ओर
बुनने की
करते हो कोशिश
एक मकड़जाल।
उसे
खुला छोड़ के
देखो तो सही
कैसे
आज़ाद पंछी की तरह
अपने पंख फ़ड़फ़ड़ा कर
जब वो बंधन से निकलेगी
बाहर तो
खुशी का इज़हार करते
तुमसे वो थकेगी नहीं।
क्योंकि जिन्दगी तो
जीने का नाम है
ज्यादा पाबंदियां
लगाने पर
वह भी
एक दिन घुट घुट कर
तोड़ देती है दम।
इससे तो
अच्छा है
खुली हवा में
सांस लेने की कोशिश
सारी चिंताओं से परे होकर
फ़िर देखो
यही ज़िंदगी
कितनी सुहानी लगेगी।
लगेगा तुम्हें
कितनी बड़ी गलती
कर रहे थे
तुम
अपने आप को
व्यर्थ के बंधनों में
जकड़कर।
क्योंकि ज़रूरत से ज़्यादा
अति तो ठीक नहीं
चाहे वो
किसी के लिये भी हो
यानि ---
ज़िंदगी के लिये।
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पूनम