(आज 31 जुलाई को
मेरे बाबू जी प्रतिष्ठित बाल साहित्यकार आदरणीय प्रेमस्वरूप श्रीवास्तव जी की
पुण्य तिथि है।2016 की 31 जुलाई को ही 87 वर्ष की आयु में उन्होंने दुनिया को
अलविदा कह दिया था।इस बार कोरोना संकट को देखते हुए हम सभी उनकी स्मृति में कोई साहित्यिक आयोजन भी नहीं कर
सके।इसी लिए मैं आज अपने ब्लॉग “झरोखा ” पर मैंने उनकी एक कहानी “मुस्कान मत छीनिए”
प्रकाशित कर रही हूं।क्योंकि उनकी रचनाओं को पाठकों तक पहुँचाना ही उनके प्रति
सच्ची श्रद्धांजलि होगी।)
(प्रेमस्वरूप श्रीवास्तव )
मुस्कान मत छीनिए
मैं मुंबई की एक बडी
कम्पनी में अधिकारी हूं। अपनी सोसायटी में मेरा बड़ा मान सम्मान है।एक बेटे और पत्नी
से भरी पूरी मेरी खुशहाल जिन्दगी है।कोई चिन्ता नहीं. पर क्या हुआ कि अचानक एक बात
ने मेरी रातों की नींद उड़ा दी।
‘‘ सर, आप हमारे स्कूल के
चेयरमैन हैं।हमारे सालाना जलसे की अध्यक्षता भी आप को ही करनी है।बस, इस बार कुछ ऐसा बोलिए कि जो हमारे बच्चों के मन को छू लें। अगर
कहीं यह बात आप की जिन्दगी से जुडी हो तो कहना ही क्या।बहुत प्रभाव डालेगी सर !’’ ये शब्द थे हमारे स्कूल के हेड मास्टर साहब के जो उन्होंने परसों
मुझसे कहे थे।ये वही शब्द थें जिन्होंने मुझे परेशान कर दिया था।
लगता है ईश्वर ने
ही मेरी सहायता की।अचानक मुझे अपने पिता जी वाली घटना याद आ गई।बस, फिर क्या था. मैं प्रसन्नता से खिल उठा।मिल गया मुझे रास्ता।सचमुच
यह घटना कोई मामूली बात नहीं थी।मन के छू लेने वाली भी और मेरी जिन्दगी से जुड़ी हुई
भी।
स्कूल के सालाना जलसे
का दिन भी आ पहुँचा।सभी औपचारिक कार्यक्रम पूरे हो गये।अन्त में मुझसे दो शब्द बोलने
का आग्रह किया गया।मैंने देखा – हजारों आँखों में एक गहरी उत्सुकता झलक रही थी।
मैंने बोलना शुरू किया - ‘‘आदरणीय शिक्षक और अभिभावकगण तथा प्यारे बच्चों, मैं कोई लम्बा चौड़ा भाषण देने वाला नहीं हूँ।बस,एक दिलचस्प घटना सुनाता हूँ।इसमें आप को अवश्य आनन्द आयेगा।कुछ
महीने पहले गाँव से मेरे पिता जी कुछ समय मेरे पास रहने के लिये मुम्बंई आये थे।हम
लोगों ने दिल से उनका स्वागत किया।बताता चलूँ, मेरे पिताजी बडे मस्त
मौला है।उन्हें अंगे्रजी तो दूर हिन्दी भी ठीक से नहीं आती।ऊपर की ओर खुंटियाई हुई
धोती और कुर्ता उनका पहनावा है।पर उन्हें इन बातों की कोई चिन्ता नहीं थी।वे सबसे कहते
– “मैं तो अपने बेटे के पास आया हूं।उसके परिवार के साथ रहूँगा।न मुझे मुम्बई शहर
घूमना है, न यहाँ के नाच तमाशे देखने हैं।”
लेकिन मैं सोचता - पिता जी पहली बार मुंबई आये हैं।हम उन्हें
यहाँ की हर चीज दिखायेंगे।अच्छे अच्छे होटलों
में खाना खिलायेंगे।
एक दिन हम लोग जिद करके उन्हें एक पाँच सितारा होटल में ले गये।हमारी मेज पर खाने की अच्छी अच्छी चीजें आयीं पर पिता
जी के दाँत कमजोर थे।इसलिए उन्होंने खाने में कोई दिलचस्पी नही दिखाई।हाँ चलते चलते
उन्होंने कुछ नमकीन अपनी धोती में गांठ लगा कर रख ली।सोचा होगा, घर चलकर इन्हें सिलबट्टे पर कुचलवा कर आराम से खाऊँगा।दुर्भाग्यवश
होटल की लाबी में उनका पैर फिसला और वे गिर पडे़।सारी नमकीन कीमती कालीन पर बिखर गई।
प्रिय बच्चों, तुम सोचते होगे, मै बड़ा शर्मिन्दा हुआ हूँगा।पिता जी पर बिफर पडा हूँगा। उन्हे
आगे से किसी आलीशान जगह न ले जाने की कसम खायी होगी।पर साहब, ऐसा कुछ भी नही हुआ।
मैंने बडी विनम्रता से उन्हे सहारा देकर उठाया।फिर हँसते हुए
कहा-मजा आया न पिता जी।अब हम अगले रविवार को फिर यहाँ आएंगे।पिताजी ने भी तुरन्त हाँ
कर दी।उन्हें उस जगह बडा आनन्द आया था।
अचानक एक छात्र ने
खडे़ होकर पूछा--‘‘ सर, क्या आप जरा भी शर्मिन्दा नहीं हुए ? कहाँ आप की यह पोजीशन, कहाँ आपके पिताजी की देहाती वेशभूषा।फिर उस आलीशान होटल के लोगों
ने भी यह नजारा जरूर देखा होगा।’’
मैने तुरन्त हँस कर कहा -- ‘‘ प्यारे बच्चों भूल जाओ यह बात।आखिर वे मेरे पिता थे।उनकी अपनी
गाँव की बोली है।वे कहीं भी जायें, घोती में ही रहते हैं।होटल
से नमकीन उठा लिया ताकि बाद में खा सकें।उन्हें जो अच्छा लगता है करतें हैं।इसमें क्या
हुआ, मुझे क्यों शर्म आए।उनका अपना स्वभाव है, अपनी आदतें हैं।उनकी अपनी जीवन शैली है।साठ सत्तर साल से वे
इसी तरह जीते चले आ रहे हैं।उन्हें बदलने का अधिकार किसी को नहीं है।वे किसी को नुकसान
तो नहीं पहुंचाते।केवल अपनी सुविधा और पसंद के अनुसार चलतें है।’’
बच्चों, मैं होटल वालों की
चिन्ता भी क्यों करता।उन्हें अपना भुगतान और टिप्स मिल ही जाते थे।मुझे अपने पिता जी
की खुशी की चिन्ता रहती है, और किसी बात की नहीं।मेरी
पत्नी को भी अपने ससुर जी पर नाज है।मेरा बेटा गर्व से अपने साथियों को अपने बाबा के
बारे में बताता है।
‘‘ खैर, यह तो हुई मेरी अपनी
बात।अब तुम कुछ अपने बारे में, अपने यहाँ के बारे
में बताओ।हाँ हाँ, संकोच मत करो।देखो, मैने अपने पिता जी के बारे में कैसा बताया।’’
मेरी
इस बात से उत्साहित होकर एक छात्र बोला --‘‘ सर मेरे पिता एक बडे़
इंजीनियर हैं।लेकिन हमारे यहाँ तो जब कोई गाँव से आता है,
चाहे वह बाबा दादी ही क्यों न हों, हम लोग कुछ परेशान
से हो जाते हैं।उन्हें बाहर घुमाना फिराना तो दूर, बाहर के लोगों से भी
नहीं मिलने दिया जाता।
एक दूसरे छात्र ने बेबाकी से अपने घर का राज खोला --‘‘ सर मेरी मम्मी ज्यादा पढ़ी लिखी नहीं हैं।अंग्रेजी तो बिल्कुल
नहीं जानती।इसीलिए पापा उन्हें बाहर ले जाने से कतराते हैं।कहीं छुरी काँटे से खाना
पड़ गया तब क्या होगा।’’
इसी तरह और भी बच्चे बोले।मुझे बहुत अच्छा लगा।अंत में मैंने
उनसे कहा-- ‘‘ देखो बच्चों, लोग क्या सोचेगें या
क्या कहेगें, यह सोचना हमारा काम नही है।उन्हें सोचने कहने
दीजिए।अपनों के साथ अपनों जैसा व्यवहार कीजिए।क्यों किसी को बाध्य किया जाय कि वह छुरी
काँटे से खाना खाये या पैंट कमीज पहने।गैरों की खुशी के लिये हम अपनों की मुस्कान तो
नही छीन सकते प्यारे बच्चों।हम किसी को मुस्कान देते हैं तो समझों उसे जिन्दगी का सबसे
बडा तोहफा दे रहे हैं।’’
मेरे इन दो
शब्दों के बाद लोगों के चेहरों पर मुस्कान और प्रसन्नता साफ नजर आ रही थी।हाल तालियों
से गूँज रहा था।लेकिन मेरे लिए यह सब याद रखने वाली बात नहीं थी।मैं तो बस प्रसन्न
था, मैंने अपने ही जीवन के एक सच से उन्हें कुछ देने की कोशिश की।
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लेखक-प्रेमस्वरूप श्रीवास्तव
11मार्च,1929 को जौनपुर के खरौना गांव में जन्म।31जुलाई2016 को लखनऊ में
आकस्मिक निधन।शुरुआती पढ़ाई जौनपुर में करने के बाद बनारस युनिवर्सिटी से हिन्दी साहित्य में एम0ए0।उत्तर प्रदेश के शिक्षा विभाग में विभिन्न पदों
पर सरकारी नौकरी।देश की प्रमुख स्थापित पत्र पत्रिकाओं सरस्वती,कल्पना, प्रसाद,ज्ञानोदय, साप्ताहिक
हिन्दुस्तान,धर्मयुग,कहानी,नई कहानी, विशाल
भारत,आदि में
कहानियों,नाटकों,लेखों,तथा रेडियो नाटकों, रूपकों के
अलावा प्रचुर मात्रा में बाल साहित्य का प्रकाशन।
आकाशवाणी के इलाहाबाद केन्द्र से नियमित नाटकों एवं कहानियों का
प्रसारण।बाल कहानियों,नाटकों,लेखों की अब तक पचास से अधिक पुस्तकें प्रकाशित।“वतन है हिन्दोस्तां हमारा”(भारत सरकार द्वारा पुरस्कृत)“अरुण यह मधुमय देश हमारा”“यह धरती है बलिदान की”“जिस देश में हमने जन्म लिया”“मेरा देश जागे”“अमर बलिदान”“मदारी का खेल”“मंदिर का कलश”“हम सेवक आपके”“आंखों का तारा”आदि बाल
साहित्य की प्रमुख पुस्तकें।इसके साथ ही शिक्षा विभाग के लिये निर्मित लगभग तीन सौ
से अधिक वृत्त चित्रों का लेखन कार्य।1950 के आस पास शुरू हुआ लेखन एवम सृजन का यह
सफ़र मृत्यु पर्यंत जारी
रहा। 2012में नेशनल बुक ट्रस्ट,इंडिया से बाल उपन्यास“मौत के चंगुल में” तथा 2018 में बाल नाटकों का
संग्रह एक तमाशा ऐसा भी” प्रकाशित।