शुक्रवार, 23 सितंबर 2011
बेटियां
बुधवार, 7 सितंबर 2011
सिसकते शब्द
शब्द भी मेरे बिखर के रह गये।
सोच की धरा पर जो भावों के पुल बने मेरे
शब्द पानी पर नदी के उतराते जैसे रह गये।
दरवाजे पर दस्तक से दिल धड़क धड़क उठे
कौन हो सकता है बेवक्त बस लरज के रह गये।
इन्सान को सही इन्सां समझना है बड़ा मुश्किल
मन ही मन में इसका हल ढूंढ़ते रह गये।
भरोसा भी करें तो कैसे और किस पर हम
सफ़ेदपोश में छुपे चेहरे असल दंग हम रह गये।
उड़ान मारते आसमां में देखा जो परिन्दों को
पिंजरे में बन्द पंछी से फ़ड़फ़ड़ा के रह गये।
मत लगाओ बन्दिशें इतनी ज्यादा
हम गुजारिश पर गुजारिशें ही करते रह गये।
सच्चाई को दफ़न होते देखा है हमने
झूठ का डंका बजा पांव जमीं से खिसक गये।
सन्नाटा पसरा रहता सहमी रहती गली गली
हम झरोखे से अपने झांक के ही रह गये।
जल रहे हैं आशियाने हंस रहे हैं मयखाने
सियासती दांव पेंचों में शब्द सिसक के रह गये।
झिलमिलाते तारों संग जो आसमां पे पड़ी नजर
हो खूबसूरत ये जहां भी चाहत लिये ही रह गये।
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पूनम