इन्सान कहाँ रहते हैं,
कोई तो बताओ.
ये जो दिखते हैं वो तो,
माटी के हैं पुतले.
इनमें ईमान कहाँ होता है,
कोई तो बताओ.
बंद ऑंखें भी हैं चुप,
खुली ऑंखें भी हैं चुप.
इनमें जुबान कहाँ होती है,
कोई तो बताओ.
दिलों में जिनके नफरत,
हाथों में मशीनी हरकत.
उनमें जज्बात कहाँ होता है,
कोई तो बताओ.
जिनका जीवन ही हो पैसा,
जिनके लिए मौत भी है सौदा.
उनमें aभगवान् कहाँ रहता है,
कोई तो बताओ.
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पूनम
शुक्रवार, 28 नवंबर 2008
कोई तो बताओ
गुरुवार, 27 नवंबर 2008
डर लगता है
कभी ख़ुद पे गुमां किया करते थे हम,
अब तो आइना देखते भी डर लगता है.
चाहतें थीं क्या और कहाँ आ गए हम,
अब तो ख्वाब देखते भी डर लगता है.
बातें बयां करते कभी थकते नहीं थे हम,
अब तो बात जुबान तक लाने में डर लगता है.
कभी महफिले शान हुआ करते थे हम,
अब तो अपनी परछाईं से भी डर लगता है.
गम के अंधेरों से नहीं घबराते थे हम,
अब तो उजाला देखते भी डर लगता है.
………………
पूनम
अब तो आइना देखते भी डर लगता है.
चाहतें थीं क्या और कहाँ आ गए हम,
अब तो ख्वाब देखते भी डर लगता है.
बातें बयां करते कभी थकते नहीं थे हम,
अब तो बात जुबान तक लाने में डर लगता है.
कभी महफिले शान हुआ करते थे हम,
अब तो अपनी परछाईं से भी डर लगता है.
गम के अंधेरों से नहीं घबराते थे हम,
अब तो उजाला देखते भी डर लगता है.
………………
पूनम
बचपन
जिसके हंसते ही सब हंस दें
जिसके मुस्कुराते ही संसार मुस्करा उठे
जिसके रोते ही हृदय का तार तार द्रवित हो उठे
जिसकी आँखों में हम
अपने सपने सजाएँ
जो मुट्ठी में चाँद को पकड़ना चाहे
जो नन्हें नन्हें पावों की धमक से
धरती मां से भी बतलाना चाहे
जो हारकर भी जीतना चाहे
जो अपनी हरकतों से रीझाना रूठना व मनाना जाने
जो झूठ फरेब की दुनिया से हटकर
दिल की सच्ची बात बताना जाने
जिसका मन भी निर्मल तन भी निर्मल
वो ही तो होता है बचपन……
बचपन सबका प्यारा बचपन.
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पूनम
रविवार, 23 नवंबर 2008
ऑंखें
ऑंखें
जाने क्या कहती रहती है
आंखों की परिभाषा
कुछ गुनती कुछ बुनती रहती
है ये मन की अभिलाषा.
आँखों से छलकती है
जीवन की आशा
आँखों से ही टपकती है
जिज्ञासा और निराशा.
ऑंखें नहीं तो क्या जानें
क्या सूखा क्या बरसा
बिन आँखों के जीवन जैसे
बूँद बूँद को तरसा.
ऑंखें ही तो बयां करती हैं
झूठ और सच का किस्सा
कह न सके जो बात जुबान
वो बनती आंख का हिस्सा.
आँखों में ही जीवन का
हर लम्हा लम्हा बसता
इसीलिये ये जग आँखों को
ईश्वर की इनायत कहता.
००००००००००
पूनम
जाने क्या कहती रहती है
आंखों की परिभाषा
कुछ गुनती कुछ बुनती रहती
है ये मन की अभिलाषा.
आँखों से छलकती है
जीवन की आशा
आँखों से ही टपकती है
जिज्ञासा और निराशा.
ऑंखें नहीं तो क्या जानें
क्या सूखा क्या बरसा
बिन आँखों के जीवन जैसे
बूँद बूँद को तरसा.
ऑंखें ही तो बयां करती हैं
झूठ और सच का किस्सा
कह न सके जो बात जुबान
वो बनती आंख का हिस्सा.
आँखों में ही जीवन का
हर लम्हा लम्हा बसता
इसीलिये ये जग आँखों को
ईश्वर की इनायत कहता.
००००००००००
पूनम
कविता
कविता ने ख़ुद कविता से कहा,
क्यों नहीं रचते हो तुम मुझे,
क्यों फेंक दिया है मुझे,
मन के एक कोने में कसमसाने के लिए,
मैं तो करती हूँ इंतजार तुम्हारा,
कब आयेगी याद मेरी,
कब तुम मुझे इन अंधेरों से खींच कर,
अपनी अनकही अव्यक्त भावनाओं को,
मेरे ही द्वारा अभिव्यक्त कर,
कागज पर उतारोगे,
ओर मैं भी इठलाती इतराती,
तुम्हारे साथ मन की गहराइयों से,
उतरती चली जाऊंगी ,
अपनी नई रचना के साथ.
००००००००
पूनम श्रीवास्तव
क्यों नहीं रचते हो तुम मुझे,
क्यों फेंक दिया है मुझे,
मन के एक कोने में कसमसाने के लिए,
मैं तो करती हूँ इंतजार तुम्हारा,
कब आयेगी याद मेरी,
कब तुम मुझे इन अंधेरों से खींच कर,
अपनी अनकही अव्यक्त भावनाओं को,
मेरे ही द्वारा अभिव्यक्त कर,
कागज पर उतारोगे,
ओर मैं भी इठलाती इतराती,
तुम्हारे साथ मन की गहराइयों से,
उतरती चली जाऊंगी ,
अपनी नई रचना के साथ.
००००००००
पूनम श्रीवास्तव
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