शनिवार, 30 जनवरी 2010

गजल


जो बात लगी दिल में उसे याद दिलाया न करो

बार बार वो वाकया यूं दुहराया न करो।

तुम कह के चले जाते हो अपने रस्ते

मैं सोचती ही रह जाऊं यूं परेशां किया न करो।

अपने कीमती समय से चन्द लमहे निकालते हो तुम

फ़िर सब्र से बैठो जरा यूं खड़े ही चले जाया न करो।

हर आहट पर लगता है कि आये हो तुम्हीं तुम

पल पल खयालों में आकर यूं भरमाया न करो।

दिल के दरवाजे मेरे खुले हैं सिर्फ़ तुम्हारे लिये ही

हर दरवाजे पर जाकर दस्तक तो यूं दिया न करो।

गर तुम हो आफ़ताब तो मैं जमीं की धूल हूं

पर पांवों से ठोकर मारकर धूल को यूं उड़ाया न करो।

चिरागे रोशनी में लिखती हूं मैं तुम्हारे लिये कुछ लफ़्ज

पढ़कर उसे मेरा मजाक तो यूं बनाया न करो।

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पूनम

शुक्रवार, 22 जनवरी 2010

गजल


मत दिखाओ मुझे वो आईना जिससे हो गई नफ़रत मुझे

जिसमे अपना ही अक्स अब बदला नजर आता है।

सोचती हूं खोती जा रही हूं अपनी ही पहचान

मगर नहीं ,यहां तो हर शख्स ही गंदला नजर आता है।

बेखुदी में जाने क्या कह गये हम उसे

हैरान सा खड़ा उसे मुझमें पगला नज़र आता है।

किससे करुं सवाल और किससे मांगू जवाब

यहां तो हर शख्स ही मुंह छुपाये निकला नज़र आता है।

किसी मंज़िल तक पहुंचने की जब जब करती हूं कोशिश

क्या करुं वहां भी मुझसे खड़ा कोई पहला नज़र आता है।

कभी फुर्सत में बैठ के करती हूं बीते वक्त का हिसाब

पर वो कल का वक्त भी धुंधला नज़र आता है।

लगी हुई बाज़ी को जीतती गई बार बार

पर हर बार इनाम की पंक्ति में कोई अगला नज़र आता है।

जारी हैं कोशिशें फ़िर भी, चलता रहेगा ये कारवां

पर जो आप मुस्कुराएं,तो सब कुछ खिला नजर आता है।

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पूनम

गुरुवार, 14 जनवरी 2010

बागबां


चमन आज भी खुशबुओं से गुलजार होता है

ये कौन कहता है की चमन वीरान होता है

जहां हर पर्व पर आज भी लगते हैं मेले

जो लोगों की भीड से आबाद होता है

जहां गंगा स्नान सूर्य प्रनाम की प्रथा आज भी है बनी

जो जय गंगे और हर हर महादेव की नाद से गूंज उठ्ता है

तीरथ धामों पर जहां लगते भक्तों के आज भी रेले

हर शख्स जहां सबसे पहले करने को दर्शन तैयार रहता है

जहां हर धरमों के लोग संग में चलते हैं हरदम

जब मिलते आपस में गले तो खुशियों में चार चांद लगता है

वीरान से जंगलों में बहुत कुछ है आज भी बाकी

जहां कोयलों की कूक पछियों का कलरव होता है

कांटों के संग फ़ूलों की जहां है बेमिसाल दोस्ती

जो चंदन सी खुशबू आज भी अपनी बिखराता है

मिलजुल कर जो सुखदुख आपस में बांट लें हम

फ़िर देखो खिला खिला कैसा हर बागबां होता है।

शनिवार, 9 जनवरी 2010

कुहरा


बादलों के रंग देखो उड़ उड़ के रह गये

अश्कों की बरसात देखो बिन कहे ही बरस गये।

शीत ने अपनी घनी चादर रंग में कुहरे के बिछाई

उसके छंटने के इन्तज़ार में बस आंख मल के रह गये।

सूरज ने भी ना निकल कर रंग दिखाये अपने ताव के

चादरों के झरोखों से उसके दीदार को रह गये।

लोग यूं थरथरा रहे इस बर्फ़ को जमाती शीतलहरी में

पांव भी अपने को ज़मीं पर रखने से इनकार कर गये ।

गुजरती नही रातें सभी की रजाईयों के बीच में

और तो कुछ बिन कपडों के ही अलाव तापते रह गये।

सूरज और,ठंड के बीच जो जंग छिड़ी

भुगतने को खामियाजा उसका हम सभी ही रह गये।

ज्यों बादलों के बीच रंग धनुषी अच्छे लगे

वैसे ही कड़कड़ाती ठंड में सूरज की तपिश को रह गये।

जैसे गर्मी में क्षणिक हवा का झोंका भी प्यारा लगे

अहसास हो गुनगुनाती धूप का बस आह भर कर रह गये।

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पूनम