गुरुवार, 31 दिसंबर 2009

सुस्वागतम वर्ष 2010

“नववर्ष के नव प्रभात में याद सभी की आई
शब्द शब्द बन हृदय हमारा देता सभी को बधाई।”

आप सभी पाठकों को नववर्ष की हार्दिक शुभकामनायें। नये साल का पहला दिन तो मेरे
परिवार के लिये दोहरी खुशी लेकर आता है।क्योंकि 1 जनवरी को मेरी छोटी बेटी नित्या
शेफ़ाली का जन्मदिन भी है। आप सभी के स्नेह एव आशीर्वचनों से उसका भविष्य उज्ज्वल बने इसी आकांक्षा के साथ आप सभी पाठकों को नववर्ष की पुनः बधाई।


पहले कुछ पंक्तियां प्यारी बेटी नित्या को-------

नव वर्ष के शुभ प्रभात में
नव जीवन अपनाना तुम
जिस बगिया की फ़ूल हो
उस बगिया को महकाना तुम।

झुक झुक कर चूमती रहें
खुशियां तेरे कदम
गलती से भी न आयें कभी
तेरी जिन्दगी में गम।
000
अब आप सभी के लिये नव वर्ष के शुभ अवसर पर -------


नया वर्ष है आया
नया पैगाम है लाया
आयेंगी बहारें जीवन में स
संग सन्देशा ले आया।

दिसि दिसि छाये खुशहाली
बासन्ती रंग दिखे चहुं ओर
खेतों में खिले फ़िर पीली सरसों
ज्यूं दूल्हन मुस्काये चुनरिया ओढ़।

वन वन बोले चातक मोर
बोले पपिहा पिहू पिहू
जंगल में भी मंगल हो
कोयल गाये फ़िर कुहू कुहू।

बहे नदिया फ़िर कल कल करती
इठलाये अपनी चाल पर
रात और दिन फ़िर मेले लगें
नदी किनारे घाट पर।

बीती रात अमावस की
हर रात अब पूरनमासी हो
हर पल खुशी के दीप जलें
हर दिन फ़ागुन महीना हो।

जो था वक्त बुरा वो बीत गया
फ़िर ना आये वैसा दौर
नव वर्ष में नव संकल्प लें
फ़िर कदम बढ़ायें नव पथ की ओर।
000
पूनम

सोमवार, 28 दिसंबर 2009

आंसुओं के नाम


इन आंसुओं को नाम क्या दूं दोस्तों
जिन्होंने धोखा हर बार दिया है
वक्त को पल में बदल देते हैं जो
इन्होंने अपना रूप हजार किया है।

अछूता नहीं कोई इनसे जहां में
सभी का इनसे पड़ता है वास्ता
कहीं खुशी के इजहार में छलके आंसू
तो कभी गम में भी बरसात किया है।

तराजू के पलड़ों पर
इनका भार इतना ज्यादा
कि सच और झूठ में अन्तर क्या
सभी को इसने भरमा दिया है।

कहीं झूठ को चीर कर आंसुओं ने
सचाई को सामने ला दिया है
कहीं पर नकाब ओढ़कर झूठ का
सचाई को ही धोखे में डाल दिया है ।

कभी तो आंसुओं में इतनी ताकत
कि पत्थर को मोम बना दिया है
और कभी आंसू ही बन के पत्थर
घावों से दिलों को भर दिया है

लाख तूफ़ां को सहते हुये भी जिसने
खुशी का ही सागर छलकाया है
कभी बन के प्रेम का दरिया ये
कहीं नफ़रत का बीज भी बोया है।

है आंसू खुद में इतनी बड़ी हस्ती
जो मिटा सके पल में सारी ही बस्ती
अपने इसी बल पर तो ही इसने
कितने दिलों पर राज किया है।

वक्त बेवक्त बह कर इन आंसुओं ने
नाम खुदा के भी फ़रेब किया हैं
इसीलिये लोगों ने शायद इन्हें
घड़ियाली आंसू का नाम दिया है।
00000
पूनम

शनिवार, 19 दिसंबर 2009

नारी


मैं किसी बंधन में बंधना नहीं जानती
नदी के बहाव सी रुकना नहीं जानती
तेज हवा सी गुजर जाये जो सर्र से
मैं हूं वो मन जो ठहरना नहीं जानती।

वो स्वाभिमान जो झुकना नहीं जानती
करती हूं मान पर अभिमान नहीं जानती
जो हाथ में आ के निकल जाये पल में
मैं हूं ऐसा मुकाम जो खोना नहीं जानती।

हाथ बढ़ा कर समेटना है जानती
कंधे से कंधा मिलाना है जानती
गिरते हुये को संभालना है जानती
मैं हूँ वह मुस्कान जो सिसकना नहीं जानती।

मन में बसाकर पूजना है जानती
आंखों में प्यार व अधिकार है मांगती
मैं हूं आज के युग की नारी
जो धरा से अंबर तक उड़ान है मारती।
-----
पूनम

रविवार, 13 दिसंबर 2009

अहसास


अहसास ही जिन्दगी है
और जिन्दगी को हर तरह से
जीना ही जीवन है।

जीवन से जुड़ती हैं यादें
बहुत सी बातें
उनमें भी होती है
एक बात खास
जो जुड़ी होती है
जिन्दगी के साथ
जिसके बिना कोई पल भी
आपके लिये है कोरी किताब
वो है जीवन का ही दूसरा रूप
जिसे हम कहते हैं अहसास।

जब तक श्वांस है
वो हर वक्त दिलाती है अहसास
सुख हो
दुख हो
जीवन हो
मरण हो
हंसना रोना हो
रिश्ते नाते निभाना हो
इन सब बातों का हमें
अनुभव कराती है
ये जिन्दगी
यानि अहसास।

क्योंकि
अहसास ही तो जीवन है
अहसास यदि नहीं है तो
फ़िर आपकी
जिन्दगी है बेकार
किसी बात का
अगर हमें नहीं अहसास
तो फ़िर हम
बन जाते हैं जिन्दा लाश।

जो होते हैं
निष्क्रिय बेजान
जिनके जीने का
कोई मकसद नहीं
जिनका होना न होना
कोई मायने नहीं रखता
और इस तरह से
एक दिन वो भी आता है
ये जिन्दगी भी हो जाती है खत्म
पर खत्म नहीं होता अहसास
क्योंकि
वो लोगों के बीच में
छोड़ जाता है अहसास
अपने होने या
न होने का।
००००

पूनम

शनिवार, 5 दिसंबर 2009

बच्चे मन के सच्चे------


कुछ कुछ तलाशती, कुछ खोजती नजरें। आपके चेहरे के भावों को बनते बिगड़ते देखती नजरें। कभी कभी अपने अगल बगल झांकती नजरें। कभी अपनों से ही नजर चुराती नजरें। आर्द्रता के साथ याचना और थोड़ी कड़वाहट से भरी नजरें।थोड़ी सी सहमी भी फ़िर भी आपसे सवाल करने की हिम्मत जुटाती नजरें।फ़िर धीरे धीरे पैरों के नाखूनों से धरती को खुरचती हुई जमीन पर झुकी नजरें।
महीन सी आवज में पूछती हैं वो नजरें कि क्या हम इतने अवांछनीय हैं?कि प्यार के दो शब्द भी हमारे लिये आपके शब्दकोश में नहीं हैं? आज भी हम उतने ही तिरस्कृत और हेय नजरों से देखे जाते हैं जैसे शायद हमारे बुजुर्गों को भी देखा जाता रहा होगा। तो फ़िर आज के समय का ये बदला हुआ वाक्य सिर्फ़ उन्हीं लोगों के लिये है जो कदम जमाने के संग मिला सके। या फ़िर उच्च वर्गों के लिये जिसमें से ज्यादा तो मात्र दिखावा ही करते हैं। वो नन्हीं नन्हीं नजरें
जो पानी से भरी भरी हैं,जिनके आंसू पोंछने वाले शायद बहुत ही कम दिखते हैं। और बहुत से तो ऐसे भी लोग होते हैं जो उनके बच्चे की कोई चीज देखने पर ये कहने से नहीं चूकते कि क्यों नजर लगाते हो,मेरे बच्चों की चीजों पर।
शायद वो पढ़े लिखे इन्सान भी इस बात को नहीं जानते कि ये मासूम बच्चे क्या जानें कि नजर लगाना क्या बला है।ये किस चिड़िया का नाम है। उनको तो शायद उनके मां बाप का नाम व अता पता भी नहीं मालूम होता।कुछ को अपना नाम बुलाये जाने पर लगता है कि यही उसका असली नाम है। ऐ लड़की,ओ कल्लो,ओए सुनता नहीं क्या,ओ बहरा है क्या,ढंग से काम करना नहीं आता,देखने में बैल जैसा है। फ़िर धीरे धीरे ये मासूम इसके अभ्यस्त हो जाते हैं।
ये मासूमियत भरी नजरें नजर लगाना तो नहीं जानती। लेकिन शायद नई नई चीजों को देखकर उनकी उत्सुकता जो उनकी नजरों में भर जाती है या जिस चीज को देखकर उनके मन में उसे छू कर देखने की इच्छा जागृत हो जाती हो।उसे हम और आप मिलकर उनकी नजरों को लालचीपने का नाम देने से नहीं कतराते।
जरा इन कूड़ा बीनने वालों ,बर्तन माजने वाली लड़कियों या सड़क पर बैठ कर बूट पालिश करते, कार की सफ़ाई करते लड़कों से पल भर के लिये अपना दिमाग हटा कर देखिये। और जरा अपने बच्चों पर भी एक नजर डालिये । क्या किसी नई चीज को देखकर उनमें उत्सुकता नहीं जागृत होती?क्या वे उसे पाने या खाने के लिये
जिद नहीं करते? कम से कम वे बोल कर आपसे अनुरोध करके या फ़िर आप से जिद करके अपनी बात मनवा नहीं लेते?और फ़िर हम भी उनके आगे झुकने के लिये मजबूर हो जाते हैं,लेकिन जायज मांग पर।

फ़िर उन मासूम बच्चों का क्या दोष जो किसी बात पर अपना हक नहीं जमा सकते। किसी से अपनी मांग पूरी नहीं करवा सकते क्योंकि शायद वो उनके माता पिता के लिये एक स्वप्न के समान होता है। जिसके लिये दो जून की रोटी ही बहुत मायने रखती है। और हम अपने फ़टे पुराने या कभी कभार कुछ नया देकर ऐसा अहसान
जताते हैं जैसे उन्हें खरीद लिया हो।
फ़िर हम ऐसे बच्चों को बजाय झिड़कने के प्यार के दो बोल बोलने में भी इतनी कंजूसी क्यों करते हैं।जिसके लिये आपके प्यार भरे दो बोल ही उसको कम से कम पल भर की खुशी दे जाती है।
एक बात और है। हम अगर अपने घर काम करने वाली के बच्चे का शौक पूरा करने के लिये ही पढ़ाना लिखाना शुरू करते हैं।तो उनके सीखने,पढ़ने ,लिखने की गति तेज होती है।इसके पीछे भी मुख्य कारण उनकी लगन और जागरूकता होती है।भले ही उनके मां बाप को ये बेकार का काम लगता हो।पर इसमें उनका कोई दोष नहीं है।
क्योंकि घूम फ़िर कर बात उनकी रोटी पर ही आकर टिक जाती है।
मुझे तो इस बात की बेहद खुशी होती है कि मैनें अपनी शिक्षा का दुरुपयोग नहीं किया।जितनी भी काम वालियां चाहे मेरे घर पर काम करती हों या नहीं ,मैनें उन्हें पढ़ना लिखना सिखाकर इस काबिल बना दिया कि कम से कम वह अपने पैसे रूपयों का हिसाब किताब रख सके। या वक्त पड़ने पर चार लाइन ही लिख सके तो मैं समझूंगी कि मेरा जीवन थोड़ा बहुत सार्थक हो गया। और जब ये बच्चे आकर आपको ये बताते हैं कि आंटी जी आपने पढ़ने का जितना काम दिया वो हमने घर के काम निपटाने के बाद कर लिया। तो यह सुनकर मेरे मन में इतनी अधिक खुशी होती है कि मुंह से बरबस ही निकल पड़ता है---वाह इसे कहते हैं लगन । जो संभवतः अपने बच्चे में कम ही देखने को मिलती है।
फ़िर हमारा समाज ये कहने से नहीं चूकता कि व्यर्थ में अपना समय बर्बाद कर रही हैं।इनको पढ़ाने लिखाने से कोई फ़ायदा नहीं।इनकी तो नियति ही यही है।बस कलम यहीं बंद करती हूं।सोचती हूं क्या कर्म से भाग्य को नहीं बदला जा सकता? कोशिश तो की जा सकती है। इनको भी एक खुशहाल जीवन देने ,अच्छा इन्सान बनाने के लिये।ताकि वो भी विरासत में पाई जिन्दगी के साथ साथ कुछ अच्छा भी कर सकें।
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पूनम