कुछ कुछ तलाशती, कुछ खोजती नजरें। आपके चेहरे के भावों को बनते बिगड़ते देखती नजरें। कभी कभी अपने अगल बगल झांकती नजरें। कभी अपनों से ही नजर चुराती नजरें। आर्द्रता के साथ याचना और थोड़ी कड़वाहट से भरी नजरें।थोड़ी सी सहमी भी फ़िर भी आपसे सवाल करने की हिम्मत जुटाती नजरें।फ़िर धीरे धीरे पैरों के नाखूनों से धरती को खुरचती हुई जमीन पर झुकी नजरें।
महीन सी आवज में पूछती हैं वो नजरें कि क्या हम इतने अवांछनीय हैं?कि प्यार के दो शब्द भी हमारे लिये आपके शब्दकोश में नहीं हैं? आज भी हम उतने ही तिरस्कृत और हेय नजरों से देखे जाते हैं जैसे शायद हमारे बुजुर्गों को भी देखा जाता रहा होगा। तो फ़िर आज के समय का ये बदला हुआ वाक्य सिर्फ़ उन्हीं लोगों के लिये है जो कदम जमाने के संग मिला सके। या फ़िर उच्च वर्गों के लिये जिसमें से ज्यादा तो मात्र दिखावा ही करते हैं। वो नन्हीं नन्हीं नजरें
जो पानी से भरी भरी हैं,जिनके आंसू पोंछने वाले शायद बहुत ही कम दिखते हैं। और बहुत से तो ऐसे भी लोग होते हैं जो उनके बच्चे की कोई चीज देखने पर ये कहने से नहीं चूकते कि क्यों नजर लगाते हो,मेरे बच्चों की चीजों पर।
शायद वो पढ़े लिखे इन्सान भी इस बात को नहीं जानते कि ये मासूम बच्चे क्या जानें कि नजर लगाना क्या बला है।ये किस चिड़िया का नाम है। उनको तो शायद उनके मां बाप का नाम व अता पता भी नहीं मालूम होता।कुछ को अपना नाम बुलाये जाने पर लगता है कि यही उसका असली नाम है। ऐ लड़की,ओ कल्लो,ओए सुनता नहीं क्या,ओ बहरा है क्या,ढंग से काम करना नहीं आता,देखने में बैल जैसा है। फ़िर धीरे धीरे ये मासूम इसके अभ्यस्त हो जाते हैं।
ये मासूमियत भरी नजरें नजर लगाना तो नहीं जानती। लेकिन शायद नई नई चीजों को देखकर उनकी उत्सुकता जो उनकी नजरों में भर जाती है या जिस चीज को देखकर उनके मन में उसे छू कर देखने की इच्छा जागृत हो जाती हो।उसे हम और आप मिलकर उनकी नजरों को लालचीपने का नाम देने से नहीं कतराते।
जरा इन कूड़ा बीनने वालों ,बर्तन माजने वाली लड़कियों या सड़क पर बैठ कर बूट पालिश करते, कार की सफ़ाई करते लड़कों से पल भर के लिये अपना दिमाग हटा कर देखिये। और जरा अपने बच्चों पर भी एक नजर डालिये । क्या किसी नई चीज को देखकर उनमें उत्सुकता नहीं जागृत होती?क्या वे उसे पाने या खाने के लिये
जिद नहीं करते? कम से कम वे बोल कर आपसे अनुरोध करके या फ़िर आप से जिद करके अपनी बात मनवा नहीं लेते?और फ़िर हम भी उनके आगे झुकने के लिये मजबूर हो जाते हैं,लेकिन जायज मांग पर।
फ़िर उन मासूम बच्चों का क्या दोष जो किसी बात पर अपना हक नहीं जमा सकते। किसी से अपनी मांग पूरी नहीं करवा सकते क्योंकि शायद वो उनके माता पिता के लिये एक स्वप्न के समान होता है। जिसके लिये दो जून की रोटी ही बहुत मायने रखती है। और हम अपने फ़टे पुराने या कभी कभार कुछ नया देकर ऐसा अहसान
जताते हैं जैसे उन्हें खरीद लिया हो।
फ़िर हम ऐसे बच्चों को बजाय झिड़कने के प्यार के दो बोल बोलने में भी इतनी कंजूसी क्यों करते हैं।जिसके लिये आपके प्यार भरे दो बोल ही उसको कम से कम पल भर की खुशी दे जाती है।
एक बात और है। हम अगर अपने घर काम करने वाली के बच्चे का शौक पूरा करने के लिये ही पढ़ाना लिखाना शुरू करते हैं।तो उनके सीखने,पढ़ने ,लिखने की गति तेज होती है।इसके पीछे भी मुख्य कारण उनकी लगन और जागरूकता होती है।भले ही उनके मां बाप को ये बेकार का काम लगता हो।पर इसमें उनका कोई दोष नहीं है।
क्योंकि घूम फ़िर कर बात उनकी रोटी पर ही आकर टिक जाती है।
मुझे तो इस बात की बेहद खुशी होती है कि मैनें अपनी शिक्षा का दुरुपयोग नहीं किया।जितनी भी काम वालियां चाहे मेरे घर पर काम करती हों या नहीं ,मैनें उन्हें पढ़ना लिखना सिखाकर इस काबिल बना दिया कि कम से कम वह अपने पैसे रूपयों का हिसाब किताब रख सके। या वक्त पड़ने पर चार लाइन ही लिख सके तो मैं समझूंगी कि मेरा जीवन थोड़ा बहुत सार्थक हो गया। और जब ये बच्चे आकर आपको ये बताते हैं कि आंटी जी आपने पढ़ने का जितना काम दिया वो हमने घर के काम निपटाने के बाद कर लिया। तो यह सुनकर मेरे मन में इतनी अधिक खुशी होती है कि मुंह से बरबस ही निकल पड़ता है---वाह इसे कहते हैं लगन । जो संभवतः अपने बच्चे में कम ही देखने को मिलती है।
फ़िर हमारा समाज ये कहने से नहीं चूकता कि व्यर्थ में अपना समय बर्बाद कर रही हैं।इनको पढ़ाने लिखाने से कोई फ़ायदा नहीं।इनकी तो नियति ही यही है।बस कलम यहीं बंद करती हूं।सोचती हूं क्या कर्म से भाग्य को नहीं बदला जा सकता? कोशिश तो की जा सकती है। इनको भी एक खुशहाल जीवन देने ,अच्छा इन्सान बनाने के लिये।ताकि वो भी विरासत में पाई जिन्दगी के साथ साथ कुछ अच्छा भी कर सकें।
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पूनम