सोमवार, 20 अगस्त 2012

आखिर क्यों--------?


अब मेरे बगीचे में
नहीं आता है
चिड़ियों का हुजूम
दाना चुगने के लिये।

अब भोर की बेला में
नहीं सुनाई देती
उनकी चीं चीं चूं चूं
उनकी चहचहाहट।

अब नजरें तरस गयी हैं
उन्हें देखने के लिए
पानी भरे अधफ़ूटे मटके में उनका
फ़ुदक फ़ुदक कर
अपने पर फ़ड़फ़ड़ा नहाना
और अपने पंखों को
फ़ैलाकर सुखाना।

उनका वो लुका छुपी
का खेल
एक रोमांच सा लगता था
जिनको देख हम भी
बन जाते थे बच्चे।
घने पौधों के बीच
उनका घोंसला बनाना
और फ़िर
हर वक्त अपने घोंसले के
चारों ओर
बड़ी सजगता से
निगरानी करना।

घोंसले के पास
किसी को देख
भयातुर स्वरों में चीं चीं
की करुण पुकार
उनकी हरकतें
आज भी बहुत याद आती हैं
पर क्या करें वो भी
हमने ही तो भौतिकता की
अंधी दौड़ में उन्हें
रास्ता बदलने पर
मजबूर कर दिया।

क्या कोई उन्हें
फ़िर से मना कर
हमारे बगीचे में
वापस नहीं ला सकता।
000
पूनम


मंगलवार, 14 अगस्त 2012

आया शुभ दिन

(फ़ोटो गूगल से साभार)

पन्द्रह अगस्त का आया शुभ दिन
हमको आज़ाद कराने का दिन
शहादत और बलिदानों का दिन
हम सबकी खुशहाली का दिन।

सर पे कफ़न बांध थे निकले
वीर युवा सब आज के ही दिन
शीश कटा पर झुका न उनका
भारत मां को मान दिलाने का दिन।

कुर्बानी याद दिलाने का दिन
वीरों पर शीश झुकाने का दिन
गाथाएं उनकी गाने का दिन
राहों पर उनके जाने का दिन।

कसमें सभी निभाने का दिन
पुष्पांजलियां अर्पित करने का दिन
आज़ादी जो वीरों ने दी
सुरक्षित उसे बनाने का दिन।
000
पूनम श्रीवास्तव



शनिवार, 4 अगस्त 2012

गज़ल


आज अपने ही शहर में
बन के मेहमां हम खड़े हैं
देख के हालत ये अपनी
बेकसी से रो पड़े हैं।

हंस के जो मिलते थे पहले
आज परदे में छुपे हैं
एक सिक्के के दो पहलू
सामने मेरे पड़े हैं।

सूर्य के रथ की धुरी सी
चल रही थी ज़िन्दगी
राहु बन कर के वो मेरा
रास्ता रोके खड़े हैं।

पहचान की हर सरहदों को
काट कर मीठी छुरी से
देखते हैं वो तमाशा
किस डगर पर हम खड़े हैं।

आज अपने ही-----।
0000

पूनम