अब मेरे बगीचे में
नहीं आता है
चिड़ियों का हुजूम
दाना चुगने के लिये।
अब भोर की बेला में
नहीं सुनाई देती
उनकी चीं चीं चूं चूं
उनकी चहचहाहट।
अब नजरें तरस गयी हैं
उन्हें देखने के लिए
पानी भरे अधफ़ूटे मटके में उनका
फ़ुदक फ़ुदक कर
अपने पर फ़ड़फ़ड़ा नहाना
और अपने पंखों को
फ़ैलाकर सुखाना।
उनका वो लुका छुपी
का खेल
एक रोमांच सा लगता था
जिनको देख हम भी
बन जाते थे बच्चे।
घने पौधों के बीच
उनका घोंसला बनाना
और फ़िर
हर वक्त अपने घोंसले के
चारों ओर
बड़ी सजगता से
निगरानी करना।
घोंसले के पास
किसी को देख
भयातुर स्वरों में चीं चीं
की करुण पुकार
उनकी हरकतें
आज भी बहुत याद आती हैं
पर क्या करें वो भी
हमने ही तो भौतिकता की
अंधी दौड़ में उन्हें
रास्ता बदलने पर
मजबूर कर दिया।
क्या कोई उन्हें
फ़िर से मना कर
हमारे बगीचे में
वापस नहीं ला सकता।
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पूनम