(आज 11 मार्च को मेरे श्वसुर हिंदी के प्रतिष्ठित कहानीकार एवं
बाल साहित्यकार श्रद्ध्येय श्री प्रेमस्वरूप श्रीवास्तव जी का जन्म दिवस है।इस
अवसर पर उन्हें स्मरण करते हुए प्रस्तुत है उनके लिए उनकी पुत्रियों द्वारा लिखा गया
यह आत्मीय संस्मरण।यह संस्मरण डा०कविता श्रीवास्तव और श्रीमती अलका वर्मा ने हिंदी
की प्रसिद्ध बाल साहित्य पत्रिका “बाल वाटिका” के पिता जी पर केन्द्रित अंक(मार्च -2019)के
लिए लिखा था।)
अनवरत
चलती रही उनकी लेखनी
|
पिता जी और अम्मा श्रीमती सरोजिनी देवी |
लेखिका-डा० कविता
श्रीवास्तव एवं
श्रीमती अलका वर्मा
(बेटियां)
जुलाई 31, 2016।समय, शाम लगभग सात
बजे।हम लखनऊ से चलकर बछरावां पहुँच ही रहे थे कि भाभी का फोन आया–“दीदी लौट आइये।बाबू
जी की तबियत अचानक ही बहुत खराब हो गई है।हतप्रभ रह गये हम।मन आशंकाओं से घिर उठा।अभी
एक घंटे पहले ही तो पिताजी से मिल करके आ रहे थे हम।”
“बहुत परेशान किया तुम लोगों को।खुश रहो।बहुत
खुश रहो तुम सब।” अपने बच्चों के लिये पिता के हृदय से निकले
आर्शीवाद के साथ हम कुछ निश्चिन्त से लौट रहे थे इलाहाबाद (आज का प्रयागराज)अपने
घर,कि भले ही पिता जी आई.सी.यू. में हैं पर उनमें
सुधार हो रहा था।और उन्हें आश्वस्त किया था हमने कि बहुत जल्द ही एक दो दिनों में
वे आई.सी.यू. से बाहर होंगे।और हम फिर उनके साथ होंगे।पर यह क्या.........?
तुरन्त ही हमारी गाड़ी मुड़ चली वापस लखनऊ के
लिये।मन आशंकित था, दिल में
प्रार्थना थी।जब हम अस्पताल पहुँचे, हमने पाया--पिता जी हमें छोड़ कर जा चुके थे अपनी अंतिम यात्रा पर।आखों में
आँसू थे।मन में पीड़ा थी।पर हम एक दूसरे को ढांढस दे रहे थे--नहीं, रोना नहीं है।वे यहीं हैं और हमें रोता देख
उन्हें बहुत कष्ट होगा।
हमारे पिता श्री प्रेम स्वरूप श्रीवास्तव जी
नहीं रहे। 87 वर्ष की उम्र में
इस संसार से विदा ली उन्होंने।और हमने महसूस किया कि जैसे हम अनाथ हो गये।सचमुच,
हमने अनुभव किया कि हम कितने भी बड़े क्यों न हो
जाएं, माता-पिता का साया हमें
एक अजब सा सुकून, एक अलग सी मजबूती
देता है।भले ही बढ़ती उम्र के साथ हम उनके सहारे बन जाते हैं, पर उनका होना ही जिन्दगी के नर्म -- गर्म
रास्तों पर अनजाने ही हमारा सम्बल होता है।
अगस्त 2016।छोटे भइया डा. हेमन्त कुमार के कुछ शब्द हमारे व्हाट्स ऐप
पर।शाम कार्यालय से घर लौटते घनघोर बारिश में ट्रैफिक जाम में फंसे भइया।उस वक्त
के उनके मनोभावों को अभिव्यक्त करती हम सबके अंर्तमन को छू जाने वाली कविता--“
कोई फोन क्यो नहीं बजता।“ सचमुच पिता जी रहे होते तो उस स्थिति में उनके
कितने ही फोन आये होते भइया के पास।भइया एक बार जवाब देते।दूसरी बार खीझकर जवाब
देते।“आ रहा हूँ।जाम में फंसा
हूँ।“ और तीसरी बार शायद फोन
काट ही देते।ऐसा ही तो होता है।बेचैन माता-पिता धैर्य खो बच्चों की खोज खबर लेते,
हाल चाल लेते बार बार फोन करते हैं।और व्यस्त
बच्चे खीझ उठते हैं समय असमय की कॉल से।पर उस दिन।उस दिन भइया को इंतज़ार था उस कॉल
का।पर कॉल करने वाला तो किसी और ही दुनिया में चला गया था।
जब से होश संभाला, पिता जी को लेखनी के साथ ही पाया।जौनपुर में जन्मे और वहीं
से स्नातक हुए और एम. ए. (हिन्दी) किया काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से।अंको की
दृष्टि से अति सामान्य छात्र रहे पर लेखन में थी अद्भुत प्रतिभा।लेखन उन्हें
विरासत में मिला था।हमारे बाबा स्व. गंगा प्रसाद “प्रेम“ जी, जो सहारनपुर में एक इन्टर कालेज में
प्रधानाचार्य रहे, एक बहुत अच्छे
कवि थे।यह अलग बात है कि उनकी कविताएं छिट-पुट, इधर-उधर अखबारों,पत्रिकाओं में छपती थीं।पर कोई संकलन नहीं प्रकाशित हुआ।
पिता जी बताते थे कि एक वक्त जुनून सा था कि हर
पत्रिका में मेरी कहानियाँ छपें।और छपीं भी। ”साप्ताहिक हिन्दुस्तान , “धर्मयुग”,’कल्पना”,”ज्ञानोदय”,”कहानी”,”नई कहानी”,विशाल
भारत”“मुक्ता“ ,
“सरिता“, “कादम्बिनी“”चौथी दृष्टि”,”कथा-क्रम”यानि लगभग सभी प्रतिष्ठित और ख्याति प्राप्त
पत्रिकाओं अखबारों में।बड़ों के लिए लिखा तो बच्चों के लिये भी खूब लिखा।उनकी
बाल कहानियाँ “पराग“, “नंदन“, “चंपक“, “बाल भारती“, “सुमन सौरभ“,
“बाल वाणी”सभी में छपीं।उन्होंने बहुत सी पुस्तके लिखीं।कई राष्ट्रीय
पुरस्कार से पुरस्कृत हुयीं।आकाशवाणी से राष्ट्रीय प्रसारण में नाटक प्रसारित होते
रहे।“हवा महल“ में भी नाटक प्रसारित हुए।कलम उनकी जीवन संगिनी
रही।
अर्धांगिनी श्रीमती सरोजनी देवी भी अन्त
में साथ छोड़ गयीं पर लेखनी जीवन के आखिर
तक साथ रही।अन्तिम यात्रा पर निकलने के आठ दिन पूर्व तक पिता जी हमारे साथ थे।कुछ
महीनों पहले हम बेटियाँ उन्हें अपने पास लाये थे कि कुछ दिन हमारे साथ इलाहाबाद
में रहिये।आखिर पूरा जीवन यहीं तो बीता था उनका।यहाँ आखिरी प्रवास के दौरान जून 2016 तक उनका लेखन अनवरत चला।याद है हमें उनके वे
शब्द--जल्दी से जल्दी मुझे ये नाटक पूरे करने हैं।उन्होंने पूरे किये भी। उनकी “
हवा महल” के लिये लिखी गई अंतिम नाटिकाएं
थीं ---“शाही पीकदान की
चोरी”और “भंडाफोड़”।नाटिकायें प्रसारित भी हुयीं परन्तु उनके
मरणोंपरान्त।हाँ उनकी स्वीकृति और पारिश्रमिक का चेक उनके सामने ही आ गये थे।
उस वक्त हमें लगता था कि आखिर ऐसी जल्दी क्या
है उन्हें नाटक पूरे करने की।कुछ दिन पहले ही उनका मोतियाबिन्द का आपरेशन हुआ था।हम
चाहते थे कि इस वक्त आँखों पर इतना जोर न दें।किसे पता था कि उनके पास वक्त कम था।
पिता जी के लेखन में सादगी थी, सहजता थी, प्रवाह था।और इसीलिये वह पाठक को अपने साथ ले लेता था।बच्चों
के लिये लिखा, बड़ों के लिये
लिखा।कहानियाँ लिखीं और नाटक भी खूब लिखे। शूर वीरता के किस्से, ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर रची कहानियाँ, बच्चों को प्रेरणा देती कहानियाँ। मनोभावों,
रिश्तों को सहेजती रचनाएं।जीवन जीने का संदेश
देती रचनाएं।कभी हार न मानने का जज़्बा पैदा करती रचनाएं।उत्साह--उमंग से भरी
रचनाएं।
शिक्षा प्रसार विभाग में पटकथा लेखक के
रूप में बहुत सी फिल्मों की पटकथाएं भी खूब लिखीं।सम्भवतः 20-21 वर्ष की आयु से लिखना शुरू किया था पिता जी ने
और लेखन का यह क्रम अनवरत चलता रहा 87वर्ष की आयु तक।परन्तु लगभग 67 वर्षों के उनके
लेखन का कोई समुचित लेखा--जोखा उपलब्ध नहीं है।उनकी कुछ रचनाएं हैं----मन-पलाश,
मुठ्ठी भर रोशनी, अपने अपने अजनबी, अधूरा नाटक, स्वप्न दृष्टा,
अतृप्तता, एक बीमार गली, थ्रोट कैंसर, शाही पीकदान की
चोरी, भंडाफोड़, वीर बालक भीमा, वन की पुकार, शेर बच्चे, आखों का तारा,
एक तमाशा ऐसा भी (सभी नाटक)। मौत के चंगुल में
(उपन्यास), वतन है हिन्दुस्तां हमारा,
अरूण यह मधुमय देश हमारा, यह धरती है बलिदान की, मदारी का खेल, मंदिर का कलश, हम सेवक आपके
(पुस्तकें)।और उनका अंतिम बाल नाटक संग्रह “एक तमाशा ऐसा भी”नेशनल बुक ट्रस्ट से
प्रकाशित हुआ।इसका एग्रीमेंट तो उनके जीवन काल में ही हो गया था परन्तु ये किताब
प्रकाशित होकर आयी उनके जाने के बाद।
हमारे पिता श्री प्रेमस्वरूप श्रीवास्तव जी
सकारात्मक सोच के धनी थे और उनके सकारात्मक व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति थीं उनकी
रचनाएं।वे प्रगतिवादी थे।यह उनके लेखन में, व्यवहारिक जीवन में स्पष्ट दिखाई देता था।अत्यन्त सादा--सरल
जीवन था उनका।जिन्दगी को भरपूर जीने का जज़्बा था उनमें।और उन्होंने जिया भी।हर
पर्व पर, हर अवसर पर उनका उत्साह
देखते बनता था।हमारे लिये कंदीलें बनायी उन्होंने, हमारे लिये घरौंदे बनाये उन्होंने।नागपंचमी पर गुड़िया बना
तालाब में डाल पीटने की परम्परा रही है।उसके लिये नीम के पेड़ की लम्बी पतली शाखाओं
को बीच बीच से छाल निकाल कर उन हिस्सों को लाल--नीले रंगों से रंग कर छड़ियाँ
बनायीं उन्होंने गुड़िया पीटने के लिये।हम लोग जब उनके साथ अपने गाँव खरौना जाते तो
घर के सामने थोड़ी दूर पर लगे जामुन के पेड़ पर वो खुद चढ़ जाते और उसकी डाल हिलाते।और
नीचे हम सभी भाई बहन और गाँव के अन्य बच्चे चादर फैलाकर उस पर पकी हुयी जामुन
इकठ्ठा करते।ऎसी कितनी ही यादें उनके व्यक्तित्व के विभीन्न पहलुओं को उजागर करने
वाली हैं।
उनमें धैर्य था, आत्मविश्वास था।कभी धैर्य डगमगाता तो अम्मा का धीरज उन्हें
संभलता।एक दूसरे के पूरक थे दोनों।बड़ा लम्बा साथ रहा उनका।
धीरज रखना और हिम्मत रखना हमने उनसे सीखा।जिन्दगी
को भरपूर जीने की प्रेरणा पायी उनसे।जिन्दगी में उतार चढ़ाव आते ही रहते हैं।यह
अम्मा पिता जी के व्यक्तित्व, उनकी सहज
सकारात्मक सोच, उनके प्रोत्साहन
भरे आशीर्वचनों का ही प्रभाव है जो हमें मुश्किलों में भी सहज रहने की सीख देता
है।
पिता जी कर्मठ थे आलस्य तनिक नहीं था।हम माघ
मेले(प्रयागराज में रहे तो हर वर्ष माघ मेला,अर्ध कुम्भ,कुम्भ मेला में
भ्रमण स्वाभाविक ही था)से घूम कर घर लौटते( 7 - 8 किलोमीटर से लेकर 14 - 15 किलोमीटर तक का पैदल भ्रमण तो हो ही जाता था)तो हम थक कर
बैठ जाते पर वे हमसे पहले गैस चूल्हे पर पानी रख देते गरम होने के लिये ताकि गरम
पानी में पैर डाल कर हम थकान उतार सकें।हम चाय पीने की सोच रहे होते तब तक तुलसी
अदरख वाली चाय गैस चूल्हे पर बन रही होती।यह बात अलग है कि धीरे--धीरे हम बड़े होते
गये और उनके कार्य सहेजते गये। 80 वर्ष की उम्र तक
लाख मना करने पर भी उन्होंने मोपेड चलायी।
स्वाभिमानी पर अत्यन्त विनम्र थे।गुस्सा भी आता
था उन्हें।नाराज भी होते थे।पर बस कुछ देर के लिये।अन्दर से इतने सहज कि छोटे बड़े
किसी से भी क्षमा मांगने में संकोच नहीं करते थे। सब मिल--जुल कर रहें, प्रेम-प्यार से रहें हमेशा उनकी आकांक्षा
रही।विनोदी स्वभाव के थे।चुटकियाँ ले -- हँसते हँसाते रहते थे।ऐसे थे हमारे पिता
श्री प्रेमस्वरूप श्रीवास्तव जी।
बहुत आस्था और विश्वास था उनमें ईश्वर के
प्रति।किन्तु अन्धविश्वासी नहीं थे।और कर्म काण्ड में विश्वास नहीं था उन्हें।श्री
राम चरित मानस के 24 घंटे के अखण्ड
पाठ में वे मित्रों और परिवारजनों के साथ विभिन्न लयों, विभिन्न रागों में पाठ करके आनन्दित होते थे।किन्तु मण्डली
बुला कर पाठ करवाना, लाउडस्पीकर लगा
कर पाठ करवाना उन्हें तनिक भी पसंद नहीं था।उनके मन में हर धर्म के प्रति आस्था थी।और यह संदेश उनकी रचनाओं में
मिलता है।उनका नाटक “ एक तमाशा ऐसा भी” धार्मिक सद्भाव का संदेश देता है।विविधता थी
उनके लेखन में।उनका नाटक “ वन की पुकार” पर्यावरण को सुरक्षित रखने की पुकार लगाता हैं।
संगीत सुनना उन्हें पसंद था।स्व. के. एल. सहगल
उनके पसंदीदा गायक थे।“ एक बंगला बने न्यारा”, “ जब दिल ही टूट गया”, “ दो नैना मतवारे” आदि गीत उन्हें बेहद पसंद थे।याद है हमें एक समय में विविध भारती पर सुबह “
भूले बिसरे गीत” कार्यक्रम का आखिरी गीत
अधिकतर के. एल. सहगल जी का हुआ करता था।जिसका उन्हें बेसब्री से इंतजार रहता था।
याद है हमें, हम सब साथ बैठ कर रेडियो पर प्रसारित होते उनके नाटक सुना
करते थे।वे अपनी रचनाएं भाव के साथ पढ़ कर हमें सुनाते थे और हमारे सुझावों को
सम्मिलित भी करते थे।
लेखन उनका जुनून था।परन्तु कोई उच्चाकांक्षा
नहीं थी इस दिशा में।वह बस लिखते रहे, लिखते रहे।यूँ तो उनका जीवन प्रायः सुख, शांति और सुकून भरा ही रहा, किन्तु ज़िन्दगी के आखिरी वर्षों में नियति के थपेड़े भी
झेलने पड़े उन्हें।अम्मा की लम्बी बीमारी।लगभग साढ़े तीन वर्ष तक वे बिस्तर पर रहीं।और
इसी बीच हमारे बड़े भइया डा. मुकुल कुमार का एक सड़क दुर्घटना में न रहना। बहुत,बहुत बड़ा आघात था यह।टूट गये थे पिताजी नियति
के इस प्रहार से।लेखन छोड़ दिया था उन्होंने।पर हम सब के आग्रह पर धीरे-धीरे फिर
लेखनी पकड़ी उनहोंने।और यह लेखनी ही उनके हृदय के घाव को कुछ--कुछ भरने में उनका
सम्बल बनी।पीड़ा तो मन में थी, पर लेखनी के साथ
जिन्दगी चल पड़ी थी।
जानें कितनी बातें, जाने कितनी यादें।आखिर उनका और हमारा लम्बा साथ भी तो रहा।हम
सचमुच सौभाग्यशाली हैं कि माता--पिता की छाया हम पर लम्बे समय तक रही।साथ तो छूटना
ही था। छूटा।यह तो प्रकृति का नियम है।पर आज भी वे हमारे साथ हैं।उनकी बातें,
उनकी यादें, उनके आर्शीवाद हर पल हमारे हृदय में हैं। उन्हें हमारी
विनम्र भावभीनी श्रृ़द्धांजलि।
लेखिका-डा० कविता
श्रीवास्तव एवं
श्रीमती अलका वर्मा
(बेटियां)
परिचय:
डा०कविता श्रीवास्तव:15-05-1960 में जौनपुर में जन्म।इलाहाबाद विश्वविद्यालय से
गणित विषय में एम०एस०सी०,डी०फ़िल०करने के बाद कुलाभास्कर आश्रम डिग्री कालेज में
गणित विषय की एसोशिएट प्रोफ़ेसर।लेखन कला विरासत में मिली।इसीलिए पिछले तीस वर्षों
से गणित के अध्यापन के साथ ही आकाशवाणी के गृहलक्ष्मी और युववाणी कार्यक्रमों के
लिए सामाजिक सरोकारों,महिला समस्याओं,और ग्रामीण परिवेश से जुड़ी कहानियों का लेखन।अभी
तक आकाशवाणी इलाहाबाद से लगभग 150 कहानियों का प्रसारण।देश विदेश के मैथमेटिकल
जर्नल्स में शोध पत्रों का प्रकाशन।संपर्क:84/16 दलेल का पूरा(हैजा अस्पताल गेट के
सामने),बाघम्बरी रोड,इलाहाबाद-211006,मोबाइल-09140526241
श्रीमती अलका
वर्मा: इलाहाबाद विश्वविद्यालय से प्राचीन इतिहास से एम०ए०,एवं एल०टी० करने के बाद
कुछ समय तक रिहंद नगर में केन्द्रीय विद्यालय में अध्यापन।वर्त्तमान में एक कुशल
गृहणी। संपर्क--एच०आई०जी०-39,निरुपमा
कालोनी,स्टैनली रोड,इलाहाबाद-211001 मोबाइल-07992158592