बुधवार, 14 अप्रैल 2010

सागर तट पर


सागर तट पर

खड़ी खड़ी निहार रही थी

मैं उसकी अथाह

गहराई और उफ़नाती लहरों को

जो बीच बीच में

मेरे कदमों को चूम कर

वापस जाती फ़िर लौट आती

मानों आपस में उनमें

होड़ लगी हो।

सागर की सतह पर

पड़ता सूर्य का प्रतिबिंब

अपनी अलग ही

छटा बिखेर रहा था

मानो वो चांदी की

एक बड़ी सी थाल हो

और उसकी किरणें

चारों तरफ़ बिखरी हुयी

डूबती उतराती

ऐसी लग रही थीं

जैसे वो आपस में लुका छिपी

खेल रही हों।

बड़ा ही मनोरम

दृश्य हृदय में

आत्मसात हो रहा था

कि अचानक एक विचार

मस्तिष्क में कौंधा

इसी सागर के गर्भ

में जाने अनजाने

कितने अनगिनत राज

छुपे हुये हैं

हीरे मोती सीप माणिक

जाने किस किस रूप में

कैसे कैसे खजाने

अपने गर्भ में

समाये हुये है।

यही वह सागर है

जो जीवन दाता भी है

और कभी अचानक

विकराल रूप

धारण कर इसमें से

जो लहर फ़ूटती है

सुनामी बनकर

चंद पलों में

अपने साथ जाने कितने

गांव शहर

हजारों जीवन

समेट ले जाती है

और पहले की तरह

ही इठलाती लुभाती रहती है

मानों कुछ हुआ ही नहीं।

बस वह छोड़ जाती है

अपने पीछे

अपनी इन्तहां की निशानियां

जो दिखती हैं

वीरान मरुस्थल के रूप में

गांव शहर के उजड़े रूप में

कितनों का सहारा

कितनों की सांसें

पागलों की तरह भटकते हुये

कदमों के रूप में

जो विस्फ़ारित नेत्रों से

अपनी सुध बुध खोए

डरे लुटे से

शायद आज भी अपने

लोगों के लौट आने की

राह देख रहे हैं।

मन में एक टीस सी उठी

भौतिक आपदाओं से तो

मानव लड़ सकता है

परन्तु क्या उसमें है

हिम्मत

प्राकृतिक आपदाओं के

कोप से भी बचने की।

000

पूनम

44 टिप्‍पणियां:

Apanatva ने कहा…

prukruti par rachit such ko ujagar karatee gahan arth liye ek sarthak ravchana......maine bhee ise vishay me kafee likha hai .
bahut sarthak lekhan..........
aabhar Poonamjee.............

Amitraghat ने कहा…

आनन्द आ गया......"

Sadhana Vaid ने कहा…

कुदरत के कहर पर आपकी यह मार्मिक रचना दिल को छू गयी ! सागर की निष्ठुरता की निशानियां अभी तक हज़ारों दिलों में अंकित हैं लेकिन उसके प्रति मनुष्य के मन में अदम्य आकर्षण आज भी अक्षुण्ण है ! सुन्दर रचना के लिए बहुत बहुत बधाई और आभार !
http://sudhinama.blogspot.com
http://sadhanavaid.blogspot.com

संगीता पुरी ने कहा…

मन में एक टीस सी उठी

भौतिक आपदाओं से तो

मानव लड़ सकता है

परन्तु क्या उसमें है

हिम्मत

प्राकृतिक आपदाओं के

कोप से भी बचने की।

बहुत सुंदर रचना .. बस यहीं आकर तो मनुष्‍य लाचार हो जाता है !!

मनोज कुमार ने कहा…

बहुत अच्छी कविता।

सुशीला पुरी ने कहा…

sundar......

Udan Tashtari ने कहा…

बहुत उम्दा अभिव्यक्ति!

देवेन्द्र पाण्डेय ने कहा…

सागर तट पर घूमते-घूमते पूरा सागर ही उठा लिया आपने!
उतार दिया कागज पर.
वाह!
..बधाई।

kunwarji's ने कहा…

वाह!खूब गोते लगवाए जी आपने सागर की लहरों में....

कुंवर जी,

डॉ. मनोज मिश्र ने कहा…

वाह,ख़ूबसूरत.

Chandrika Shubham ने कहा…

Nice photo with a nice poem. :)

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

प्राकृतिक आपदाओं पर लिखी सार्थक रचना....गंबीर विषय है.....बहुत संवेदना से उठाया है

सूबेदार ने कहा…

waise mai apki har post ko padhta hu .ap bahut acchha kabita karti hai.
is kabita me to lagta hai ki sagar jaisi hi apki bhi gahrai hai.
dhanyabad

रचना दीक्षित ने कहा…

वाह!!!!!!!!!! सागर सी गहरी बात मन में भी हलचल पैदा कर गयी
आभार

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

सागर को गहराई और विराटता से प्रस्तुत किया है ।

रश्मि प्रभा... ने कहा…

इसी सागर के गर्भ

में जाने अनजाने

कितने अनगिनत राज

छुपे हुये हैं

हीरे मोती सीप माणिक

जाने किस किस रूप में
saagar kee gahraai ko achhe se likha

BrijmohanShrivastava ने कहा…

प्राकृतिक आपदाओं से बचना कठिन है |रचना का प्रथम भाग प्रकृति की सुन्दरता का वर्णन करता हुआ फिर रहस्य कि सागर में क्या क्या समाया हुआ है | फिर उसका रौद्र रूप | सौन्दर्य वर्णन में सूर्य के प्रतिबिम्ब को चांदी के थाल की उपमा दी गयी है ।एक समय ऐसी ही उपमा चन्द्रमा को दी गई ""व्योम के अटल पटल पर आज कौन तू कनक थाल जैसा ।व्योम है सुन्दर नीला बस्त्र किया बूंटों का जिसमे काम / ओड़ कर चन्द्र मुखी नव बधू बदन झलकाती है सुख धाम

Shri"helping nature" ने कहा…

prastuti kavita si nahi lg rahi hai.bs gadya sa malum ho raha hai.....
kripya ager kavita hai to rup rekha kavita si lagni chahiye

दिगम्बर नासवा ने कहा…

प्राकृति अपना संतुलन बना के रखती है .. इंसान ने तरक्की कर ली पर क्या वो प्राकृति से जीत पाएगा ...
बहुत अच्छी रचना है आपकी .. कुछ ऐसा ही राज खोलती ...

rashmi ravija ने कहा…

सागर के कई राज खोलती ....बहुत ही संवेदनशील रचना

Abhishek Ojha ने कहा…

सागर के किनारे खड़े होने पर लहरें सहज ही सोच भटका देती हैं... और दार्शनिक बना देती हैं.

Indranil Bhattacharjee ........."सैल" ने कहा…

बहुत सुन्दर कविता है ! प्रकृति के सामने मनुष्य हमेशा से ही तुच्छ रहा है, भले ही वो कितनी भी कोशिश कर ले !

अंजना ने कहा…

वाह! क्या खूब लिखा है आपने मन प्रसन्न हो गया।

बेनामी ने कहा…

bahut khub likha hai aaapne...
बस वह छोड़ जाती है अपने पीछे अपनी इन्तहां की निशानियां जो दिखती हैं वीरान मरुस्थल के रूप में गांव शहर के उजड़े रूप में कितनों का सहारा कितनों की सांसें पागलों की तरह भटकते हुये कदमों के रूप में जो विस्फ़ारित नेत्रों से अपनी सुध बुध खोए डरे लुटे से शायद आज भी अपने लोगों के लौट आने की राह देख रहे हैं।
kya baat hai...
achhi rachna ke liye badhai...
mere blog par is baar..
नयी दुनिया
jaroor aayein....

अरुणेश मिश्र ने कहा…

चूम चूम कर वापस जाती..... उत्कृष्ट रचना ।

Gyan Dutt Pandey ने कहा…

विशाल जल राशि हो या विशाल रेगिस्तान। दार्शनिक बना देता है!

hem pandey ने कहा…

प्रकृति के दो रूपों का अच्छा दिग्दर्शन किया है. ऐसा ही मानव मन भी है. वह भी कभी तो शांत और स्वस्थ्य रहता है, कभी उद्वेलित हो कर तबाही कर देता है सागर की तरह

Shayar Ashok : Assistant manager (Central Bank) ने कहा…

वाह !! बहुत खूब !!
बहुत सुन्दर रचना ||

Urmi ने कहा…

बहुत सुन्दर रचना लिखा है आपने जो काबिले तारीफ़ है! बधाई!

abhi ने कहा…

वाह !! बहुत अच्छी कविता..
बहुत सुन्दर..

Dr.Bhawna Kunwar ने कहा…

Bahut sachhi or payari rachna likhi ha aapne...bahut2 badhai..

अंजना ने कहा…

अच्छी रचना....

Parul kanani ने कहा…

badhiya..

अरुण चन्द्र रॉय ने कहा…

सुंदर रचना ! प्रकृती के विभिन्न रूपो को सागर के माध्यम से अभिव्यक्त किया है आपने...

वन्दना अवस्थी दुबे ने कहा…

भौतिक आपदाओं से तो

मानव लड़ सकता है

परन्तु क्या उसमें है

हिम्मत

प्राकृतिक आपदाओं के

कोप से भी बचने की
कैसे होगी हिम्मत, जब इन प्राकृतिक आपदाओं को वह स्वयं ही न्यौता दे रहा. सुन्दर रचना.

स्वप्न मञ्जूषा ने कहा…

प्रकृति स्वयं को संतुलित करती है....
प्राकृतिक आपदाओं को झेलने की क्षमता कुछ हद्द तक ही है मानव के पास...
परन्तु जिस तरह प्रकृति के साथ खिलवाड़ किया गया है...अब उसके प्रकोप झेल पाना इतना भी आसन नहीं है...
सहज, सरल, और सादगी से भरी अभिव्यक्ति....
बहुत अच्छी लगी...आभार...

रानीविशाल ने कहा…

Gahan Chintan se janma ek bada sawal bahut hi sahaj rup se pucha hai aapane....Sarthak Rachana!!

नीरज गोस्वामी ने कहा…

प्रकृति से लड़ना असंभव है...सार गर्भित रचना...
नीरज

सम्वेदना के स्वर ने कहा…

प्रकृति की सुंदरता और उसके प्रतिकार का सजीव चित्रण किया है आपने... और अंत में एक सवाल छोड़ती कविता … अद्भुत...

अनामिका की सदायें ...... ने कहा…

sach kaha aapne manav man nahi lad sakta in aapdaao se ..aur man me tees si uth kar rah jati he.

kshama ने कहा…

Jab manushya qudrat se khel karta hai,uska samtol bigadta hai,tab qudrat use maaf nahi kar sakti..aagme haath dala to use jalnahi hai..Qudratke qanoon sabke liye saman hain..

Alpana Verma ने कहा…

अरे मुझे लगा था मैं ने यहाँ कमेन्ट कर दिया था ..ये कविता पढ़ी थी .
इस कविता में प्रकृति के रोद्र रूप का कैसे कहर बन ..असर करता है 'वीरान मरुस्थल के रूप में गांव शहर के उजड़े रूप 'ये पंक्ति अभिव्यक्त कर देती हैं..
बहुत ही भावपूर्ण कविता लिखी है.बहुत अच्छी.

Dr.Dayaram Aalok ने कहा…

पूनमजी, आपकी कविताओं मे सागर की तरह अथाह गहराई है। प्रकृति का अति सुन्दर चित्रण ब्रहमांड में छिपे रहस्यों को परत दर परत उघाडने के प्रयास में आप पूरी तरह सफ़ल होती प्रतीत हो रही हैं । आभार!

Reetika ने कहा…

sundar rachna !