मंगलवार, 9 जून 2009

क्या करुँ




शब्द नये आज मन में नहीं आ रहे
क्या लिखूं कैसे लिखूं समझ नहीं पा रहे।

शब्दों को गीतों की माला में पिरोऊं
पर शब्द रूपी सच्चे मोती ढूंढ़ नहीं पा रहे।

शब्द ही सच हैं शब्द ही झूठ भी
उलझन है मन में बहुत सुलझ नहीं पा रहे।

सच को बयान करूं तो शब्द लगे तीर से
शब्द रूपी तीर लोग झेल नहीं पा रहे।

झूठ जो बयां करूं तो शब्द देते साथ नहीं
कलम भी लिखने से हाथ को रोक रहे।

फ़िर सोचती हूं जो मन के भाव उन्हीं को उतार दूं
पर व्यक्त करूं कैसे उन्हें शब्द नहीं पा रहे।
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पूनम

16 टिप्‍पणियां:

Batangad ने कहा…

झूठ जो बयां करूं तो शब्द देते साथ नहीं
कलम भी लिखने से हाथ को रोक रहे।

क्या बात है

satish kundan ने कहा…

सच्ची बात कही है आपने पूनम जी...कुछ भावनाएं ऐसी होती है जिन्हें शब्दों में ढालना मुश्किल होता है...आपकी साडी रचनाएँ बहुत अच्छी लगी...मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है...

Vinay ने कहा…

पूनम जी आपकी रचना बहुत अच्छी है!

रश्मि प्रभा... ने कहा…

बहुत सुन्दर कविता....

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

मनोभावों का सुन्दर चित्रण।

Sumit Pratap Singh ने कहा…

सुंदर रचना...

!!अक्षय-मन!! ने कहा…

adbhut rachna bahut saare bhawon ko samete ek utkrasht rachna........
aur shabdon ka chayan bhi nahut hi accha kiya hai.........
aap bahut hi accha likhti hain........

Alpana Verma ने कहा…

झूठ जो बयां करूं तो शब्द देते साथ नहीं
कलम भी लिखने से हाथ को रोक रहे।

-यही तो होता है एक कवि मन!
-सच्चा साफ़ !
-अच्छी रचना पूनम जी!

Urmi ने कहा…

बहुत ख़ूबसूरत और दिल को छू लेने वाली रचना लिखा है आपने! आपकी हर एक रचना इतना सुंदर है कि कहने के लिए अल्फाज़ कम पर जाते हैं! लिखते रहिये पूनम जी और हम पड़ने का लुत्फ़ उठाएंगे!

दिगम्बर नासवा ने कहा…

सच को बयान करूं तो शब्द लगे तीर से
शब्द रूपी तीर लोग झेल नहीं पा रहे।

झूठ जो बयां करूं तो शब्द देते साथ नहीं
कलम भी लिखने से हाथ को रोक रहे।

शब्दों की कशमकश को लाजवाब रूप में लिखा है............. सचमुच शब्द कब क्या कह दे, कैसे कह दें पता नहीं

कंचनलता चतुर्वेदी ने कहा…

अच्छी अभिव्यक्ति ....

John Burger ने कहा…

आपकी सारी रचनाये वास्तव में काबिले तारीफ हैं !
धन्यवाद् !

sandhyagupta ने कहा…

Ek rachnakar ki udhedbun ko bahut sundar aur prabhavi tarike se vyakt kiya hai aapne.Badhai.

मुकेश कुमार तिवारी ने कहा…

पूनम जी,

क्या करूँ, एक कविता भर ना होकर एक प्रश्‍न है जिससे हर रचनाकार का सामना होता है। मैं यह मानता हूँ कि सृजन वह नही है जो व्यक्त हो गया या शब्दों में बंध गया वस्तुतः यह उहापोह/उधेडबुन ही किसी रचना का प्रसवकाल है और यही पीड़ा रचनाकार को आत्मिक आंनद देती है।

सादर,

मुकेश कुमार तिवारी

ओम आर्य ने कहा…

झूठ जो बयां करूं तो शब्द देते साथ नहीं
कलम भी लिखने से हाथ को रोक रहे।

बिल्कुल सही ऐसा ही कुछ होता है कभी कभी....सुन्दर्

प्रवीण त्रिवेदी ने कहा…

अच्छी रचना पूनम जी!